tag:blogger.com,1999:blog-85344204961807053472024-03-13T09:20:37.333+05:30मन की लहरेंमन की लहरेंhttp://www.blogger.com/profile/15167461728431243414noreply@blogger.comBlogger1405125tag:blogger.com,1999:blog-8534420496180705347.post-26137567357055989572019-07-26T20:03:00.004+05:302023-09-24T09:31:21.455+05:30पाँच विचार<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><br /><span style="background-color: white;">इच्छा का संचार विचार की शक्ल लेता है और इच्छा आभासित होती है विचारक के रूप में..<br />
मन है..इच्छा का संचार</span><br />
-अरुण<br />
<br />
लोग अच्छे हो न पाए पर दिख रहे अच्छे<br />
‘अच्छाईयत’ का आजकल जो बाज़ार गरम है<br />
-अरुण<br />
<br /><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg5MvskWc7NWDGJzyb08fOkeCeqMn57NUC-ViSumsSnzX6h0teRUTQLQdHcyi7B8cn2WLPg5giEQrLmhtMRWxSYOmKHGh3g6UHdgKncpN8s4UP-aHRVj95n8p5apFtxG8n2lh5c53PbF_z5A0TYPr-KMA87wkODI4wy4u5Pj_iyQFxVqc6bB7OHt8QOfBE/s234/mind.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="156" data-original-width="234" height="156" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg5MvskWc7NWDGJzyb08fOkeCeqMn57NUC-ViSumsSnzX6h0teRUTQLQdHcyi7B8cn2WLPg5giEQrLmhtMRWxSYOmKHGh3g6UHdgKncpN8s4UP-aHRVj95n8p5apFtxG8n2lh5c53PbF_z5A0TYPr-KMA87wkODI4wy4u5Pj_iyQFxVqc6bB7OHt8QOfBE/s1600/mind.jpg" width="234" /></a><br /><br />जो हमने रची चीज़ें.. हमें ही ख़रीद लेती हैं<br />
और फिर, नया कुछ भी हमें रचने नही देती<br />
-अरुण<br />
<br />
दूसरों से पाए हुए चिराग़….अंधेरा हटाते नही, गहराते हैं<br />
-अरुण<br />
<br />
बदन-ओ-मन से उसे क्यों जुड़ाव हो<br />
हैं दोनों किराये पे मिले…… रहन वास्ते <br />
-अरुण<br />
<br /></div>
मन की लहरेंhttp://www.blogger.com/profile/15167461728431243414noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8534420496180705347.post-72967633430380331302019-07-23T17:28:00.004+05:302019-07-23T17:30:13.753+05:30तीन पोस्टस्<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
प्रकाश’ का तात्पर्य<br />
****************<br />
प्रकाश के प्रभाव को<br />
उजाला कहिए<br />
और प्रकाश के अभाव को<br />
अंधेरा<br />
अस्तित्व, जब समझ (प्रकाश) में आए,<br />
ज्ञान (उजाला) कहिए<br />
और जब वह समझ के दूर (अभाव) हो<br />
कहिए उसे अज्ञान (अंधेरा)<br />
-अरुण<br />
<br />
‘अपना’ ही खो जाए तो<br />
********************<br />
अपना कुछ खो जाए<br />
तो दुख ही दुख<br />
यह ‘अपना’ ही खो जाए तो<br />
ख़ुशी ही ख़ुशी…टिकाऊ ख़ुशी<br />
-अरुण<br />
कैसे नादान हैं हम?<br />
*************<br />
अजिंदे भूत ने<br />
क़ब्ज़ा कर रखा है इस जिंदगी पर<br />
और छोड रखा है<br />
दो साँसों और दिल की धड़कनों का सहारा<br />
जीने के लिए<br />
एक हम हैं ऐसे मूरख कि<br />
भूत में समायी हुई ग़ैरमौजूदगी से ही पूछ रहें हैं<br />
अपनी मौजूदगी के बारे में<br />
उठ्ठे सवाल<br />
-अरुण<br />
<div>
<br /></div>
</div>
मन की लहरेंhttp://www.blogger.com/profile/15167461728431243414noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8534420496180705347.post-87419781510428385282019-07-20T18:04:00.004+05:302019-07-20T18:04:58.213+05:30नज़र से नज़रिये से नही<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
नज़र से नज़रिये से नही<br />
********************<br />
रास्ते पर रखकर अपनी चौकस नज़र<br />
चालक सुरक्षित गाड़ी चलाता है<br />
फिर, जिंदगी की गाड़ी क्यों हम,<br />
अपनी चौकस नज़र से नही,<br />
अपने नज़रिये से चलाते हैं ?<br />
-अरुण<br />
<div>
<br /></div>
</div>
मन की लहरेंhttp://www.blogger.com/profile/15167461728431243414noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8534420496180705347.post-4169933908866041862019-07-19T20:57:00.000+05:302019-07-19T20:57:09.134+05:30दो रचनाएँ आज के दिन<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
दर्शक और दुनिया<br />
***************<br />
दर्पण हो पर<br />
उसमें प्रतिबंब न दिखे<br />
तो फिर वह दर्पण नही है<br />
<br />
दुनिया हो मगर<br />
उसे देखनेवाला न हो<br />
तो फिर वह दुनिया नही है<br />
<br />
हरेक दर्शक अपनी दुनिया<br />
अपने साथ लेकर आता है<br />
और अपने ही साथ लेकर जाता है<br />
-अरुण<br />
एक शेर<br />
*******<br />
तमाशा ही तमाशा है न कोई भी तमाशाई<br />
नज़र भी है नज़ारा…है सृजन इस सृष्टि का<br />
-अरुण<br />
<br /></div>
मन की लहरेंhttp://www.blogger.com/profile/15167461728431243414noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8534420496180705347.post-54387326533856571272019-07-18T16:23:00.001+05:302019-07-18T16:23:12.652+05:30समय-स्थान-हक़ीक़त <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
समय-स्थान-हक़ीक़त<br />
*******************<br />
गाड़ी चल रही आगे.......कि रस्ता जा रहा पीछे?<br />
खड़ी पूरी हक़ीक़त ....समय एवं स्थान के चलते<br />
चलना और ठहरना धारणा है.. ...है ख़याली सोच<br />
जगत का खेल क्या जानों दिमाग़ी खेल के चलते?<br />
-अरुण<br />
<div>
<br /></div>
</div>
मन की लहरेंhttp://www.blogger.com/profile/15167461728431243414noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8534420496180705347.post-54866156104008841212019-07-18T04:03:00.001+05:302019-07-18T04:03:04.097+05:30<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
मनुष्य-चेतना की कहानी<br />
*******************<br />
हर क्षण हर पल आदमी गहरी नींद में विश्राम करता,स्वप्न के आकाश में फड़फड़ाता और<br />
विचारों के बहाव में बहता हुआ ज़िंदगी जीता रहता है।<br />
<br />
अपनी परिपूर्ण मानसिक अवस्था का परिपूर्ण स्मरण रखनेवालों को ही इस सच्चाई का एहसास होता रहा होगा।<br />
<br />
आंशिक स्मरण रखनेवाले हम जैसे लोग<br />
किसी एक ही अवस्था (जाग, स्वप्न या नींद)- से ही जुड़ा महसूस करते हैं।<br />
<br />
सागर कहाँ है?<br />
सागर एक ही वक्त, एक ही पल लहरों में है, लहरों को उभारती गहराईंयों में है और तल पर शांत लेटी तरंगों में भी है।<br />
मनुष्य की चेतना की कहानी इससे भिन्न नही है।<br />
-अरुण<br />
<div>
<br /></div>
</div>
मन की लहरेंhttp://www.blogger.com/profile/15167461728431243414noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8534420496180705347.post-2005503875636369742019-07-16T17:27:00.001+05:302019-07-17T02:33:47.564+05:30नयी पोस्ट<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
क्या कोई आसमान को देखने की सोचेगा<br />
खुद की ऊँचाई चौड़ाई गहराई.. खो देने के बाद?<br />
-अरुण<br />
<br />
अक्रीय ही देख पाए सक्रीयता.. शून्य ही समझ पाए शब्द और पैमाने...इसीलिए शून्य में जो ठहरे वही हो पाए...सयाने<br />
-अरुण<br />
<br />
तमन्ना है ताक़त....ज़िंदगी में जान फूँक देती है<br />
मगर उसमें जो अटके उसे वह तबाह कर देती है<br />
-अरुण<br />
तूफ़ानों से परेशान ज़िंदगी चाहकर भी क्या चाहे..राहत चाहे.. सुकून न मिल पाया कभी चाहने से..सो बस राहत चाहे<br />
-अरुण<br />
एक रूपक<br />
*********<br />
मानो मशीन चलती है आवाज उठाती जाती<br />
रूह का मान उस आवाज को ग़लती से मिले<br />
बस यही सोच घुसी जबसे.....इंसानी क़ौम<br />
क़ुदरती देह में......बेकुदरत मन हक़ से जिए<br />
-अरुण<br />
<div>
<br /></div>
</div>
मन की लहरेंhttp://www.blogger.com/profile/15167461728431243414noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8534420496180705347.post-7213027505133593162019-07-11T17:45:00.002+05:302019-07-12T04:57:04.361+05:30कुछ शेर<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
कुछ शेर<br />
******<br />
बिना किसी टकराहट के भीड़ से गुज़र जाना या बिना किसी तकरार के भीड़ में घुलमिल जाना<br />
-अरुण<br />
<div style="color: #454545; font-family: 'Kohinoor Devanagari'; font-size: 17px; line-height: normal;">
धुएँ से खेलनेवाले आग की भी ख़बर रखते हैं</div>
<div style="color: #454545; font-family: 'Kohinoor Devanagari'; font-size: 17px; line-height: normal;">
ज़िंदगी ही हो आग जैसी जिनकी..</div>
<div style="color: #454545; font-family: 'Kohinoor Devanagari'; font-size: 17px; line-height: normal;">
धुएँ का हिसाब नही रखते</div>
<div style="color: #454545; font-family: 'Kohinoor Devanagari'; font-size: 17px; line-height: normal;">
-अरुण</div>
<div style="color: #454545; font-family: 'Kohinoor Devanagari'; font-size: 17px; line-height: normal;">
हर पल का अलग चेहरा उसको ही नजर आए </div>
<div style="color: #454545; font-family: 'Kohinoor Devanagari'; font-size: 17px; line-height: normal;">
जिसमें न बना करती........बेजान समय-रेखा</div>
<div style="color: #454545; font-family: 'Kohinoor Devanagari'; font-size: 17px; line-height: normal;">
-अरुण</div>
<div>
<br /></div>
<div>
<br /></div>
</div>
मन की लहरेंhttp://www.blogger.com/profile/15167461728431243414noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8534420496180705347.post-63095247683080974612019-07-10T15:27:00.002+05:302019-07-10T15:27:43.702+05:30माया को काया कहे<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
माया को काया कहे<br />
****************<br />
“जो जैसा है वैसा ही” दिख जाए तो वह है वास्तव<br />
अगर वैसा न दिखकर कुछ गलत या मिथ्या दिखे<br />
तो वह है माया<br />
अगर वह सबों को ही गलत दिखे तो उस देखी गई सार्वजनिक माया को<br />
“सार्वजनिक वास्तव” कहने का चलन है<br />
सकल दुनियादारी भौतिक तथ्यों का संज्ञान लेते हुए भी<br />
इस “सार्वजनिक वास्तव” या अतथ्य को आधाररूप बनाती है<br />
अपने निजी और सार्वजनिक कार्यकलापों को निभाते वक्त<br />
एक उदाहरण-<br />
सबकी अस्मिता या अहंकार को जो एक माया है<br />
“सार्वजनिक वास्तव” के रूप में सहज स्वीकार कर लिया गया है।<br />
-अरुण<br />
<div>
<br /></div>
</div>
मन की लहरेंhttp://www.blogger.com/profile/15167461728431243414noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8534420496180705347.post-56044366237718296762019-07-09T19:08:00.002+05:302019-07-09T19:08:50.707+05:30खुद के जानने का तरीक़ा भिन्न<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
ख़ुद को जानने का तरीक़ा भिन्न<br />
************************<br />
"दुनिया को समझने के सारे साधन उपलब्ध हैं..<br />
मगर ये साधन<br />
ख़ुद को समझने के काम नही आते" यह बात<br />
समझतक पहुँचती या न पहुँचती कि<br />
उससे पहले ही<br />
आदमी सभी उपलब्ध साधनों के चक्कर में फँसकर<br />
निराश हो चुका होता है..<br />
या इन साधनों में से किसी में उलझ चुका होता है<br />
-अरुण<br />
<div>
<br /></div>
</div>
मन की लहरेंhttp://www.blogger.com/profile/15167461728431243414noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8534420496180705347.post-2742089051152634592019-07-09T18:50:00.003+05:302019-07-09T18:50:40.885+05:30ख़ुद को जानने का तरीक़ा भिन्न<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="color: #454545; font-family: 'Kohinoor Devanagari'; font-size: 17px; line-height: normal;">
<span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;">"</span><span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">दुनिया</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span><span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">को</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span><span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">समझने</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span><span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">के</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span><span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">सारे</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span><span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">साधन</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span><span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">उपलब्ध</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span><span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">हैं</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;">..</span></div>
<div style="color: #454545; font-family: 'Kohinoor Devanagari'; font-size: 17px; line-height: normal;">
<span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">मगर</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span><span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">ये</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span><span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">साधन</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span></div>
<div style="color: #454545; font-family: 'Kohinoor Devanagari'; font-size: 17px; line-height: normal;">
<span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">ख़ुद</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span><span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">को</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span><span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">समझने</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span><span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">के</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span><span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">काम</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span><span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">नही</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span><span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">आते</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;">" </span><span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">यह</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span><span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">बात</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span></div>
<div style="color: #454545; font-family: 'Kohinoor Devanagari'; font-size: 17px; line-height: normal;">
<span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">समझतक</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span><span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">पहुँचती</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span><span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">या</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span><span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">न</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span><span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">पहुँचती</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span><span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">कि</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span></div>
<div style="color: #454545; font-family: 'Kohinoor Devanagari'; font-size: 17px; line-height: normal;">
<span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">उससे</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span><span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">पहले</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span><span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">ही</span></div>
<div style="color: #454545; font-family: 'Kohinoor Devanagari'; font-size: 17px; line-height: normal;">
<span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">आदमी</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span><span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">सभी</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span><span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">उपलब्ध</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span><span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">साधनों</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span><span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">के</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span><span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">चक्कर</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span><span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">में</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span><span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">फँसकर</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span></div>
<div style="color: #454545; font-family: 'Kohinoor Devanagari'; font-size: 17px; line-height: normal;">
<span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">निराश</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span><span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">हो</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span><span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">चुका</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span><span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">होता</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span><span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">है</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;">.. </span></div>
<div style="color: #454545; font-family: 'Kohinoor Devanagari'; font-size: 17px; line-height: normal;">
<span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">या</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span><span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">इन</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span><span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">साधनों</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span><span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">में</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span><span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">से</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span><span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">किसी</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span><span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">में</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span><span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">उलझ</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span><span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">चुका</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span><span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">होता</span><span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;"> </span><span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">है</span></div>
<br />
<div style="color: #454545; font-family: 'Kohinoor Devanagari'; font-size: 17px; line-height: normal;">
<span style="font-family: '.SFUIText'; font-size: 17pt;">-</span><span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;">अरुण</span></div>
<div>
<span style="font-family: KohinoorDevanagari-Regular; font-size: 17pt;"><br /></span></div>
</div>
मन की लहरेंhttp://www.blogger.com/profile/15167461728431243414noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8534420496180705347.post-13139172467473795442019-07-09T00:46:00.002+05:302019-07-09T00:47:40.604+05:30मन में ही ऐसा हो सके<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
"चीज़ में उतर आए चीज़ को पहचाननेवाला। पहचाननेवाले में उतर आती है चीज़ें पहचानी गई"<br />
ऐसा चमत्कार जिस जगह घटता है वह जगह मन को छोड़कर दूसरी कोई नही।<br />
-अरुण</div>
मन की लहरेंhttp://www.blogger.com/profile/15167461728431243414noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8534420496180705347.post-19443103024614905502019-07-08T19:57:00.001+05:302019-07-09T00:09:40.319+05:30जिंदगी -वेदांत और विज्ञान दोनों का विषय<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="p1" style="-webkit-text-size-adjust: auto; color: #454545; font-family: "Kohinoor Devanagari"; font-size: 17px; font-stretch: normal; line-height: normal;">
केवल हाड़ माँस मज्जा ख़ून .. इनको समझ लेने से जिंदगी समझ नही आती और अगर हाड़ माँस मज्जा ख़ून को अलग कर दो तो जिंदगी बच नही पाती। इसीलिए चेतना या जिंदगी केवल वेदांतिक नही रहा... विज्ञान का भी विषय बन गया है।</div>
<div class="p1" style="-webkit-text-size-adjust: auto; color: #454545; font-family: "Kohinoor Devanagari"; font-size: 17px; font-stretch: normal; line-height: normal;">
-अरुण</div>
</div>
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जिसे अपने और ब्रह्मांड के बीच<br />
किसी भी विभाजक के न होने का<br />
गहन बोध होता रहे<br />
उसे स्वयं के बारे में या विश्वत्व के बारे में<br />
या दोनों के बीच के अभिन्नत्व के बारे में</div>
मन की लहरेंhttp://www.blogger.com/profile/15167461728431243414noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8534420496180705347.post-54933816230058496472017-10-02T01:10:00.004+05:302017-10-02T01:10:56.685+05:30सितंबर २०१७ कीरचनाएँ<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
मन ठहरा.. मन बहता<br />
*****************<br />
बहती धारा में<br />
नदी का पानी... हर क्षण है नया<br />
किनारे खड़े पेड़ों की छाया ने<br />
कुछ हिस्सा नदी का ढक दिया<br />
ढका हिस्सा रुका...थमासा लगता है<br />
छाया के बाहर.....पानी बहतासा दिखता है<br />
<br />
इसीतरह वर्तमान पर<br />
छाया भूत की पड़ते ही<br />
चेतना बंटी दो हिस्सों में<br />
एक हिस्सा...मन ठहरा हुआ..<br />
तो दूसरा....मन बहता हुआ<br />
– अरुण<br />
कहा न जाए.. बिन कहे रहा न जाए<br />
********************************<br />
जो कहा ही नही जा सकता....उस सत्य को<br />
लोग कहे बिना न रह सके...<br />
न ही जानने का कुतुहल थमा....<br />
न ही कहने की विवशता <br />
सत्यकथन का सिलसिला बना रहा<br />
युगों युगों से...युगों युगों तक<br />
<br />
चूंकि, ब्रह्मांड देखे सारे ब्रह्मांड में<br />
जिस दृष्य को.. जिस सत्य को..<br />
आदमी के पिंड उसे कैसे देख पाएँ..<br />
कैसे कह पाएँ....दूसरे पिंडों से...?<br />
<br />
स्वयं कृष्ण बुद्ध जैसों ने... प्रबुद्ध ब्रहमांडो ने<br />
कहने की पुरज़ोर कोशिश की.... पर समझ पाए<br />
शायद कुछ ही<br />
क्योंकि जागा होगा शायद... उन कुछ के ही ध्यान में<br />
स्वयं ब्रह्मांड<br />
-अरुण<br />
<br />
देखना.. समझना<br />
**************<br />
देखने का.. समझने का <br />
अलग अलग है अंदाज<br />
<br />
घाट पर बैठकर जलप्रवाह देखना दूर से<br />
और जल में घुलकर..ख़ुद प्रवाह बनजाना..<br />
नदी का..<br />
<br />
जिंदगी को अक्सर लोग देखते ही हैं<br />
देखकर सोचते ही हैं<br />
सोचते सोचते कहे जाते हैं जो कहना है<br />
<br />
समझनेवाले तो हैं बिरले जो<br />
जिंदगी पर सोचते नही<br />
न ही कुछ कहते हैं<br />
जिंदगी में घुलकर<br />
ख़ुद प्रवाह बन जाते हैं..<br />
जिंदगी का<br />
-अरुण<br />
<br />
मन की शांति मन से संभव नही<br />
**************************<br />
केवल कभीकदा ही<br />
यह चित्त उलझन में भी शांत लगता है<br />
वैसे तो हमेशा कुछ न कुछ चाहता..खोजता<br />
परेशान है...<br />
कई बातें उलझाती हैं उसे और फिर..<br />
वह भागा फिरता है<br />
किसी गुरू..राह..ग्रंथ.. मान्यताओं या टोटकों की तलाश में<br />
जो उसे मुक्त कर दे सारी झंझटों से<br />
<br />
समझनेवाली बात यह है कि<br />
झंझटों से मुक्ति की खोज में युक्त मन भी<br />
खींचातानी में व्यग्र होकर नयी परेशानियाँ मोल लेता है<br />
मन अपने सीमित ज्ञान-सामग्री के भरोसे<br />
मानसिक जटिलता से निपटने में असमर्थ है<br />
<br />
ध्यान का प्रकाश ही मन की गाँठों को खोलकर<br />
चित्त को सुलझन और शांत-अवस्था के<br />
दर्शन कराने कराने हेतु सक्षम है<br />
-अरुण<br />
सुकून का ज़रिया<br />
**************<br />
जिसका न कहीं भी कोई भी छोर<br />
ऐसा जगत क्यों भागे<br />
किसी भी ओर से किसी भी ओर?<br />
<br />
ऐसे जगत में<br />
जहाँका हर कण.. हर क्षण<br />
अपनी ही जगह बिना कोई चाहत धरे<br />
बिना किसी मंजिल, बिना भाग दौड़ <br />
शांत तृप्त ठहरा हुआ है....<br />
वहाँ<br />
हरतरफ...हरतरह का शोर भी है....<br />
शोर शब्दों का, शोर स्मृतियों का,<br />
शोर भावनाओं की भिड़ंत का<br />
शोर नाना तरह की अस्मिताओं का<br />
शोर स्वार्थों की छीनाझपटी का...<br />
शोर नादानी का, शोर पंडिताई का<br />
शोर धार्मिक प्रतिस्पर्धा और कर्मकांडों का,<br />
शोर राजनीतिक उठापटक, सत्ता-उन्माद<br />
और निराश असफलताओं का<br />
<br />
ऐसे में अब<br />
दो शोरों के बीच छूटी ज़मीन ही<br />
बनी हु ई है<br />
आदमी के सुकून का ज़रिया<br />
-अरुण<br />
द्वैत को दिखती दुनिया.. अद्वैत को ईश्वर<br />
*********************************<br />
दुनिया देखा करती हमको<br />
हम दुनिया को देखें<br />
मध्य दुनों में अंतर जबतक<br />
‘अनुभव’ से हम चूंकें<br />
<br />
अंतर होवे जब ‘अंतर’ में<br />
केवल देखादेखी<br />
एक दुजे में मिलन न होवे<br />
तबतक सीखासीखी<br />
<br />
देखसीख के रिश्ते जबतक<br />
दुनियादारी जीए<br />
घुलमिल जाते इकदूजे में <br />
ईश्वर-दर्शन होवे<br />
<br />
अंतर ॰ न म जबतक दुनिया से हो<br />
हम, दुनिया... दो टुकड़े<br />
अंतर लोपत दो टुकड़ों का<br />
‘अंतर’......... प्रेम स्वरूपे<br />
-अरुण<br />
<br />
वक्त<br />
****<br />
किसी भी क्षण को नही पता कि<br />
उससे पहले भी कोई क्षण आ चुका था..<br />
पेड के नीचे पड़ा पत्ता<br />
क्योंकर रखे हिसाब कि<br />
कितने क़दम गुज़र गये<br />
उसपर से होकर?<br />
<br />
केवल हमारी बदनसीबी है<br />
कि सर उठाने से पहले ही<br />
हमारा वर्तमान<br />
बीते अनुभवों के नीचे दबकर<br />
मर जाता है<br />
फिर भी हमें लगता है कि<br />
हम रख सकते हैं हर वक्त का हिसाब<br />
बिना जाने यह हकीकत कि<br />
वक्त गिना नही जाता...<br />
गिनी जाती है केवल<br />
वक्त के ‘‘भूतों” की तादाद<br />
-अरुण<br />
<br />
ज्ञान और ध्यान का फ़र्क़<br />
**********************<br />
टॉर्च जलाकर खोजना<br />
इकइक कर हरचीज़<br />
जले बल्ब, तो रूम की<br />
साफ दिखे तस्वीर<br />
--------<br />
बुद्धि या मन जानता तो है परंतु, एक के बाद एक, अलग अलग..... इकट्ठा एक ही साथ एवं एक ही वक्त में नही।<br />
इसतरह, मन द्वारा बारी बारी से जाने गए को, जोडतोडकर ज्ञान निर्मित होता है।<br />
प्रबुद्धता... सारा का सारा साफ देख लेती है, ध्यान के एक ही प्रकाशपुंज में।<br />
-अरुण<br />
<br />
चार पंक्तियाँ<br />
***********<br />
शिकायत पे शिकायत किए जाते हो तुम <br />
कुछ न कुछ तो माँगते ही रहते हो तुम<br />
कुछ वक़्त ख़ामोश रहो और फिर देखो<br />
ख़ुद से ही तो मुख़ातिब नही हो तुम?<br />
-अरुण<br />
<br />
वो कहीं दूर नही<br />
**************<br />
नाकाबिल नही हो के उसे पा न सको <br />
ना ही उसकी जगह है पहुँच के बाहर<br />
बात बस इतनी सी है के बेहोशी में तुम<br />
तलाश रहे हो उसे कहीं दिल के बाहर<br />
-अरुण<br />
भूल<br />
****<br />
जिस ज़मीन को परछाई ढक देती है<br />
उस ज़मीन को वह अपनी समझ लेती है <br />
यही तो भूल किये जा रहा है यह बंदा<br />
सज़ा इसीकी भुग्ते जा रहा है यह बंदा<br />
-अरुण<br />
अंतर-संवाद<br />
*********<br />
समझनेवाले तो सिर्फ़.....दिल से ही समझ पाते<br />
समझ जगाने के...................रंग ढंग कई होते <br />
दिल में जलते हैं........शब्दों और इशारों के दिये<br />
तभी जब.............,.,,,,,,,,दिल से दिल जुडे होते<br />
-अरुण<br />
ठहराव ही है ईश्वर<br />
****************<br />
ईश्वर की खोज में<br />
इधर उधर भटकने से है बेहतर<br />
ठहर जाना विश्रांत अपनी ही जगह<br />
ताकि ईश्वर मिल सके ख़ुद आकर <br />
-अरुण<br />
आत्म-समर्पण करता क्या है ?<br />
************************<br />
मानो बदन से सारा वज़न निकाल लेता है<br />
मन से मन की मनमन निकाल लेता है<br />
फिर जब एहसासे कुदरत का होता एहसास<br />
पूरी कायनात को साँसों में पकड़ लेता है<br />
-अरुण<br />
एक मुश्किल काम<br />
***************<br />
जिंदगीभर बेहोशीही काम आती रही<br />
मन की हर चाह को राह देती रही<br />
अब होश को चाहूँ भी..तो चाहूँ कैसे?<br />
मनचाही बेहोशीसे.. पीछा छुडाऊँ कैसे?<br />
-अरुण<br />
जन्म-मृत्यु<br />
**********<br />
जन्म में ही रहती मृत्यु<br />
मृत्यु में ही जन्म का आग़ाज़<br />
आदमी के ज़हन में...<br />
कोसो दूर दूर रहते.. दोनों<br />
-अरुण<br />
<br />
सबमें दिखती अपनी ही छाया<br />
************************<br />
अपने ही हाँथों से बनाई तस्वीर लिए अपनी<br />
निकल पड़ोगे अगर चित में, इंसा तलाशने<br />
मिलेंगी जो भी लहरें भीतर इंसानी..सबमें<br />
देखेगी वो तस्वीर सिर्फ़ अपनी ही पहचान<br />
-अरुण<br />
<br />
टुकड़ों की ज़िंदगी<br />
**************<br />
चेतना तो है<br />
एक की एक अटूट... अभंग<br />
भले ही कभी उजली हो कभी धुँधली<br />
तो कभी काली...<br />
<br />
आदमी अपनी अधजगी अवस्था के कारण<br />
उजली को ही पूरी चेतना समझकर<br />
उसपर सवार होकर जीवन जी रहा होता है<br />
और इस वजह से<br />
उसकी ज़िंदगी है बंटी हुई..<br />
टुकड़ों टुकडों में चेती हुई<br />
जिंदगी<br />
-अरुण<br />
समग्रता<br />
*******<br />
जीने के वास्ते ही तो मन मिला...<br />
इस मन से क्यों हो कोई शिकवा..गिला?<br />
<br />
मगर छोड़कर जिंदगी को<br />
जीए जाना केवल मन को और मन को ही...<br />
शुद्ध पागलपन नही तो और क्या है?<br />
<br />
दर्शन के लिए मिली हुई आँखों को मूँदे रखना कसकर और<br />
बातें किए जाना दर्शनशास्त्र की...<br />
शुद्ध पागलपन नही तो और क्या है?<br />
<br />
समग्रता में जीना छोड़कर<br />
केवल देह या केवल मन या केवल आत्मा की<br />
चर्चा करते रहना....<br />
शुद्ध पागलपन नही तो और क्या है?<br />
-अरुण<br />
<br />
निर्धन है निश्चिंत<br />
**************<br />
पास कुछ भी है नही जिसके वही मस्ती भरा निर्धन<br />
मस्त रहता और चिंता दूर है उससे<br />
वही है फूल जंगल का वही पंछी निरा उन्मुक्त<br />
चिंता वो करे जिसके धरा हो पास कुछ भी धन<br />
-अरुण<br />
<br />
कोडा घोड़ा गाड़ी और उम्र भी<br />
***********************<br />
कोड़ा फटकारा जाए<br />
घोड़ागाडी दौड़ी जाए<br />
कोड़ा समझे कि<br />
घोडेपर है उसका ही इख़्तियार<br />
घोड़े को लगे कि अगर गाड़ी दौड़ रही है<br />
तो सिर्फ़ उसके ही बदौलत<br />
<br />
ज़िंदगी की गाड़ी कुछ ऐसे ही दौड़ रही है<br />
उम्र की राहपर<br />
आदमी को होश है तो केवल<br />
ज़िंदगी को हाँकते कोड़े का<br />
ज़िंदगी को खींचते घोड़े का<br />
गाडीवान का तो होश ही नही<br />
जिसके इख़्तियार में है..<br />
कोड़ा घोड़ा गाड़ी और उम्र भी<br />
-अरुण<br />
देखना<br />
********<br />
देखने के तीन तरीके हैं।<br />
पहला..ऊपरी दो आँखों से देखना...<br />
दूसरा..मन में कल्पना के माध्यम से देखना<br />
और तीसरा तरीक़ा है<br />
समझ में जागकर देखना।<br />
समझ का जागरण तभी घटता है जब<br />
केवल देखना ही देखना होता हो...<br />
दृष्टा और दृष्य का भेद मिटकर<br />
शुद्ध दर्शन ही हो रहा हो।<br />
-अरुण<br />
<br />
नाम में ही छुपी क़ुदरत<br />
*******************<br />
पहले से पहले<br />
उससे भी पहले.. पहले और<br />
उससे भी पहले...<br />
आँखों में ही रहता था सूरज<br />
उसको न कोई नाम था और न पता<br />
<br />
मालूम नही सूरज को कब नाम मिला और वह<br />
उस नाम में जाकर छुप गया<br />
और<br />
उस वक़्त से<br />
सूरज अपने नाम से ही जाना जाता है<br />
आँखें भी अब सूरज को जानना हो<br />
तो आसमान में नही<br />
दिमाग़ी किताब में घुसकर <br />
उसे तलाशती हैं<br />
-अरुण<br />
<br />
ध्यान के बाहर<br />
*************<br />
एक वक़्त में<br />
ज़िंदगी एक ही क़दम चलती है<br />
अगला पाँव पड़ता है इरादों की ज़मीन पर<br />
पिछला पाँव अतीत की ज़मीन से उठता है ऊपर<br />
ऐसे में,<br />
अगले और पिछले के बीच की ख़ाली जगह<br />
रह जाती है ध्यान के बाहर<br />
हमेशा हमेशा के लिए<br />
-अरुण<br />
सत-रज-तम<br />
************<br />
दोनों में भाग्यवाद ....... निठ्ठला या कर्माग्रही<br />
सात्विक है संतुलित........श्रम और विश्राम बीच<br />
जड़ता को तमस धरे ......त्वरा धरे......रजोगुणी<br />
विश्रांतसरल सात्विक है.....कर्म के चलते चलते<br />
-अरुण<br />
<br />
‘धार्मिक’ अहंकारिता<br />
*****************<br />
बुनियाद तो है<br />
मजहबे इंसानियत ही<br />
सभी धर्मों की<br />
भुलाकर बुनियाद को इस,<br />
बनावट को ही धरम की..<br />
समझ लेना यह कि<br />
यही है धर्म अपना..<br />
भारी भूल है<br />
यही तो भूल.. यह पब्लिक <br />
दोहराए जा रही है<br />
नतीजा ये के आदमी को आदमी से<br />
जोड़ने के वास्ते बने जो धर्म हैं<br />
उन्हें ‘धार्मिक’ अहंकारिता<br />
खाये जा रही है<br />
-अरुण<br />
<br />
तात्कालिक बनाम प्रतिपलिक<br />
************************<br />
गर्जन तर्जन…. बिजली का कौंधना..<br />
जल बनकर धरापर बरसना…<br />
सूरज को ढक कर..पसर देना अंधेरा<br />
दिन में भी<br />
चहुँओर …<br />
यह है ऐसी तात्कालिक भावलीला<br />
बादलों की…<br />
आसमान की नही<br />
<br />
आसमान तो है हमेशा<br />
मौनभरे आनंद का धनी<br />
क्योंकि वह है असीम ..<br />
सभी दिशाओं में है...<br />
है अपनी बाँहें फैलाए हुए<br />
हर जड़ अजड को भीतर से<br />
बिना किसी स्वामीभाव के पकडे हुए..<br />
बाहर से उसपर..<br />
बिना किसी प्रयोजन के आच्छादित..<br />
है हर तन में..हर तने में है<br />
मन में..मन के क्षणकण में है<br />
है प्रतिपलिक<br />
आज भी है.. कल भी था.. और कल भी होगा<br />
<br />
बादल तो हैं बस मौसमी…<br />
आते हैं.. चले जाते हैं….<br />
कोई भरोसा नही उनका<br />
-अरुण<br />
<br />
<br />
शास्त्रों को कैसे पढें.. कैसे समझें?<br />
**************************<br />
शब्द के बाहर ठहरकर<br />
शास्त्र पढ़ना...<br />
अर्थ इसका...<br />
जानकर सुधि में सम्हलकर<br />
शब्द-वस्त्रों से समझ को मुक्त रखकर<br />
शास्त्र पढ़ना<br />
<br />
शब्द केवल हैं इशारे<br />
अर्थ संकेतित नही उनसे बँधा... यह तथ्य<br />
धारे ही जगत के शास्त्र पढ़ना<br />
<br />
सतगुणी<br />
********<br />
किए जाता है कर्तव्य<br />
जिए जाता है जीवन<br />
क्योंकि करते रहने में..<br />
जीते रहने में<br />
है आनंद<br />
न भी कर सके या<br />
करने से रोक दिया जाए<br />
तो रुक जाता है<br />
बिना कोई शिकायत किए<br />
<br />
करना किसी ख़्याल से..<br />
या कुछ पाने को नही<br />
या किसी भी भय से नही<br />
किसी मक्सद या मजबूरी से नही<br />
बस जीवन की मुक्त गति में<br />
पुलकित होने के लिए…..<br />
<br />
जीता है…..यहीं और अभी<br />
किसी भविष्य के लिए नही<br />
न ही किसी अनुभूति की<br />
प्रतिक्रिया बनकर<br />
न सुख की लालसा है उसे<br />
न दु:ख की विवंचना...<br />
ऐसे सतगुणी<br />
कभीकदा ही मिलते हैं<br />
जीवन के किसी मोड़ पर<br />
अचानक<br />
-अरुण<br />
<br />
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मन की लहरेंhttp://www.blogger.com/profile/15167461728431243414noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8534420496180705347.post-52283652259036644702017-09-01T04:36:00.002+05:302017-09-01T04:36:55.389+05:30अगस्त २०१७ की रचनाएँ<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
दिमाग है सामाजिक कृति<br />
*********************<br />
हर एक की<br />
शक्ल अलग है...<br />
और उसका नाम धाम परिवार भी<br />
अलग होने से<br />
वह सोचता है कि उसका<br />
एक अलग..स्वतंत्र वजूद है<br />
<br />
पर उसका यह देखना जानना<br />
और समझना बोधप्रद होगा कि<br />
‘उसका दिमाग’...<br />
उसका दिमाग नही है<br />
वह तो है समाज की निर्मिति<br />
समाज द्वारा संस्कारित कृति<br />
<br />
जिसे इस जीवन-तथ्य का<br />
हरपल जीवंत एहसास है<br />
वह... सामाजिक बंधनों, परंपरा-रिवाजों<br />
और मान्यताओं के दबाव से<br />
निर्बोझ होकर एक खुली जिंदगी जी रहा होता है<br />
बिना उन दबाओं से लड़े...बिना उन्हे स्वीकारे<br />
-अरुण<br />
<br />
कोई दूसरा उपाय नही<br />
*******************<br />
जहाँ संबंध हैं..<br />
संबंधों में आपसी लेनदेन है...<br />
वहाँ संघर्षों का होना<br />
किसी न किसी रूप में,<br />
अवश्यंभावी है<br />
संघर्ष...<br />
मनचित की पूरी क्षमता को<br />
उभरने नही देते सो<br />
आदमी अस्वस्थ और अशांत है<br />
पर संघर्षों से बचने के लिए<br />
कोई सन्यास नही लेता<br />
और चाहकर भी कोई संबंधविरहित<br />
नही हो पाता<br />
<br />
बस, संघर्षों का अंतरबाह्य<br />
त्रयस्थ अवलोकन..स्पष्ट समझ ही<br />
अपनेआप में संघर्षों का थमना है....<br />
कोई दूसरा उपाय नही<br />
-अरुण<br />
मन तो है तन का केवल प्रतिरूप<br />
***************************<br />
पेड को हिलाओ तो नीचे जमीनपर पड़ी<br />
परछाई भी हिलने लगती है<br />
यह तो आदमी है जो परछाईंयों को पकड़<br />
हिलाता है ताकि पेड हिल सके<br />
उसके चाहे हुए याने परछाये हुए ढंग से<br />
<br />
यहाँ बात चल रही है<br />
पेड यानि तन....और परछाई यानि मन की..<br />
<br />
थोड़ा और गहराई में उतरकर सोचें तो<br />
समझ आए कि<br />
तन है अस्तित्व और मन है नाअस्तित्व<br />
अस्तित्व है ‘होता हुआ’ और नाअस्तित्व है ‘माना हुआ’<br />
<br />
आदमी अपने ‘माने हुए’ से ही<br />
‘होते हुए’ को संचालित कर रहा है<br />
मन को ख़ुश रखने के लिए ही<br />
तन को इस्तेमाल कर रहा है<br />
<br />
आदमी कुछ भी समझे..<br />
उसका अस्तित्व तो है.. केवल उसका तन<br />
मन तो है तन का केवल प्रतिरूप<br />
-अरुण<br />
<br />
यही है अस्तित्व शायद<br />
******************<br />
कुछ करते रहने...और बटोरते रहने की ही<br />
ललक है मन को..<br />
<br />
मन...लगातार बटोरते बटोरते<br />
थककर....ऊब जाता है..<br />
फिर..इस ऊब से उबरने के प्रयासों में<br />
अपने को उलझाता है.. और<br />
फिर उनसे भी ऊबकर<br />
थक जाता है<br />
<br />
<br />
उलझना.. ऊबना... ऊब से उबरने के<br />
प्रयासों से थककर फिर से ऊब जाना....<br />
<br />
मजबूरी में, इसी क्रम को<br />
अपना अस्तित्व समझ बैठा है<br />
आदमी शायद<br />
-अरुण<br />
निर्मन अवस्था<br />
************<br />
घड़ी का लोलक<br />
बायें से दायें.. दायें से बायें<br />
झूलता रहता है... बिना ठहरे<br />
अपने मध्य में<br />
<br />
मन का लोलक<br />
भूत से भविष्य और भविष्य से भूत<br />
की तरफ उछाल लेता रहता है.. बिना रुके<br />
अपने वर्तमान पर<br />
<br />
केवल निर्मन अवस्था ही है जो<br />
मन की अस्थिरता को तटस्थता से<br />
निहारते हुए<br />
वर्तमान की स्थिरता एवं शांति में<br />
डूबी रहती है<br />
-अरुण<br />
<br />
दोहा.... ५ अगस्त २०१६<br />
**********************<br />
भाव मुताबिक़ दृष्टि हो................. दृष्टीसम आचार<br />
नाटक हो गर भाव में................. नाटकसम व्यवहार<br />
<br />
तात्पर्य-<br />
मनुष्य के अंतरंग में जैसा भाव हो, सृष्टि उसे वैसी ही नज़र आती है। स्वार्थ से संचालित दृष्टि को जगत एक व्यावहारिक जगत जैसा दिखता है जहाँपर अपने स्वार्थ की पूर्ति ही प्रमुख प्रयोजन है, बाकी सब बातें इस प्रयोजन को संभालते हुए की जाती हैं। मनुष्य अपने और पर के स्वार्थ के बीच समायोजन साधते हुए जीवनयापन करने की कुशलता प्राप्त करना चाहता है। परंतु जिनके अंतरंग में सकल या विश्वभाव जागा, उनमें सारे भेदभाव मिट गये। विभक्ति की वेदनाओं को उनके मन में कोई स्थान न बचा।<br />
परंतु, उनकी तो हम बात ही न करें जो स्वार्थ के केंद्र से संचालित होते हुए भी विश्वभाव का आविर्भाव पहनकर एक विशुद्ध नाटकीय जीवन जीते रहते हैं।<br />
- अरुण<br />
<br />
मुक्तक<br />
*******<br />
हवा होती है......<br />
पर दिखती नही<br />
आकाश दिखता है<br />
पर होता नही<br />
होना और दिखना<br />
एक जैसा नही होता..<br />
बात सही है<br />
<br />
पर कुछ तो है जो<br />
जैसा है.. वैसाही लगता है <br />
या नही लगता<br />
<br />
जिसका देखना सही<br />
उसे वैसा ही लगे<br />
जैसा है<br />
जिसके देखने में हो भूल<br />
उसे वैसा लगे<br />
जैसा नही है<br />
-अरुण<br />
<br />
अभिन्नत्व<br />
**********<br />
सृष्टि से दूरी बनाकर<br />
सृष्टि को केवल ‘विज्ञाना’ जाए<br />
‘ज्ञानना’ क्या है?<br />
यह तो समंदर की<br />
अभिन्न जलबूँदों से पूँछें...<br />
समंदर की अटूट लहरों से पूँछें<br />
जिनके पास आँख, कान, नाक,<br />
जिव्हा, त्वचा और मस्तिष्क जैसे<br />
उपकरण नही होते<br />
<br />
ऐसे उपकरण तो सृष्टि की ही देन है<br />
केवल भिन्नत्व-प्राप्त जीवों के लिए<br />
केवल उनके जरूरी काम निपटाने के लिए<br />
उनकी अपनी सुरक्षा के ख़ातिर<br />
<br />
सृष्टि की असीमता को..<br />
उसके अखंडत्व को<br />
केवल अभिन्नत्व ही बोध पाता है...<br />
<br />
भिन्नत्व तो है केवल<br />
एक कामचलाऊ और<br />
ऊपरी ऊपरी सीमित और<br />
उपकरणीय उपाय<br />
-अरुण<br />
दिल ओ दिमाग<br />
**************<br />
ये तो दिल है<br />
जो बात को समझ लेता है<br />
पूरी की पूरी एक ही सांस में<br />
<br />
पर दिमाग है जो<br />
जानकारी के टुकड़ों को बटोरकर,<br />
उनको जोड़तोड़ कर<br />
अपनी एक समझ बनाता है<br />
वक्त के चलते<br />
-अरुण<br />
अजीबोग़रीब कल्पना<br />
*****************<br />
बैठे बैठे दिमाग में एक<br />
धुंधलासा.. अजीबोग़रीब<br />
ख़याल चमक उठा<br />
<br />
अगर हवा के झोंके<br />
एक-दूसरे को पहचानते होते<br />
सभी आपस में संवादते होते <br />
रिश्ते जोड़ते होते आपस में..<br />
अगर भावनाओं का आदानप्रदान<br />
होता रहता उनके बीच<br />
तब भी हमें उसका कोई पता न होता<br />
<br />
हमें तो सिर्फ झोंकों का<br />
हल्काभारी स्पर्श<br />
हवाओं पर तैरकर आनेवाली<br />
झोंकों की मौसमी गंध के अलावा<br />
कुछ भी पता न होता <br />
<br />
शरीर की उर्जाधार को<br />
रक्तप्रवाह को<br />
प्राणप्रवाह को...<br />
मस्तिष्क से चेतें हुए<br />
मनप्रवाह की<br />
कोई भी ख़बर नही होती<br />
-अरुण<br />
<br />
परछाई पकड़ने की कोशिश<br />
**********************<br />
अपनी ख़्वाहिशों के मुताबिक़<br />
अपने को ढालने का ख़याल.. याने<br />
अपनी ही परछाई के पीछे जाकर<br />
उसे पकड़ने की कोशिश<br />
ख़्वाहिशें ही रोकें रास्ता रौशनी का<br />
ऐसे में फ़िज़ूल है... ख़्वाहिशों में<br />
रौशनी तलाशने की कोशिश<br />
-अरुण<br />
कोई बिरला ही होवे सयाना <br />
********************<br />
जहाँ से होती है शुरुवात वह जगह<br />
किसी बीती हुई कहानी का आख़िरी छोर होता है<br />
जो तमाशा देखने बैठा है भीतर... वह शख्स<br />
किसी गुज़रे हुए दौर का ही.....निचोड़ होता है<br />
<br />
इसी सत पर हुआ है ध्यान रौशन जिस किसीका<br />
वही तो बुद्ध हैं जिनपर हुआ हर दौर दीवाना<br />
लगे सब पूजने जोभी कहा उन बुद्ध लोगों ने<br />
मगर, बिरला ही उनकी बात सुन होवे सयाना<br />
-अरुण<br />
बिरला= कोई इक्का-दुक्क<br />
<br />
सत्य कड़वा पर वचन मीठे<br />
***********************<br />
उपनिषद या आत्मज्ञान के कोई भी प्रवचन या कोई भी ग्रंथ....सब ने अपनी बात सत्य की कड़वाहट और चुभन को कम करते हुए, बहुत ही सम्हलकर एवं मुलायमियत से कही है ताकि सुननेवाले सुनने के लिए राज़ी हो जाएँ। वे सत्य से डर न जाएँ।<br />
<br />
सीधे सीधे यह कहने के बजाय कि यहाँ अस्तित्व में कहीं भी ‘रूप गुण आकार’ का कोई अस्तित्व नही होता, अहंकार की सार्थकता-निरर्थकता की बातें की गईं।<br />
<br />
यह न कहकर कि अस्तित्व की कोई कालस्थल सीमा होती ही नही, यह कहा गया कि अस्तित्व में न कहीं कोई शुरुवात है और न ही अंत।<br />
<br />
यह न कहकर कि यहाँ अस्तित्व में रचयिता या कर्ता का कोई प्रयोजन ही नही, उपदेश किया गया कि तुम कर्ता नही, सबकुछ ‘वह’ करता रहता है।<br />
<br />
सच्चाई को मुलायमियत से कहो तो फिर वह सच्चाई नही रह जाती। सत्य के कडवेपनसे, उसके पैनेपन से डरने वाले, सत्य को कैसे पचा पाएँ। पर अगर सत्य कहना-सुनना हो तो बिना डरे ही कहना-सुनना होगा। इतना साहस तो ज़रूरी है।<br />
-अरुण<br />
<br />
एक निख़ालिस ‘होना’<br />
******************<br />
एक कहे तो दूसरा सुने<br />
एक देखे...और दूसरा दिखे या दिखाये<br />
यह बात तो समझ आती है <br />
<br />
परंतु ऐसा भी है कि<br />
जो कहता है.. वही ख़ुद सुनता भी है जो कहा जाए<br />
जो देखता है..... वही ख़ुद दिखता है देखनेवाले को<br />
<br />
यह कोई पहेली नही....न अनहोनी है...<br />
है यह हकीकत जिसका हरकोई है गवाह<br />
हर पल में.. हर कदम पर<br />
अपनी जिंदगी के<br />
<br />
यह है वो हकीकत<br />
हर आदमी में उसका अतीत ही बोलता और सुनता है.. ख़ुद को<br />
हर आदमी में उसका अतीत ही देखता रहता है स्वयं को<br />
<br />
वर्तमान है मगर उसका नही... सकल का है<br />
जो न बोलता है.. न सुनता है<br />
न देखता है और न ही दिखता है<br />
बस होता है और उसके होने का<br />
न कोई नाम है न रूप<br />
न उसकी कोई छाया है....न धूप<br />
बस होता है<br />
एक निख़ालिस ‘होना’<br />
-अरुण<br />
मनुष्य सीमा से बँधा है<br />
*******************<br />
हर शख़्स है अपनी ही<br />
सीमा-मर्यादा<br />
न जरासा भी कम<br />
न ज़रा सा ज़्यादा<br />
उसके तजुर्बों ने जितनी<br />
जगह है घेर रख्खी<br />
उतनी ही छोटी बड़ी होती है<br />
उसकी हैसियत<br />
भले ही <br />
वह अपने बारे में कुछ भी<br />
समझे विचारे सपने देखे<br />
उसके एहसास जहाँ पर साँस लेते हैं <br />
वही है उसकी आत्मा का शहर<br />
<br />
लोगों की होनेवाली प्रतिक्रियाओं से<br />
ढलता है उसका आचरण,<br />
बनते हैं उसके विचार<br />
<br />
ऐसा बना बनाया मनुष्य-प्राणि<br />
अपनी सीमाओं के परे ट<br />
जाना चाहे भी तो कैसे जा पाए?<br />
-अरुण<br />
<br />
मनधारी.. ध्यानधारी<br />
*****************<br />
कहीं भी हो पहुँचना<br />
वक्त चलता है और चलते हैं पाँव भी<br />
<br />
क्या ऐसा हो सकता है कि<br />
वक्त चले, पाँव न चलें और पहुँचना हो जाए?<br />
<br />
हो सकता नही.. ऐसा होता ही है<br />
मनधारी...मन-वक्त को चलाते हुए<br />
मस्तिष्करूपी पैरों को<br />
रखकर शांत-स्थिर<br />
पहुँच जाते हैं अपने गंतव्य तक<br />
<br />
पाँव न चलें...वक्त न चले<br />
और हो जाए पहुँचना भी<br />
क्या संभव है?<br />
<br />
हाँ, ऐसा भी संभव होता आया है....<br />
एक ही पल में..वक्त के बिन चले<br />
सत्य तक पहुँचे हैं ध्यानधारी<br />
क्योंकि ध्यान को<br />
न तो वक्त की जरूरत है<br />
न सोच-विचार के पाँव चलाने की<br />
<br />
पर हमें तो सोचना पड़ता है<br />
क्योंकि हम तो मनधारी ही बने रहे<br />
ध्यान को उपलब्ध न हुए<br />
-अरुण<br />
<br />
प्रेम –<br />
एक बेतुकी सच्चाई<br />
***************************<br />
प्रेम है<br />
एक ऐसा जहान <br />
जहाँ न है कोई खिडकी दरवाजा<br />
न जमीन न छत<br />
न आकाश न वक्त<br />
और इसीलिए नही होते<br />
उपयोगी<br />
अंदर बाहर ऊपर नीचे जैसे शब्द<br />
इस जहान में<br />
-अरुण<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
सहसा आध्यात्मिक अभिव्यक्तियाँ कारगर साबित नही हो पाती।<br />
कारण नीचे की पंक्तियाँ सुझाती हैं। <br />
<br />
कहना-लिखना सीधे सीधे<br />
*********************<br />
अनुभवों पर कहने-लिखने का<br />
ख़याल ही<br />
कहता लिखता है...<br />
अनुभव ख़ुद कहेंलिखें तो बात बने<br />
<br />
अनुभवकर्ता ख़याली नींद में रहकर...<br />
बयां करता है अनुभवों के चित्र<br />
नींद में लहराते जो उसके<br />
<br />
परंतु जब अनुभव स्वयं बोलने लगते हैं<br />
अनुभवकर्ता की ख़याली विवशता से दूर रहकर<br />
बिना खोये उसके विचारों या सपनों की नींद में.....<br />
<br />
वे सुननेवालों के दिल में उतर जातें हैं<br />
सीधे सीधे<br />
-अरुण<br />
<br />
मानवी अरण्य<br />
************<br />
अस्तित्वगत वास्तव यह है कि<br />
<br />
बीज से पौधे, पौधों से पेड<br />
और पेड़ों से जंगल बहरते हैं..<br />
<br />
सामाजिक चेतना भी ठीक इसीतरह<br />
किसी भाव-बीज से फलित होकर<br />
व्यक्तियों के रूप में अभिव्यक्त होते हुए<br />
समूह की अभिव्यक्ति बन जाती है<br />
<br />
“मै दूसरों से अलग हूँ”<br />
यही है वह मानसिक भाव-बीज<br />
जिससे व्यक्ति-पौधा समूह-वृक्ष और<br />
समाज नामक<br />
जंगल बहरते रहे हैं<br />
-अरुण<br />
एक ही क़िस्म का पेड<br />
अनेक क़िस्मों के फलफूल उसपर<br />
***************************<br />
शिशु से लेकर वृद्धावस्था तक<br />
भले ही रूपाकार बदलता हो<br />
देह वही रहे अखंडित एक की एक<br />
अपने माहौल की हवा पानी मिट्टी से<br />
सुर मिलाती हुई<br />
<br />
इस देह में बोया मन का बीज<br />
अनुभवों के साथ फलता फूलता दिखे भले ही<br />
पर बँट जाता है कई कई टुकड़ों में<br />
कई कई भूमिकाओं में<br />
कई कई पैंतरों में<br />
अपनी ज़िंदगी जीते हुए<br />
<br />
उसमें लडप्पन भी होता है बड़प्पन भी<br />
सद्भाव भी दुर्भाव भी<br />
मुलायमियत किसी के साथ<br />
तो किसी के साथ हिंसाभरा आचरण<br />
मानो एक ही पेड पर वक़्त के बदलते<br />
अलग अलग क़िस्म के फलफूल<br />
उग रहे हों<br />
-अरुण<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
करने में रुचि.. करने की अति... फिर ऊब<br />
*********************************<br />
बातें..चीज़ें पसंद की हों<br />
तो उन्हे करना, बटोरना, उनतक पहुँचना<br />
रुचिकर लगता है... केवल शुरूवाती पलों में ही<br />
परंतु जब यही करना/बटोरना अति हो जाए...हो जाए खूब<br />
तब मन में पैदा होती है ऊब<br />
मन ऊबने लगता है<br />
<br />
आदमी की जिंदगी...<br />
करने/बटोरने की रुचि....<br />
करने की अति...और अति से ऊब....<br />
इसी जीवन चक्र में उलझी हुई है<br />
<br />
असली जिंदगी इस चक्र से है बाहर<br />
जिसका आदमी को कोई पता नही<br />
-अरुण<br />
<br />
तात्कालिक उपाय ही सुविधापूर्ण लगते हैं<br />
*********************************<br />
संभ्रम दुख हैरानी या भय से परेशान आदमी<br />
दिलासे भरोसे और तसल्ली के लिए<br />
जो भी मिल जाए उसे ही स्वीकारता है<br />
<br />
यह कहना अधिक ठीक होगा कि<br />
उनसे ही काम चलाने लगता है <br />
<br />
बिना जाँचे परखे हुए उपाय, समझ,<br />
विश्वास, और मान्यताएँ ही<br />
आदमी को भरोसे लायक लगती हैं<br />
ठीक वैसेही जैसे<br />
नशीले मादक पदार्थ या पेय<br />
कारगर लगते हैं<br />
क्योंकि दोनों ही... आदमी को<br />
सुला देते है किसी न किसी ‘निद्रा’ में<br />
ताकि<br />
सही और स्थाई समाधान<br />
की खोज में<br />
सच्चाई का सामना न करना पड़े<br />
-अरुण<br />
<br />
स्मृतिगंध<br />
*********<br />
जिस रास्ते से गुज़रता है जीवन<br />
उस रास्ते की गंध भर लेता है<br />
उसी गंध में भिंगोकर पाँव अपने<br />
नये रास्तों को नम कर देता है<br />
<br />
ये गंध अजीब सी गंध है<br />
हर जीवन की है अपनी खास<br />
गंध इसकी कैसी ?... उसको पता नही<br />
उसकी गंधसंवेदना का इसको पता नही<br />
<br />
रास्ते पर चलने के तजुर्बे से बनी गंध<br />
जीवन के आख़िरी पल तक घेरती है जीवन<br />
जीवन-अस्तित्व बंध जाता है गंध से इतना<br />
के अस्तित्व को विस्मृत हो जाए अपना जीवन<br />
<br />
ये गंध है स्मृति की गंध<br />
स्मृतिगंध<br />
-अरुण<br />
<br />
अभंग-शांत-निर्विवाद<br />
****************<br />
सच्चाई<br />
सीधी सरल साधी होती है<br />
पर सच्चाई को खोजनेवाली<br />
आदमी की दृष्टि<br />
होती है बहुत कठिन एवं जटिल<br />
बहुत ही टेढीमेढी ...कुटिल<br />
क्योंकि<br />
आदमी जो जिंदगी जी रहा होता है<br />
उसकी बनावट को ही कुटिलता और<br />
खोट की जरूरत है<br />
उसे चीज़ें वैसी ही देखनी हैं<br />
जैसा वह देखना चाहता है<br />
देखकर भी वह वही जान पाता है<br />
जो उसने पहले से ही जानना चाहा<br />
<br />
पर एक मज़ेदार तथ्य है हमेशा जीवंत .....<br />
झूठ का यह सारा दारोमदार<br />
सच्चाई की नींव पर ही टिका है<br />
<br />
मस्तिष्क के बोध-समंदर पर तैरती हुई<br />
लहरों के अक्षर बनाकर<br />
आदमी की प्रकृति ने भले ही गढ़ा हो<br />
अपने लिए एक उपयोगी संवाद-तंत्र<br />
परंतु बोध-समंदर की सच्चाई<br />
जस की तस रहे<br />
अभंग-शांत-निर्विवाद<br />
-अरुण<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
विभ्रमित संघर्ष<br />
************<br />
आकृतियाँ अक्षरों की अलग अलग हों.......उच्चार भी हों उनके अलग...<br />
होते तो वे अक्षर ही हैं...<br />
विचार भी विचार ही हैं...भले ही लगते हों अलग अलग<br />
<br />
जब हट जाता है ध्यान इस सच्चाई से कि<br />
विचार ही विचार करता है..विचार ही विचारों को सुनता है<br />
विचार ही विचारों में विचारों को देता है प्रतिउत्तर ..मन-मस्तिष्क में<br />
चेती हुई पूरी मनसीय प्रक्रिया......दो खेमों में बँट जाती है...<br />
विचार और विचारक..<br />
अनुभव और अनुभवक..<br />
निरीक्षण और निरीक्षक<br />
और फिर उभरता है संघर्ष इन दो भ्रममयी खेमों के बीच<br />
<br />
यह विभ्रमित संघर्ष ही जीवन बनकर जी रहा है<br />
हमसब के भीतर... और परिणामत: हमारे बाहर हर तरफ<br />
-अरुण<br />
<br />
कल देश के भीतर का स्थिति चित्र विचित्र था<br />
***********************************<br />
<br />
एक तरफ बुद्धि की देवता गणपति का आगमन<br />
और दूसरी तरफ निर्बुद्ध भक्तों का विनाशकारी तांडव<br />
इसको लेकर कुछ पंक्तियाँ पेश हैं........<br />
-----------<br />
<br />
गणपति देना शुद्ध मति<br />
अज्ञान हटाना<br />
मूढ़ हुई जनता के सिर<br />
प्रज्ञान जगाना<br />
<br />
‘बाबाओं’ का दोष नही<br />
ना ‘भक्तजनों’ का<br />
दोष यही कि कौतुक होवे<br />
अंधमति का<br />
अंधकार में खोया जनमन<br />
दीप दिखाना<br />
<br />
पढ़ेलिखे ओ अनपढ़ में<br />
कुछ भेद नही है<br />
‘भक्तों’ में दोनों की संख्या<br />
भरी पड़ी है<br />
अलग अलगसी निद्रा द्वय<br />
जन मनस चिताना<br />
<br />
गणपति देना शुद्ध मति<br />
अज्ञान हटाना<br />
मूढ़ हुई जनता के सिर<br />
प्रज्ञान जगाना<br />
-अरुण<br />
२६ अगस्त २०१७<br />
<br />
ज़िंदगी है अभी और यहींपर<br />
**********************<br />
क़दम अपनी ही जगह पर<br />
उठते गिरते हों<br />
और जगह अपना रंग रूप बदलती रहे<br />
तो चलने वाले को लगेगा कि<br />
वह बढ़े जा रहा है आगे आगे <br />
और..रास्ता और वक़्त<br />
दोनों ही सरक रहे हैं पीछे पीछे<br />
<br />
ठीक इसीतरह<br />
अभी और यहीं पर साँस लेता आदमी<br />
असावधानीवश सोचने लगता है कि<br />
उसकी ज़िंदगी बीत रही है वक़्त के साथ साथ<br />
और उसका भविष्य अभी आने को है कुछ समय बाद<br />
-अरुण<br />
<br />
<br />
हमसब अधजीते<br />
***************<br />
अधजीतों को सताती है चिंता मौतकी<br />
जीनेवाले जिये जाते निश्चिंत हुए<br />
जिनका मरना निश्चित है उन्हीं बातों को<br />
अपनी समझ लेते हैं.....अधजीते हुए<br />
- अरुण<br />
मानवीय समुदाय में अक्सर लोग मौत को लेकर सहमें, डरे और मौत के बारे में गूढगुंजन करते देखे जाते हैं। सब के सामने, परिपूर्णता के साथ कैसे जीआ जाए?.. यह सवाल नही है। केवल यही प्रश्न है कि मौत के बाद क्या? दरअसल, मौत होती है तो केवल उसकी होती है जो मर्त्य है। स्मृति, कल्पना, भावना, मान्यता, मन, अहंकार .... ये सब मर्त्य हैं। शरीर तो अस्तित्व का अभिन्न हिस्सा है। अस्तित्व कभी भी मरता नही। अपने स्वरूप में बना रहता है पल पल की परिवर्तनशीलता के साथ। इसीलिए मौत से अहंकार डरता है, देह नही क्योंकि इस व्यापक अर्थ में मरना तो अहंकार को है, देह को नही।<br />
-अरुण<br />
<br />
सदियाँ गुज़ार रहे हैं<br />
**************************<br />
सवालों की गहराई में ....<br />
ध्यान के उतरते ही...<br />
सवाल... <br />
सवाल नही रह जाते<br />
परछाईयों के बंधन से बँधा चित्त...<br />
प्रकाशमान होते ही<br />
बंधन..<br />
बंधन नही रह जाते<br />
<br />
ध्यान या....प्रकाश<br />
या ध्यानप्रकाश को<br />
सवालों से कभी जूझना नही पडता<br />
बंधनों से झगड़ना नही पड़ता<br />
क्योंकि<br />
अंधकार कभीभी...प्रकाश के संमुख<br />
खड़ा ही नही हो पाता<br />
<br />
हम तो ... अपने मर्यादित-संग्रहित ज्ञान की<br />
छोटी छोटी बातियों के सहारे ही<br />
सच्चाई बूझने के प्रयासों में रत होकर<br />
सदियाँ गुज़ार रहे है<br />
-अरुण<br />
बुद्धि बनाम बुद्धत्व<br />
*****************<br />
इस ओर से...<br />
स्वयं असत्य<br />
सारी प्रकृति एवं सारे जीवन को<br />
समझना चाहता है...<br />
मनुष्य की बुद्धि बनकर<br />
<br />
उस ओर से.....<br />
स्वयं सत्य<br />
मनुष्य की बुद्धि को उघाड़ना<br />
चाहता है...<br />
प्रकृति एवं जीवन का स्वभाव<br />
यानि बुधत्व जगाकर<br />
<br />
बुद्धि में निहित<br />
असत्य के उघड़ते ही<br />
बुद्धत्व जागता है<br />
<br />
परंतु बुद्धत्व जब निद्रस्थ हो<br />
प्रतिमा या प्रतीकरूपी असत्य के आधार से<br />
बुद्धि सत्य को उघाड़ने का<br />
असफल प्रयास<br />
करती रहती है<br />
-अरुण<br />
<br />
<br />
<br />
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<br /></div>
मन की लहरेंhttp://www.blogger.com/profile/15167461728431243414noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8534420496180705347.post-42663290802462697072017-07-31T18:54:00.003+05:302017-07-31T18:54:54.903+05:30जुलाई २०१७ की रचनाएँ<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
मुक्तक<br />
*******<br />
कहीं कोई मूल भूल हो गई है शायद<br />
अबतो जो भी हो रहा..गलत ही गलत<br />
अबतो ग़लतियाँ ही सही लगने लगी हैं<br />
ग़लतफ़हमी ही हमारी जिंदगी है शायद<br />
-अरुण<br />
मुक्तक<br />
******<br />
सारा आकाश सारी धरा ही सामने धरी है<br />
अपने आँगन के परे जा न सकी आँखें मेरी<br />
इशारे सृष्टि के हर आदमी की ओर करते ‘वे’<br />
मगर अपने ही मतलबमें अटकती सोचें मेरी<br />
-अरुण<br />
मुक्तक<br />
******<br />
न साकार न निराकार से परिचय है अस्तित्व का<br />
अस्मिता को तो साकार ही साकार नज़र आता है<br />
अस्मिता ने जो पहन रखा है अहं का ठोस आकार<br />
अब दो शब्दों का अंतराल भी शब्द बन जाता है<br />
-अरुण<br />
मुक्तक<br />
*******<br />
छत और चार दिवारी को<br />
भले ही कोई एक पकड लेवे <br />
बीच की जगह ख़ाली..........<br />
किसी एक की नही.. सबकी होवे <br />
<br />
चेतना-आकाश में<br />
उड़ते पंछियों को पकड़नेवाले<br />
कभी भी<br />
आकाश को नही पकड पाते<br />
क्योंकि वह सबका होवे<br />
-अरुण<br />
यादों का इकट्ठापन<br />
*****************<br />
अपनी यादों का इकट्ठापन ही तो है....<br />
हर एक का अपना मन<br />
इन्ही इकट्ठा यादों से खेलता रहता है..<br />
हर एक का अपना मन<br />
<br />
इसतरह हर कोई अपने बीते का ही रूप है<br />
जिसपर<br />
वर्तमान की धूप होते हुए भी वह<br />
विगत के तमस विचरकर<br />
किसी अनजाने प्रकाश की तलाश में<br />
अपनी पूरी जिंदगी बिता देता है<br />
-अरुण<br />
<br />
मुक्तक<br />
******<br />
बेहद को जानने का ख़्याल-ओ-कोशिश<br />
है बेहद से भाग जाना<br />
ख़ुद की हदों का समझ में उतरना फिर से<br />
है बेहद हो जाना<br />
-अरुण<br />
<br />
<br />
हर पल नया<br />
**********<br />
वैसे तो हर पल नया है<br />
और<br />
हर इस पल की<br />
ख़ुशबू भी नई<br />
<br />
पर यह नया पल<br />
गुज़रे हुए..बीते हुए पलों को<br />
परिचितसा लगता है...<br />
और यही है वह वजह कि<br />
पलों का नयापन दिखता ही नही<br />
किसीको भी... कहींपर भी<br />
-अरुण<br />
प्रतिबिंबन<br />
*********<br />
बीती हुई जिंदगी के सारे<br />
छोटे बड़े अनुभव और उन<br />
अनुभवों के अनुभव<br />
मन के दर्पण में,<br />
हर उपस्थित पल प्रतिपल<br />
प्रतिबिंबित होते रहते हैं<br />
<br />
यही प्रतिबिंबन है<br />
हमारा चेतस्वरूप जो एक<br />
जीवंत इकाई के रूप में<br />
जिंदगी जी रहा होता है<br />
<br />
हम कुछ भी नही हैं...<br />
हैं बस यही प्रतिबिंबन <br />
-अरुण<br />
<br />
कल..आज और बीता कल<br />
*********************<br />
स्मृतिमय स्वप्नमय मन की<br />
उपज है समय<br />
जहाँ से<br />
जागृति के अभाव में<br />
आभासित हो रहा है...आदमी को<br />
उसका कल..आज और बीता कल<br />
-अरुण<br />
ध्यान<br />
******<br />
सूरज को घर घर जाने की जरूरत नही<br />
अपनी जगह बैठे ही पहुँच जाता है<br />
ध्यान का नही होता केंन्द्र कोई<br />
ध्यान की पलक खुली ही नही कि<br />
जगत सारा उसमें उतर आता है<br />
<br />
बढ़ते चलतें हैं विचार जिससे आशय बनता है..<br />
जुड़ते चलतें है अनुभव हर पल के और अहंकार ढलता है<br />
<br />
अहंकार ही समय का जनक है<br />
अहंकार ही है<br />
अनुभव-उत्पन्न ज्ञान का<br />
संचयक<br />
माया का संचालक<br />
<br />
ध्यान न बढ़ता है न चलता है<br />
एक ही पल एक ही स्थल<br />
जगत के मूल स्वरूप को<br />
समझ की निराकार काया में धर लेता है<br />
-अरुण<br />
एक का एक<br />
***********<br />
जो जानना है<br />
है उसीका अभिन्न अंश<br />
उसे जाननेवाला<br />
मानो बैठा है बिना तराशे पत्थर में ही<br />
मूरत को देखनेवाला<br />
<br />
दिखा-देखा का काल्पनिक भेद तो<br />
अहं की सहुलियत है<br />
क्योंकि हर काम के पीछे<br />
छुपी-खुली होती<br />
अहं की कोई नीयत है<br />
<br />
जहाँ न मक्सद न नीयत है<br />
वहाँ सब एक का एक<br />
न किसी भेद की जरूरत है<br />
-अरुण<br />
<br />
<br />
मुक्तक<br />
******<br />
फूल पत्थर हवा पानी धरती आकाश<br />
किसी के भी नही होते<br />
फिर... तजुरबों का कोई तजुरबेकार<br />
कैसे हो सकता है?<br />
<br />
जैसे किसी छत से होकर गुज़रती हवा पर<br />
उस छत की कोई मिल्कियत नही होती<br />
वैसे ही किसी तन-मन को छूते एहसास भी<br />
किसी तन-मन विशेष के नही हो सकते<br />
<br />
फिर...आदमी का तजुरबा<br />
उस आदमी को अपना क्यों लगता है?<br />
<br />
यह तो अजूबा ही होगा कि<br />
हर तजुरबा......<br />
सिर्फ तजुरबा ही बनकर रहे..<br />
बिना किसी नाम या<br />
सर्वनाम की तख़्ती पहने<br />
-अरुण<br />
मुक्तक<br />
******<br />
कहते हैं<br />
उपनिषद के सूत्र हैं केवल अंतर-यात्रा के सूत्र<br />
<br />
बाहरी यात्रा यानि<br />
प्रापंचिक...राजनैतिक लडाईंयों के सूत्र<br />
तो हैं बिलकुल भिन्न<br />
<br />
बाहरी यात्रा में जो जीतता है<br />
उसको सिकंदर यानि सत्य<br />
कहते हैं<br />
अंतर यात्रा में तो केवल सिंकदर यानि<br />
सत्य ही जीतता है<br />
-अरुण<br />
मुक्तक<br />
******<br />
आसमां में चमकते हैं तारे जैसे<br />
ज़मीं पर उगी हैं अनगिनत जीव सृष्टियाँ<br />
"अपना होना इन सब से अलग है"<br />
इसी मूलभूत भूल से ही फली हैं<br />
समझ मे आदमी के<br />
सारी ग़लतियाँ<br />
सारी ग़लतफ़हमियाँ<br />
सभी समस्याएँ और संघर्ष<br />
<br />
जीवन का आध्यात्म <br />
आदमी को इसी मूलभूत भूल पर<br />
जगाने के काम में जुटा है<br />
सदियों सदियों से<br />
-अरुण<br />
<br />
अनुभव की परिपक्वता<br />
*******************<br />
पेड पर अच्छी तरह और पूरी तरह से<br />
उगे हुए-पके हुए फल...<br />
पेड को बडी ही सहजता से छोड देते हैं<br />
<br />
सांसारिकता के अनुभव भी अगर परिपक्व हों<br />
तो ऐसे अनुभव<br />
ऊबकर सांसारिकता से सहज ही मुक्त हो जाते हैं<br />
<br />
अधपके... कच्चे अनुभवों वाले ही<br />
संसार-वृक्ष को छोड़ने से<br />
या तो डरते हैं<br />
या वृक्ष के मोह में रहते हुए<br />
उसे त्यजने का ढोंग रचते रहते हैं<br />
-अरुण<br />
क्योंकर ढूंढे तू भगवान?<br />
***************************<br />
क्योंकर ढूंढे तू भगवान?<br />
खुदको ढूंढो कहाँ खो गया<br />
तेरा तन मन प्राण....<br />
<br />
इसमें घाटा वहां कमाई, दौड़ धूप में दिवस गंवाई<br />
हर पल सोचत रहता मन में कहाँ नफा नुकसान<br />
क्योंकर ढूंढे तू भगवान?<br />
<br />
हुई रात तो पलक झुक गई, दिन होते ही आँख खुल गई<br />
बंटा रहा पर स्मृति सपनों में तेरा असली ध्यान....<br />
क्योंकर ढूंढे तू भगवान?<br />
C<br />
यह धरती यह नीला अम्बर, तुझसे अलn<br />
ग नहीं यह क्षणभर<br />
फिर भी तुझको भ्रान्ति हुई है तेरा अलग विधान....<br />
<br />
क्योंकर. ढूंढे तू भगवान?<br />
खुदको ढूंढो कहाँ खो गया<br />
तेरा तन मन प्राण<br />
-अरुण<br />
<br />
आईना<br />
*******<br />
आईने के भीतर<br />
आईने का प्रतिमा-विरहित<br />
शुद्धतमरूप देखने के लिए<br />
जब भी झाँकता हूँ<br />
वहाँ अपनी ही प्रतिमा नज़र आती है<br />
<br />
ये तो आईना है जिसका<br />
सरोकार किसी खास से नही<br />
जो भी सामने आए<br />
प्रतिबिंबित तो हो जाता है<br />
<br />
फिरभी किसी भी प्रतिबिम्बन को<br />
आइना पकड़कर नही रखता<br />
<br />
जीवन का शुद्धतम स्वरूप<br />
ऐसा ही प्रतिमा विरहित<br />
प्रतिबिम्बन मात्र है<br />
-अरुण<br />
<br />
तन मन संयोग<br />
************<br />
बीज में जो सुप्त बैठा वृक्ष<br />
बीज बोते प्रकट हो जाए<br />
वृक्ष-छाया का पड़े जब बीज<br />
मनु मनस मन-वृक्ष बन जाए<br />
<br />
सामाजिक परिवेश में<br />
ढले-पले<br />
इस आदमी का जीवन<br />
तन और मन के वृक्षों का ही<br />
सांयोगिक जीवन है<br />
-अरुण<br />
<br />
मुक्तक<br />
*******<br />
याद ही यादों को याद ‘करती’ है<br />
याद ही यादों को याद ‘आती’ है<br />
करती आती हुई यादें ही हैं विचारों की गति<br />
छोड़ती नही कहींभी अपने क़दमों के निशान<br />
-अरुण<br />
<br />
मस्तिष्क के पास याद जगाने की क्षमता है, परन्तु मस्तिष्क याद नहीं करता, न ही मस्तिष्क के भीतर कोई याद-संचय है। याद तो केवल याद को ही आती है। याद ही याद को बुलाती है, याद ही याद की कल्पना करते हुए स्वप्न, चिंता, सुख, दुःख …ऐसी कई भाव स्थितियों का एहसास उभारती है।<br />
-जिस तरह नर्तक से नृत्य जुदा नहीं है, ठीक वैसे ही, याद से याद-कर्ता अलग नहीं क्योंकि याद ही याद करती है. याद और याद-कर्ता के भिन्न होने का भ्रम ही तो अहंकार का भाव पैदा कर देता है।<br />
-यादचक्र या याद-विश्व में खोया अहंकार (जो स्वयं एक भ्रम ही है) असावधान होने से ही, ‘याद-कर्ता के अस्तित्व’ का गलत एहसास जगाता है।<br />
-मतलब, पूर्ण सावधानता ही इस गुत्थी को तत्क्षण सुलझा सकती है।<br />
<br />
मित्रों ! ये बातें शायद उन्हें ही दिखाई दे सकती है, जो अपने भीतर... बड़े ही त्रयस्थभाव से और बड़ी ही सावधानी से झाँकने के लिए प्रवृत्त हैं, बाकी लोगों के लिए यह एक जटिल information मात्र है। इसीलिए कई लोग इसे महज बकवास भी समझ सकते हैं<br />
-अरुण<br />
<br />
<br />
कल्पना-विश्व<br />
************<br />
कल्पना-विश्व...<br />
अस्तित्व में रहता हुआ लगता है<br />
पर होता नही <br />
<br />
जीवन की सच्चाई को देखने निकले बहुतेरे<br />
इस बात को ही खोजने में रुचि रखते हैं कि<br />
आदमी कैसी कैसी कल्पनाओं में खो जाता है?<br />
<br />
दरअसल, खोज इस बात की हो कि<br />
आदमी के चित्त में पनपती कल्पना...<br />
पनपती है... तो कैसे और क्यों?<br />
<br />
सच तो यह है कि<br />
कल्पना...जो अस्तित्व में होती ही नही..<br />
जन्मती है केवल कल्पनाएँ..<br />
जो जी लेती हैं<br />
केवल अपने ही रचे<br />
कल्पना-विश्व में<br />
-अरुण<br />
मुक्तक<br />
*******<br />
बुद्धों का सार आशय हर शख़्स में बसा है<br />
फिर भी हैं रट रहे सब बुद्धोंके सत वचन<br />
सागर की हर लहर में कुतुहल ये जाग उट्ठा <br />
सागर का दिल कहाँ है?.. कैसा है मन बदन?<br />
-अरुण<br />
<br />
फ़ैसला कर लो<br />
************<br />
बुद्धि की तो सीढ़ियाँ<br />
सब को मिली हैं<br />
फ़ैसला कर लो कि<br />
रुक जाना किसी पादान पर<br />
और मान लेना चढ़ चुके हम<br />
या के चढ़ते जाना....<br />
चढ़ते जाना<br />
चढते जाना तबतलक...जबतलक<br />
यह बात पक्की हो न जाए कि...<br />
बुद्धि की भी हुआ करती<br />
कोई सीमा<br />
और कोई हुआ करता<br />
बुद्धि के भी पार<br />
-अरुण<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
आदमी में जागरण होता कहाँ?<br />
**************************<br />
कभी कभी गहरी नींद<br />
कभीकदा बेहोशी<br />
वैसे तो हरदम आदमी है<br />
अधजगा या अधसोया ही....<br />
<br />
उसकी सोच होती ख़याली सपने<br />
और सपने होते निद्रस्थ विचार <br />
<br />
सोच हो के सपना<br />
एहसास तो जीवित है उसमें<br />
अपना ही अपना<br />
अपने हर तजुरबे का वह है<br />
तजुरबेकार<br />
अपने हर कृत्य का वह है<br />
कर्ता<br />
<br />
कहने का मतलब इतना ही....<br />
आदमी कभी जागा होता ही नही<br />
मोटे और आम तौर पर,<br />
दिन में विचारों में सोया होता है<br />
तो रात मे सपनों में खोया होता हैं<br />
-अरुण<br />
अस्तित्व –खयाल-ए-इन्सा की अमानत नहीं<br />
***********************************<br />
जगत या अस्तित्व मनुष्य की व्याख्याओं,<br />
उसकी गढ़ी परिभाषाओं से नहीं चलता<br />
और न ही (जैसा की आदमी सोचता है)<br />
अस्तित्व कहीं से आता है और<br />
न ही कहीं जाता है, वह न बढ़ता है और<br />
न घटता है।<br />
मनुष्य की अपनी समझ ने<br />
अस्तित्व को बढ़ते –घटते, आते जाते,<br />
बदलते हुए देखा है<br />
पर अस्तित्व हमेशा ही इन सब बातों से परे<br />
अपने में ही स्थित है, अपने में है चालित है,<br />
अपने में ही बढ़घट या बदल रहा है<br />
न उसे किसी अवकाश का पता है<br />
और किसी काल का<br />
-अरुण<br />
शेर<br />
******<br />
सामने रखी तस्वीर की....सभी किया करते बातें<br />
देखनेवाले के बदलते रुख़पे है.......अपनी नज़र<br />
-अरुण<br />
<br />
<br />
मुक्तक<br />
******<br />
जिंदगी सीखकर.......... जीयी नही जाती<br />
जिंदगी जीकर....... ........सीखी जाती है<br />
जिंदगी किताब नही के पढ़ी और जान ली<br />
जबतक हो जान.....तबतक पढ़ी जाती है<br />
<br />
सो जिंदगी पे लिखनेवाले रोज लिखा करते हैं<br />
हर रोज़ जो पढ़ा हो उसे रोज लिखा करते हैं<br />
अपनी ही जिंदगी है..उसे ख़ुदही पढ़ें, ख़ुद सीखें<br />
लोग ऐसे हैं के............ दूजों की पढ़ा करते हैं<br />
-अरुण<br />
<br />
असली चेहरा<br />
************<br />
दोस्त से बर्ताव अलग<br />
बैरी से अलग<br />
जब्बर से अलग<br />
तो अब्बर से अलग.....<br />
एक ही आदमी में छुपे हैं कई चेहरे<br />
<br />
ये तो रिश्तों के दर्पण हैं<br />
जो दिखा देते हैं असली चेहरा<br />
-अरुण<br />
बुनियादी विडम्बना<br />
****************<br />
मानव में छुपी रहे... अंतर की शुद्ध लय<br />
मानव खुद तड़प रहा सुनने को शुद्ध लय<br />
नही कोई इस्से बडी.... जगत में विडम्बना<br />
खोजे कोलाहल ही.....भीतर की शुद्ध लय<br />
-अरुण<br />
प्रेममय सद्भाव<br />
**************<br />
दिल दुखी पर दु:ख की कोई नही वजह<br />
बस यही के ह्रदय रहता, प्रेम का अभाव<br />
जब दिवारें स्वार्थ की हों....दिल दिलों के बीच<br />
फिर कहाँ से ह्रदय उतरे......प्रेममय सद्भाव ?<br />
-अरुण <br />
<br />
अनजान बने रहना...<br />
******************<br />
रोज ही सूर्य अपने अंत:स्फुरणसे अंत:गतिसे....<br />
उगता है चमकता है और धूप देते<br />
निकल जाता है.....बिना किसी प्रेरणा...<br />
बिना किसी मजबूरी<br />
बिना पूछे या जाने....किसी की भी प्रतिक्रिया.. <br />
अपने इस कृत्य या कृति के बारे में<br />
<br />
मै भी लगभग रोज लिखता हूँ<br />
अपनी अंत:दृष्टि-गति से ही लिखता हूँ<br />
फिर भी एक मूलभूत फ़र्क़ है...वह यह कि<br />
अपने लिखे पर मिली<br />
लाइक्स और कमेंट्स को देखने-पढ़ने से<br />
मै अपने को रोक नही पाता<br />
<br />
सूर्य को तो हमसब जानते हैं<br />
पर सूर्य हम में से किसी को भी नही जानता...<br />
मै तो लिप्त हूँ जानने और जनाने के<br />
हर खेल में..<br />
अनजान बने रहना क्या होता है?..<br />
नही जानता और शायद जानना भी नहीं चाहता<br />
इसीलिए अपनी रचनाओंपर<br />
अनायास ही अपना नाम दर्ज कर देता हूँ<br />
-अरुण<br />
<br />
मुक्त प्रवाह में बहते रहना<br />
*************************<br />
जिंदगी के मुक्त प्रवाह में <br />
अपने को तनमन से झोंककर<br />
उसमें बहते रहना<br />
या यूँ कहें कि<br />
आत्मभाव के प्रभाव से<br />
पूरीतरह से मुक्त होकर<br />
बडी ही ह्रदयमग्नतासे<br />
जीते रहना.....संभव नही हो पाता<br />
क्योंकि<br />
मतलबों को साध्य करती अपनी मनधार के<br />
आधीन हो जाना ही<br />
आदमी को सुखकर लगता है<br />
-अरुण<br />
<br />
जीवन बन जाना<br />
****************<br />
जिसजगह सफलताएँ पूजी जाती हैं<br />
उपलब्धियों का गुणगान होता है<br />
उसजगह शांति समाधान की बातें करना<br />
बेईमानी है<br />
ऐसा करना....नदी के किनारे बैठे बैठे <br />
तैरने की अनुभूति की कल्पना करने जैसा है<br />
<br />
कुछ भी बात, फिर वह सन्यास ही क्यों न हो,<br />
पाने पकड़ने हासिल करने की ललक का मतलब है<br />
किनारे ही खोजते रहना जीवनभर <br />
<br />
<br />
किनारे छोड़कर जीवनप्रवाह में उतरने के लिए<br />
वही प्रवृत्त हुए होंगे.... शायद<br />
जिन्होंने सुरक्षा-असुरक्षा की चिंता से परे,<br />
जीवन में डूबकर जीवन बन जाना चाहा....<br />
जिन्होंने शांति समाधान की खोज न की,<br />
बल्कि स्वयं समाधान ने ही<br />
उन्हे अपना बना लिया और<br />
वे जीवन बन गए<br />
-अरुण<br />
<br />
<br />
गाँठें<br />
*****<br />
अस्तित्व<br />
न तो कोई संगठन है<br />
और न ही बिखराव<br />
न यहाँ कोई किसी से जुड़ा है<br />
न ही है कोई अलगाव<br />
न है ख़ालीपन कहीं<br />
न है कहीं कोई भराव<br />
<br />
फिर भी लोग यहाँ एकजुट होना चाहते हैं<br />
किसके भय से?<br />
लोग अकेलापन महसूस करते हैं?<br />
किसकी संगत खोने के बाद?<br />
किससे अलग हो जाना उन्हें चुबता है<br />
के चाह जागती है उनमें फिरसे<br />
किसी से जुड़ने या अटैच हो जाने की?<br />
कैसा ख़ालीपन है उनमें<br />
जो उन्हें चीजों, विचारों, संस्कारों और<br />
संबंधों को अपने भीतर भर लेने के लिए<br />
मजबूर करता है?<br />
<br />
चित्त की जागृत अस्तित्वमयता ही<br />
खोल सकती है<br />
चित्त में पडी इन मूलभूत<br />
कल्पनाओं संकल्पनाओं<br />
विचारों और भावनाओं की<br />
अदृश्य गाँठें<br />
-अरुण<br />
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मन की लहरेंhttp://www.blogger.com/profile/15167461728431243414noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8534420496180705347.post-4088045403140045242017-06-30T07:09:00.002+05:302017-06-30T07:09:58.384+05:30जून २०१७ की रचनाएँ<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
मुक्तक<br />
********<br />
मँझधार में बहता जो... जीता है वही<br />
जो किनारे ढूँढता .. भयभीत है<br />
तृप्ति पाकर ठहर जाने की ललक<br />
कायरी मुर्दादिली की... रीत है<br />
-अरुण<br />
<br />
मुक्तक<br />
******<br />
जबतक उबाल न आया...पानी भाप न बन पाया<br />
बर्फ़ीला, शीतलतम कुनकुनापन..........सब बेकार<br />
आदमी कितना भी झुके या..........उठ जाए ऊपर<br />
भगवत्ता न जाग पाए अगर... उसका होना बेकार<br />
-अरुण<br />
न भला न बुरा<br />
************<br />
न कुछ बुरा है और<br />
न ही है कुछ भला<br />
क्योंकि एक ही वक्त एक ही साँस<br />
एक ही सर में<br />
एक ही रूपरंग लिए<br />
सबकुछ ढला.... साथ साथ<br />
परंतु बाहर...<br />
सामाजिकता की चौखटपर खडे पहरेदारों ने<br />
उसे अपने मापदंडों से बाँट दिया<br />
<br />
कुछ को ‘भला’ कहकर पुकारा<br />
तो कुछ पर ‘बुरे’ का लेबल चिपका दिया<br />
-अरुण<br />
कर्ता-धर्ता<br />
********<br />
घर की छत से होकर बह रही तेज हवा...<br />
सामने मैदान में खड़े पेड़ों को हिलाडुला रही है<br />
घर को लगे कि पेडों का हिलनाडुलना<br />
है उसीका कर्तब<br />
<br />
देह की छत... यानि सर..<br />
जहाँसे होकर गुज़र रहा है विचारों का तूफ़ान<br />
और जिसके बलपर हो रहे सारे काम....<br />
देह को लगे कि वही है इन कामों का<br />
कर्ता-धर्ता<br />
-अरुण<br />
तीनों अलग अलग<br />
*****************<br />
<br />
तमन्ना.....बेइख्तियार हुई जाती है<br />
मगर बदनाम हुआ जाता है दिल..बेजा<br />
<br />
जबभी की....कौम की तारीफ तो बढ़ी इस्मत<br />
ख़ुद की जरासी क्या कर दी....मिली रुसवाई<br />
<br />
है यह इल्म कि नापाक इरादे हैं....फिरभी<br />
जी लेता हूँ मै यहाँ.......दुनिया के बदस्तूर<br />
<br />
-अरुण<br />
<br />
निर्भय छलाँग<br />
***********<br />
भीतर गये बग़ैर......... नही जो दिखता<br />
बाहर की चौकसी न........ काम आती है<br />
डरे डरे का तैरना भी... तो ऊपर ऊपर<br />
सिर्फ निर्भय छलाँग सच को जान पाती है<br />
-अरुण<br />
मनु का भ्रमजाला<br />
**************<br />
भरम के हांथों ने...... है भरम जो फैलाया<br />
भरम की आँखों को वो असल नजर आया<br />
इसीतरह से बनी है..... मनु की दुनिया यह<br />
खुदा की नगरी है और मनु का भ्रमजाला<br />
-अरुण <br />
<br />
मुक्तक<br />
*******<br />
पल पल जानते रहना....<br />
यानि आँख-कान-गंध-स्वाद और स्पर्श की<br />
संवेदनापर बहते रहना ही<br />
जीवन के मुख्यप्रवाह को जानते रहना है<br />
<br />
किसी निष्कर्ष, सिद्धांत या<br />
संकल्पना की गाँठ से<br />
संवेदनाओं को कसकर उन्हें समझना....<br />
घाट पर बैठे बैठे नदी के प्रवाह में<br />
तैरने की कोशिश करने जैसा है<br />
-अरुण<br />
<br />
मुक्तक<br />
******<br />
एक पकड़ो तो........ दूसरा छूट जाता है<br />
छूटा वही बेहतर था....... ख़्याल आता है<br />
खुलते तो खुलते हज़ारों रास्ते साथ साथ<br />
चुनने की परेशानी में ही चलना रुक जाता है<br />
-अरुण<br />
<br />
मुक्तक<br />
*******<br />
प्रभु है और वहींपर है............. प्रभु का प्यारा भी<br />
सिर्फ आसमां खड़ा है बीच......काले घने बादल हैं<br />
ह्रदय की आँखों को बादलों की अड़चन कहाँ ?<br />
तर्कवाले ही खोजते रहें क्योंकि... आँखों से घायल हैं<br />
-अरुण<br />
मुक्तक<br />
*******<br />
ह्रदय-तल से हार जिसने मान ली<br />
उसमें ‘उसको’ जीत सकने की वजह<br />
अपनी ताक़त का जरासा भी भरोसा<br />
'उससे’ कोसो दूर रहने की वजह<br />
-अरुण<br />
<br />
बिगड़ी हुई दृष्टि<br />
***************<br />
देखने का यंत्र यदि<br />
गलत ढंग से पकडा जाए<br />
सही आँखों को भी जो दिखेगा<br />
गलत दिखेगा<br />
<br />
समाज के लिए जो तरीक़ा ठीक हो<br />
समाज उसी तरीके से बालक के मस्तिष्क में<br />
देखने की आदत बो देता है<br />
और तब से ही आदमी की<br />
आँखों को जो भी दिख रहा है<br />
गलत ही दिखता रहा है<br />
<br />
जीवनपर मुक्त एवं स्पष्ट चिंतन ही<br />
इस बिगड़ी हुई दृष्टि को पुन: ठीक करने की<br />
संभावना रखता है<br />
ऐसा चिंतन अनायास ही फलता है<br />
किसी अभ्यास या प्रयास से नही<br />
-अरुण<br />
मूलभाव<br />
**********<br />
“तुम उस कुम्हार के बर्तन हो<br />
मै इस कुम्हार की रचना<br />
तुम उसके चाक पे ढल आये<br />
मै इसके चाक की घटना<br />
तुम भी मिट्टी मै भी मिट्टी<br />
एकही भूमि अपनी”<br />
<br />
ऐसे मूलभाववाले बर्तन<br />
पता नही कैसे?.. बादमें<br />
अपना पात्रता-धर्म छोड़कर<br />
शत्रुता-धर्म अपनाते हैं और<br />
आपस में टकराकर टूट जाते हैं<br />
-अरुण<br />
<br />
मुक्तक<br />
******<br />
परम से टूटना ही असल में........ रोग है<br />
उससे छूटने का दु:ख ही तो.......वियोग है<br />
इसी रोग ओ दु:ख को धूमिल करता विषयानंद<br />
परमानंद तो तभी जब...... परम से योग है<br />
-अरुण<br />
<br />
मुक्तक<br />
*******<br />
जगत के अस्तित्व में<br />
अपने भिन्नत्व का<br />
हो जिसे आभास<br />
उसे न होता क्षण को भी<br />
सकल जगत एहसास<br />
<br />
सकल जगत एहसास ही<br />
साँस सबन की होवे<br />
उसी साँस की धरतीपर<br />
हरकुई निज-स्वर बोवे<br />
<br />
जिसके उतरा ध्यान में<br />
यह सत उसका का सार<br />
दुनिया के जंजाल में <br />
वह भव-सागर पार<br />
-अरुण<br />
<br />
शायद किसी ने कहा है<br />
*******************<br />
जिधर हो बहाव तेरा<br />
वहीं से बहना<br />
जीवन को अपने स्वभाव से<br />
बहने देना<br />
परम-समाधान के सागर में<br />
पहुँचना है तो<br />
पूरब को चलूँ या पश्चिम को<br />
इस सवाल में मत पड़ना<br />
- अरुण<br />
<br />
पाप-निष्पाप <br />
*************<br />
जिसके हाँथों पाप घटना संभव नही<br />
वह साधु है<br />
जिसकी समझ और होश उसे पाप करने नही देती<br />
वह सत्चरित्र है<br />
जो पाप करने से डरे<br />
वह पापभीरु क़िस्म का पापी है<br />
जिसके हाँथों अनजाने में पाप घटता हो <br />
वह निष्पाप है <br />
अपने को सत्चरित्र कहलाने के लिए जो चुनिंदा आचरण करे <br />
वह ढोंगी है<br />
और जो जानबूझकर पाप कर रहा हो<br />
वह है पाप का सौदागर <br />
-अरुण<br />
कल किसी को कहते सुना कि<br />
*********************<br />
हवा का गुबारा है<br />
हममें से हर कोई<br />
<br />
गुबारे की ऊपरी परत को <br />
समझ लेते<br />
हम अपनी अलग पहचान<br />
<br />
परत को तोडे बिना ही<br />
जागकर...जान सकता है<br />
हम में से हर कोई कि<br />
यह सब खेल है हवा का<br />
<br />
हवा जो केवल हवा है<br />
न तेरी है न मेरी और न ही सबकी<br />
-अरुण<br />
<br />
योगिता Vs उपयोगिता<br />
*********************<br />
खोजते ही रहना और<br />
हर वक्त<br />
नये नये सवालों के हाँथ पकड<br />
उनकी गहराई में<br />
खोज को उतारते रहना ही<br />
फ़ितरत है आदमी के<br />
सहज स्वाभाविक प्रज्ञा की<br />
<br />
छोटे बालकों द्वारा पूछेजानेवाले<br />
प्रश्नों के माध्यम से<br />
ऐसी जीवंत प्रज्ञा प्रगट होती रहती है<br />
<br />
जैसे ही ‘उपयोगिता’ का पहलू<br />
जीवंत प्रज्ञा को छू जाता है<br />
प्रज्ञा गूढ प्रश्नों का सामना करना छोड<br />
मूढ़ सवालों में ही उलझ जाती है<br />
<br />
इन मूढ सवालों के हल भले ही<br />
आदमी के जीवन में उपयोगी रहे हों<br />
आदमी अपनी ‘योगिता’ को<br />
(सृष्टि से जुड़ाव)<br />
भूलकर ‘उपयोगिता’ के ही रास्तेपर चल पड़ा है<br />
अब आदमी खुश तो हो जाता है<br />
परंतु समाधानी नही<br />
-अरुण<br />
सूर्यवत प्रकाश ही प्रकाश<br />
******************<br />
आनंद ही आनंद है सिर्फ<br />
कौन है आनंदित यह पूछना सही नही<br />
क्योंकि आनंद का कोई उपभोक्ता नही<br />
<br />
आनंद केवल अवतरण है<br />
उस सत स्थिती का<br />
जहाँ कोई भी किसी को देखता नही<br />
और न ही कुछभी किसीके द्वारा<br />
देखा या किया जा रहा हो.....<br />
<br />
जो भी है बस होता हुआ है<br />
आनंद वहाँ नही जहाँ कुछ हो गया<br />
बन गया.. दिख गया हो<br />
जीवंत वर्तमान ही है आनंद<br />
सत-चित-आनंद<br />
जहाँ न कोई काया है न माया<br />
न धूप है न छाया<br />
है केवल सूर्यवत प्रकाश ही प्रकाश<br />
-अरुण<br />
चित्तावस्थाएँ<br />
***********<br />
गहरी नींद होती..<br />
होता तभी विशुद्ध मस्तिष्क<br />
न चलता स्व का खेल.. न होता चित्त अस्वस्थ<br />
न सपने बोलते हैं और न ही उभरते हैं विचार<br />
शरीर विश्रांत होनेसे... हो न पाए मन-संचार<br />
<br />
गहरी नींद टूटे.......<br />
चित्त चलता जागरण की ओर<br />
स्व फिर जागता है स्वप्न, चिंतन का मचे है शोर<br />
तन तो जागता पर ... <br />
मनस्वरूपी नींद घुस आती<br />
तन में जागृति निखरे.. जो मन में है धुमिल होती<br />
<br />
धुमिलता चित्त की ही आदमी को अधजगा रखे<br />
हमेशा........जागरण की पूर्णता को अधसधा रखे<br />
समाधी की अवस्था... जागरण की पूर्णता का रूप<br />
जहाँपर नींद भी गहरी.. घनी हो जागरण की धूप<br />
-अरुण<br />
ईश्वर क्यों चाहिए ?<br />
***************<br />
बिना साफ साफ देखेसमझे<br />
सच को सच कहना... गलत होगा<br />
झूठ को झूठ मान लेना भी गलत होगा<br />
<br />
कहने के लिए तो आदमी हमेशा<br />
अच्छी बातें ही कहता रहता है....<br />
क्योंकि यही सिखाया जाता है<br />
<br />
ईश्वर या सत्य के बाबत<br />
वह कहता है....<br />
ईश्वर सर्वत्र है... क्षण क्षण में है, कण कण में है<br />
फिर, उसे वह अपने दुश्मनों में क्यों नही देखता?<br />
परधर्म को माननेवालों में क्यों नही देखता?<br />
क्यों नही परदेसीयों में उसे वह दिखाई देता?<br />
<br />
जहाँपर उसे.. ईश्वर है ऐसा लगे..<br />
उसी के सामने वह हाँथ जोड़ता है<br />
क्योंकि<br />
उसे तो ईश्वर चाहिए सिर्फ हाँथ जोड़ने के लिए<br />
जरूरत पड़े तो अपने माने हुए ईश्वर के नाम पर<br />
बखेड़ा खड़ा करने के लिए<br />
संकट के समय<br />
पुकारने के लिए.. बस<br />
-अरुण<br />
मन<br />
*****<br />
मानना....<br />
कुछ भी मानना<br />
या मान लेने की क्रिया..जहाँ से होती है...<br />
मन... उसी को कहते होंगे शायद<br />
<br />
मानी हुई बातों का<br />
जोड-घट, उनकी उथल-पुथल, उनमें वाद-संवाद<br />
उनका काल्पनीकरण.. निष्कर्षन जो करता है..<br />
उसीको मन कहा जाता होगा शायद<br />
<br />
इस मन से जो भी बातें <br />
वास्तव बनकर हमारे बीच आकर बसती हैं<br />
और हमारे जीवन कलापों का आधार बनती हैं<br />
उन्हे ही ‘मानसिक’ कहा जाता होगा शायद<br />
-अरुण<br />
<br />
मौत किसी को नहीं जानना चाहती है<br />
******************************<br />
ये तो याद नहीं कि<br />
मेरे जन्म के समय मुझे मिलनेवाली जिंदगी ने<br />
मेरा नाम पता ठिकाना मकसद और मंजिल के बारे में<br />
मुझसे पूछा था या नहीं?<br />
परंतु यह तो मै साफ साफ देख पा रहा हूँ कि<br />
सामने खड़ी मौत को<br />
इस बात में कोई रूचि नहीं है<br />
कि मै कौन हूँ, किस जातपात,<br />
देश सूबा से ताल्लुक रखता हूँ,<br />
जिंदगी में मैंने क्या कमाया या खोया हैं...<br />
उसे तो इस बात से भी कोई सरोकार नहीं कि<br />
मै आदमी हूँ, या कोई और प्राणी या किसी जंगल में पला पेड़ पौधा<br />
-अरुण<br />
<br />
आकार-बोझ से रिक्त.. सदा ही मुक्त<br />
******************************<br />
पिंजड़े में तोता फड़फड़ाता है मुक्ति<br />
के लिए....पिंजड़े को कुछ भी<br />
पता नही होता<br />
<br />
<br />
हाँ, अगर पिंजडे को होश आ जाए और...<br />
वह तोते की बंधन-पीडा देख ले<br />
तो शायद...<br />
कोई सुध ले वह तोते के दर्द की<br />
और यह सोचने के लिए विविश हो जाए कि<br />
<br />
अगर पूरा का पूरा आकाश गुजर जाता है उससे होकर<br />
फिर आकाश में उड़ सकनेवाला यह तोता क्यों नही?<br />
<br />
उसका यह मूलभूत सवाल<br />
सबके लिए ही प्रकाश बन सकता है<br />
इस सबक़ के साथ कि<br />
<br />
बंधन तो आकार को होता है<br />
आकाश को नही<br />
जिनका चित्त किसीभी आकार-बोझ से रिक्त हो<br />
वे सदा ही मुक्त हैं<br />
-अरुण<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
आकार-बोझ से रिक्त.. सदा ही मुक्त<br />
******************************<br />
पिंजड़े में तोता फड़फड़ाता है मुक्ति<br />
के लिए....पिंजड़े को कुछ भी<br />
पता नही होता<br />
<br />
हाँ, अगर पिंजडे को होश आ जाए और...<br />
वह तोते की बंधन-पीडा देख ले<br />
तो शायद...<br />
कोई सुध ले वह तोते के दर्द की<br />
और यह सोचने के लिए विविश हो जाए कि<br />
<br />
अगर पूरा का पूरा आकाश गुजर जाता है उससे होकर<br />
फिर आकाश में उड़ सकनेवाला यह तोता क्यों नही?<br />
<br />
उसका यह मूलभूत सवाल<br />
सबके लिए ही प्रकाश बन सकता है<br />
इस सबक़ के साथ कि<br />
<br />
बंधन तो आकार को होता है<br />
आकाश को नही<br />
जिनका चित्त किसीभी आकार-बोझ से रिक्त हो<br />
वे सदा ही मुक्त हैं<br />
-अरुण<br />
<br />
मुक्तक<br />
*******<br />
सपने ही जिन्हें सच्चे लगते हैं<br />
उनसे कहते रहना कि<br />
“आप सपने देख रहे हो.. सच्चाई नही”<br />
किसी काम का नही<br />
<br />
उनकी हाँ में हाँ मिलाते हुए.. उनके साथ रहते हुए<br />
जो उपाय उन्हे नींद से पूरी तरह जगा देंगे<br />
वही उपाय काम आएँगे<br />
<br />
पूरी तरह जागकर ही कोई जान सकता है कि<br />
वह सपने देख रहा था.... सच्चाई नही<br />
-अरुण<br />
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मन की लहरेंhttp://www.blogger.com/profile/15167461728431243414noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8534420496180705347.post-2652634280232275822017-06-17T09:51:00.000+05:302017-06-17T09:51:23.239+05:30मई २०१७ की रचनाएँ<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
मई २०१७ की रचनाएँ<br />
-----------------------------<br />
रुबाई<br />
*****<br />
यह जीवन सूरज की उर्जा है...गलत नही<br />
यह जीवन धरती का है सार.. गलत नही<br />
चलती<br />
साँस, बहती हवा और सारा आकाश<br />
यही तो है जीवन, यही है संसार….गलत नही<br />
-अरुण<br />
जिंदगी ही जीती है उसमें .....<br />
*************************<br />
बंदा किये जाता है.. अपने को ‘करनेवाला’ समझ<br />
दरअसल खुद ही किया जाता है वह.....न पता उसको<br />
लगे उसे कि वह जीता जिंदगी को अपने ढंग से<br />
दरअसल, जिंदगी ही जीती है उसमें... न पता उसको<br />
-अरुण<br />
सामान ज़रूरी<br />
——————<br />
जीने के लिए होता है............. सामान ज़रूरी<br />
सामान की हिफाजत का......... सामान ज़रूरी<br />
बदले है जरूरत.............यूँ अपना सिलसिला<br />
जीने से अब ज़्यादा............. सामान ज़रूरी<br />
-अरुण<br />
मान्यताएँ<br />
—————<br />
जहाँ से शुरू करो वह शुरुवात नही होती<br />
जहांपर ख़त्म करो वह अंत नही होता<br />
आरंभ और अंत तो केवल हैं मान्यताएँ<br />
जो मान लिया जाए वह सच नही होता<br />
-अरुण<br />
शब्दों में स्थिरा दिया गया<br />
*********************<br />
कालप्रवाह को ‘समय’ नामक खाँचे में जमा दिया गया<br />
बहते जलकणों को... ‘नदी’ नामक वस्तु बना दिया गया<br />
वैसे तो हर पदार्थ, वस्तु, स्थिति गतिमान ही है फिर भी,<br />
शब्दों में उन्हे किसी न किसी........ स्थिरा दिया गया<br />
-अरुण<br />
<br />
रुबाई<br />
*****<br />
रात हि होवे दिन नही.. यह कैसे संभव है?<br />
पश्चिम के बिन पूरब होवे.. कैसे संभव है?<br />
पूरी पूरी सच्चाई ही............सच्चाई होवे<br />
साँस अधुरी लेकर जीना..... कैसे संभव है?<br />
-अरुण<br />
<br />
रुबाई १<br />
*******<br />
हकीकत को नजरअंदाज करना ही नशा है<br />
असल में होश खोता आदमी ही….दुर्दशा है<br />
तरीके मानसिक सब,…होश खोने के यहांपर<br />
कोई साधन मिले.....बेहोश होना ही नशा है<br />
– अरुण<br />
रुबाई २<br />
*******<br />
बैसाखी के बल पर ही लंगडा चलता है<br />
किसीका कंधा पकड अंधा आगे बढ़ता है<br />
होश को तो चलना ही न पड़े, क्योंकि वह<br />
जागी निगाहोंसे ही अंतर तय करता है<br />
– अरुण<br />
रुबाई<br />
*******<br />
ये बस्ती, ये जमघट,..हैं सुनसान मेले<br />
सभी रह रहे साथ.......फिर भी अकेले<br />
जुड़े दिख रहे…..........बाहरी आवरण ही<br />
सभी के......ह्रदय-धाग …. ……टूटे उधेडे<br />
– अरुण<br />
<br />
रुबाई<br />
*******<br />
ज़र्रा ज़र्रा है जुदा ना मलकियत उनकी अलग<br />
फिर करोड़ों में मेरी यह शख़्सियत कैसे अलग?<br />
यह उतारा दिल में जिसने सच्चा बुनियादी सवाल<br />
देखता ख़ुद में खुदाई....... ना खुदा जिससे अलग<br />
– अरुण<br />
रुबाई<br />
*****<br />
पेड पर जड़े हुए फल कभीभी खरे नही होते <br />
जड़ से जुड़े फल कभीभी दिखावे के नही होते<br />
जान से नही.... परंतु मन से केवल जानते जो<br />
होते जानकारी के धनी वे...जीवन-धनी नही होते<br />
-अरुण<br />
<br />
यादें<br />
******<br />
आतीं तो हैं पर ठहरती नही यादें<br />
न जगह बनाती.....<br />
न जगह घेरती हैं यादें<br />
फिर भी लगता है कि<br />
मन में एक बड़ा फैलाव है यादों का<br />
जन्म से अबतक जीवित है<br />
एक पड़ाव है यादों का<br />
<br />
याद से नयी याद झलकते ही<br />
पुरानी खो जाती है ख़ुद में ही.....बिना देखे अपना विसर्जन<br />
और समझती है कि जैसे किसी अखंड प्रवाह का<br />
हो रहा हो सर्जन..... भीतर ही भीतर<br />
<br />
इस प्रवाह भ्रम में ही<br />
प्रतिबिंबित होता है<br />
विचारों और प्रतिमाओं का संचरण उस नदी जैसा<br />
जो अपने से ही निकलती, अपने में ही बहती और<br />
समा जाती अपने में ही...... बिना छोड़े कोई भी सबूत अपना<br />
<br />
यादें.... होते हुए भी नही होतीं<br />
पर भर देती है आदमी में जीव<br />
ख़ुद रहते हुए निर्जीव<br />
-अरुण<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
हो रहा अपने आप से<br />
**********************<br />
अहंकार को कर्म का सुख है<br />
तो प्रारब्ध की चिंता भी<br />
पुराने कृत्यों का<br />
हिसाब चुकाना पड़ेगा <br />
यह भय भी<br />
<br />
जिसमें न रहा अहंकार<br />
न बचा कोई कर्ताभाव...<br />
उसे न रहा कोई लगाव<br />
न ही पुण्य से<br />
और न ही पाप से<br />
<br />
क्योंकि वह सदैव विश्रांत है<br />
इस धुन में<br />
कि जो भी हो रहा यहाँ..<br />
हो रहा अपने आप से<br />
-अरुण<br />
<br />
<br />
नीति बनाम धर्म<br />
**************<br />
कृत्य अच्छा था या बुरा...<br />
नीति का है यह विषय<br />
कृत्य के पीछे छुपा भाव... शुद्ध ही हो... <br />
यही है धर्म का आशय<br />
-अरुण<br />
क्षण की गली<br />
***********<br />
क्षण की गली है बहुत ही संकरी<br />
या तो तुम ठहरो यहाँ<br />
या उसे ही रहने दो<br />
ठहरने दो यहां बोध को<br />
या बुद्धि को ही चलने दो<br />
<br />
दोनों को समां ले ऐसी इसमें जगह नही<br />
वर्तमान ही ठहर पाए यहाँ...है यह उसीका घर<br />
न है यहाँ कोई बीता.. न आता प्रहर<br />
और न ही कोई दोपहर<br />
-अरुण<br />
<br />
सुख में सुमिरन...<br />
**************<br />
दुख में सुमिरन सब करें सुख में करे न कोय- कबीरदासजी<br />
--------------<br />
जो सुख में सुमिरन करे..... वो तो बुधसम होय.....<br />
क्योंकि ऐसे बुद्धसम सत्य-जिज्ञासियों का चित्त तो<br />
सुख और दुख... दोनों के ही परे होता होगा।<br />
-अरुण<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
समझने के दो तरीके<br />
******************<br />
किसी भी बात को समझने के दो तरीके हैं<br />
एक है.. उस बात के बारे में जानना और<br />
दूसरा है... उस बात को जीना<br />
जानना.... काम है मन, बुद्धि और स्मृति का<br />
और जीना..... काम है ह्रदय की अवधानता का<br />
जानना.... जानते हुए भी न जानने के बराबर है<br />
और जीना.... न जानते हुए भी पूरीतरह जान लेने के बराबर<br />
<br />
आध्यात्म .... जानने की वस्तु नही<br />
जीने का वास्तव है<br />
-अरुण <br />
एक शेर<br />
*******<br />
तफ़सील पे तफ़सील की प्यासे को क्या गरज<br />
प्यासे को कत्रा दरिया का.. दरिया सा लग रहा<br />
-अरुण<br />
कहाँ है हमारा आज?<br />
*****************<br />
हमारा बीता कल ही<br />
आज का चेहरा पहनके जीता है<br />
और आनेवाले कल पर<br />
अपनी आँखें टिकाये रहता है<br />
-अरुण<br />
दोनों ही हैं अनजान<br />
******************<br />
बंदा खुद से ही बड़बड़ाता है<br />
अपनी ही कही बात को सुनता है<br />
बाहर से आतेजाते एहसासों से<br />
अपने भीतर<br />
नये नये ख्यालात ओ जज़्बात<br />
बुनता है<br />
<br />
इसतरह बंदा जो भी करे ...<br />
‘वह’ अनजान है<br />
और ‘वह’ जो भी करे उससे<br />
बंदा अनजान है<br />
इस माने में... दोनों ही हैं अनजान<br />
-अरुण<br />
<br />
<br />
<br />
रंगीनीयत और पानीपन<br />
*********************<br />
संस्कारों से नहीं बदलता ख़ून ओ बदन का रंग<br />
हाँ, बदलता है आदमी के जीने का ढंग केवल<br />
******<br />
पानी में जब घुल जाते हैं रंग कई..<br />
रंगीनीयत को पानी नज़र नही आता..<br />
पानीपन मगर बरक़रार रहे जल का..<br />
पानीपन पर कोई भी रंग चढ नही पाता..<br />
-अरुण<br />
<br />
आत्मघात... आत्मसमर्पण<br />
*********************<br />
अतिनिराश हुआ अहंकार प्रवृत्त होता है<br />
आत्मघात के लिए<br />
अपनी उपद्रवक्षमता से जो अहंकार घनापरिचित हो जाए<br />
वही सहज प्रवृत्त होता होगा<br />
आत्मसमर्पण के लिए<br />
-अरुण<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br /></div>
मन की लहरेंhttp://www.blogger.com/profile/15167461728431243414noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8534420496180705347.post-87480179740682119642017-05-01T05:10:00.002+05:302017-05-01T05:10:50.669+05:30अप्रैल २०१७ की रचनाएँ<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div>
<br /></div>
<div>
अप्रैल २०१७ की रचनाएँ</div>
<div>
-----------------------------</div>
<div>
‘पागलपन’ </div>
<div>
*********</div>
<div>
हाँ, यह ऐसा पागलपन है</div>
<div>
जो हमेशा सवार है सरपर,</div>
<div>
पर, इस ‘पागलपन’ को </div>
<div>
उभारती रहती जो बत्तियाँ... </div>
<div>
वो तो जलबुझ रही हैं </div>
<div>
सर के भीतर</div>
<div>
<br /></div>
<div>
उन बत्तियों के जलतेबुझतेपन पर </div>
<div>
ध्यान आ टिके तो ‘पागलपन’ हटे...</div>
<div>
ध्यान के अभाव में ही</div>
<div>
यह पागलपन घटे</div>
<div>
<br /></div>
<div>
ऐसा यह ‘पागलपन’ </div>
<div>
इस दुनिया में </div>
<div>
जीने के लिए ज़रूरी है</div>
<div>
और इस ‘पागलपन’ को ही,</div>
<div>
सयानपन समझ लेना</div>
<div>
आदमी की मजबूरी है</div>
<div>
-अरुण</div>
<div>
मुक्तक</div>
<div>
******</div>
<div>
आँखों में भरी हो पहले से जो सोच</div>
<div>
वह सोचै देख रही दुनिया</div>
<div>
सीधे उतरे जो आँखों में तस्वीर</div>
<div>
वह तस्वीर न देखी जाए है </div>
<div>
-अरुण </div>
<div>
बच निकलने के लिए</div>
<div>
*******************</div>
<div>
आसमां में है चमकता सूरज </div>
<div>
है धूप ही धूप चहुँओर </div>
<div>
<br /></div>
<div>
फिर भी </div>
<div>
आदमी को तो मिल ही जाती हैं परछाईंयां </div>
<div>
बच निकलने के लिए </div>
<div>
<br /></div>
<div>
बोध के सागर में ही डूबी हुई है</div>
<div>
सकल की अंतर-आत्मा </div>
<div>
फिर भी मिल गया है आदमी को</div>
<div>
मनबुद्धि का सहारा.... बोध से </div>
<div>
बच निकलने के लिए</div>
<div>
-अरुण</div>
<div>
कोई नही है देखनेवाला</div>
<div>
********************</div>
<div>
बस, देखना ही देखना तो है यहाँ </div>
<div>
कोई नही है देखनेवाला</div>
<div>
सोचना... मस्तिष्क का व्यापार केवल</div>
<div>
कोई नही है सोचनेवाला</div>
<div>
<br /></div>
<div>
बस, क्रिया या प्रक्रिया ही जिंदगी है</div>
<div>
कर्म कर्ता.. नासमझ की समझदारी</div>
<div>
नासमझ की खोज हैं सारे विशेषण</div>
<div>
नाम और आकार मन की देनदारी</div>
<div>
<br /></div>
<div>
येही दुनिया की हकीकत की हकीकत</div>
<div>
फिर भी दुनिया मान्यता से चल रही है</div>
<div>
फिर भी नासमझी के क़िस्से सबके हिस्से</div>
<div>
मोह मायाही असल.. लगती खरी है</div>
<div>
-अरुण</div>
<div>
चेतना का सागर</div>
<div>
*************</div>
<div>
सागर की हर लहर</div>
<div>
सागर से ही निकलती </div>
<div>
और खो जाती है सागर में ही</div>
<div>
पर सागर में गिर जाने तक</div>
<div>
वह अपने को सागर नही </div>
<div>
एक भिन्न अस्तित्व </div>
<div>
समझती है</div>
<div>
<br /></div>
<div>
बात सागर की नही, मन की हो रही है</div>
<div>
चेतना के सागर में </div>
<div>
मन उठता और खो जाता हो भले ही </div>
<div>
पर जब उठता है</div>
<div>
अपने को ही समझता है</div>
<div>
सबकुछ </div>
<div>
-अरुण</div>
<div>
ज्ञान बनाम अवधान</div>
<div>
*****************</div>
<div>
शब्दकोश में</div>
<div>
शब्दों का अर्थ समझानेवाले शब्द </div>
<div>
उसी शब्दकोश के हिस्से होते हैं</div>
<div>
<br /></div>
<div>
मानव मस्तिष्क भी जो जान लिया गया है</div>
<div>
उसको जोडतोड कर ही </div>
<div>
कुछ नया सोच पाता है</div>
<div>
<br /></div>
<div>
मनुष्य का समग्र अवधान ही </div>
<div>
सकल अस्तित्व को</div>
<div>
अपने बोध से छू सकता है</div>
<div>
<br /></div>
<div>
मनुष्य का ज्ञान तो</div>
<div>
बहुत बहुत बहुत सीमित और कामचलाऊ है</div>
<div>
-अरुण</div>
<div>
जी रहे हम जिंदगी जो</div>
<div>
******************** </div>
<div>
हम वह जिंदगी जी रहे हैं</div>
<div>
जिसमें हैं सवाल ही सवाल </div>
<div>
और जवाब ही जवाब</div>
<div>
<br /></div>
<div>
उस जिंदगी पर तो </div>
<div>
हम अभी जागे ही नही</div>
<div>
जहाँ केवल हैं</div>
<div>
जवाब ही जवाब</div>
<div>
बिना किसी सवाल के</div>
<div>
-अरुण</div>
<div>
<br /></div>
<div>
क्या गिनते और कौन गिनता?</div>
<div>
***********************</div>
<div>
अनुभवों को गिनने बैठ जाओ</div>
<div>
तो समय के टुकड़े हाँथ लगते हैं</div>
<div>
समय की गिनती करो </div>
<div>
तो अनुभव याद आते हैं</div>
<div>
<br /></div>
<div>
अनुभव न होते </div>
<div>
तो समय का क्या होता?</div>
<div>
और अगर इनके टुकडे ही न होते</div>
<div>
तो क्या गिनते और कौन गिनता?</div>
<div>
-अरुण</div>
<div>
<br /></div>
<div>
सोच अजीब तो बोध अजब</div>
<div>
**********************</div>
<div>
राह पर चलना पकडना जो भी चाहा...</div>
<div>
मानो..</div>
<div>
राह भी गर साथ चलती</div>
<div>
उस गति से जिस गति से</div>
<div>
चाहनेवाला चले फिर? </div>
<div>
फिर कुछ न होता..</div>
<div>
न चाहना, न चलना, न पकड़ना...</div>
<div>
न राह और न ही राही कोई</div>
<div>
-अरुण</div>
<div>
अजीबसा एहसास</div>
<div>
**************</div>
<div>
चल के आता हूँ जिस राह से</div>
<div>
उसीको रखकर सामने </div>
<div>
फिर से</div>
<div>
चलता रहता हूँ..</div>
<div>
<br /></div>
<div>
लम्बे समय चलने के बाद ही</div>
<div>
जान पाया कि</div>
<div>
अपने ही रचे रास्तेपर </div>
<div>
ज़िन्दगीभर चलता रहा.....</div>
<div>
नया कुछभी न देख पाया</div>
<div>
-अरुण</div>
<div>
<br /></div>
<div>
आदमी हर पल सरल साधा</div>
<div>
***********************</div>
<div>
सरल और साधा हुआ हर आदमी हर हाल में</div>
<div>
कठिनता ऐसी कि समझे वह स्वयं को कुछ विशेष</div>
<div>
बैठा हुआ है धूप में और निकट हरदम सूर्य है</div>
<div>
पर लगे उसको कि सूरज..... बंद दरवाज़ों में है</div>
<div>
-अरुण</div>
<div>
आग विभक्ति की</div>
<div>
****************</div>
<div>
बुझानी आग हो तो क्यों धुएँ से जाके कहते हो</div>
<div>
कहो पानी से......पानी ही बुझाए आग की लपटें</div>
<div>
उडे है मन धुआँ बन, जब लगे है आग अलगावी</div>
<div>
बुझा सकता है जल भक्तिका ज्वाला-ए-विभक्ती को</div>
<div>
-अरुण</div>
<div>
<br /></div>
<div>
मन से मुक्ति</div>
<div>
*************</div>
<div>
लहरों का शोर तब...</div>
<div>
शोर ना लगे</div>
<div>
कोलाहल ह्रदय को दे रहा</div>
<div>
हल्कासा स्पर्श</div>
<div>
मन का बवंडर पड़ गया हो शिथिल जब</div>
<div>
ना दु:खदायी होवे कछु</div>
<div>
ना देत हर्ष</div>
<div>
-अरुण</div>
<div>
कुछ मुक्तक</div>
<div>
***********</div>
<div>
हटे जब मोह बाहर का, खुले इक द्वार भीतर में </div>
<div>
पुकारे खोज को कहकर- यहाँ से बढ़, यहाँ से बढ़</div>
<div>
<br /></div>
<div>
भरी ज्वानी में जिसको जानना हो मौत का बरहक*</div>
<div>
उसी को सत्य जीवन का समझना हो सके आसाँ </div>
<div>
<br /></div>
<div>
जिसम पूरी तरह से जाननेपर रूह खिलती है</div>
<div>
‘कंवल खिलता है कीचड में’ – कहावत का यही मतलब</div>
<div>
<br /></div>
<div>
ख़यालों भरी आँखों से मै दुनिया देखूं </div>
<div>
दुनिया दिखे ख़यालों जैसी </div>
<div>
<br /></div>
<div>
अँधेरे से नहीं है बैर.......... रौशनी का कुई </div>
<div>
दोनों मिलते हैं तो रौनक सी पसर जाती है</div>
<div>
<br /></div>
<div>
बरहक = सत्य, * सिद्धार्थ (भगवान बुद्ध) के बारे में</div>
<div>
-अरुण</div>
<div>
मुक्तक</div>
<div>
********</div>
<div>
नजर में उतरी दुनिया</div>
<div>
या के मैंने उसे उतारा</div>
<div>
दिखना कहो या देखना</div>
<div>
खेल तो एक ही है सारा</div>
<div>
-अरुण</div>
<div>
<br /></div>
<div>
रोज़ाना की जिंदगी</div>
<div>
***************</div>
<div>
दो सांसो को चलाए रखने....</div>
<div>
देह को पोसना पड़ता है </div>
<div>
अपनी अस्मिता बनाये रखने...</div>
<div>
संबंधो को सँवारना पड़ता है </div>
<div>
देह को पोसना यानी..श्रम करने की जरूरत </div>
<div>
और संबंधो को सवारने के लिए..</div>
<div>
जरूरत है</div>
<div>
किसी न किसी व्यवस्था की </div>
<div>
<br /></div>
<div>
श्रम यानि सारे अर्थ-कलाप </div>
<div>
व्यवस्था यानि सत्ता, संघर्ष, प्रतिरक्षा,</div>
<div>
नीति-नियम, कायदे, रिवाज</div>
<div>
<br /></div>
<div>
आदमी की रोज़ाना जिंदगी</div>
<div>
इन दो सांसो और अस्मिता के </div>
<div>
रखरखाव के सिवा </div>
<div>
और कुछ भी नही</div>
<div>
-अरुण </div>
<div>
<br /></div>
<div>
<br /></div>
<div>
एक झूठ से ही निकले दूसरा झूठ</div>
<div>
**************************</div>
<div>
जगत में पिंजड़ा और पक्षी दोनों हैं </div>
<div>
अलग अलग </div>
<div>
परंतु मन-पटल पर पक्षी अपने चहुंओर </div>
<div>
पिजड़ा लेकर ही अवतरित होता है </div>
<div>
और फिर बाहर निकलने के लिए फडफडाता रहता है </div>
<div>
<br /></div>
<div>
मन में विचार का पक्षी उड़े...बिना किसी आकाश के...</div>
<div>
आदमी ऐसा सोच ही नही पाता</div>
<div>
जहाँ विचार का संचार होगा</div>
<div>
वहाँ आकाश का बंधन तो होगा ही</div>
<div>
विचार होगा तो विचारक भी होगा ही</div>
<div>
एक झूठ के पेट से ही निकलता है</div>
<div>
उससे जुड़ा.... दूसरा झूठ</div>
<div>
-अरुण</div>
<div>
समस्या या उलझन</div>
<div>
****************</div>
<div>
समस्या या उलझन</div>
<div>
जब अपने से सीधे सीधे बोलती है..हम उसे ठीक से देख लेते हैं</div>
<div>
परन्तु जब उसे देखते वक्त हम अपने से ही</div>
<div>
बोलने लगते हैं..... समस्या को पूरी तरह देख नही पाते </div>
<div>
<br /></div>
<div>
समस्या को बिना किसी बडबडाहट या हडबडाहट के </div>
<div>
पूरी तरह देख लेना ही </div>
<div>
समस्या का हल है...</div>
<div>
उसे अधूरे या अस्पष्ट देखना </div>
<div>
उसे न देखने जैसा ही है </div>
<div>
-अरुण </div>
<div>
आध्यात्म बोध है... शब्दों का शोध नही</div>
<div>
**********************************</div>
<div>
एक बाप के दो बेटे थे – </div>
<div>
शब्द्पंडित और बोधस्पर्शी</div>
<div>
<br /></div>
<div>
जिस कमरे में वे तीनों बैठे थे..</div>
<div>
उसका दरवाजा बंद था और भीतर घुटन जैसी हो रही थी</div>
<div>
<br /></div>
<div>
बाप ने कहा – दरवाजा खोलो ! </div>
<div>
<br /></div>
<div>
शब्द्पंडित ने ‘दरवाजा’ खोला..और भीतर ‘द्वार’, ‘पट’, ‘पर्दा’ और ऐसे ही </div>
<div>
कई समानार्थी शब्दों की शृंखला घुस आई पर घुटन तो होती ही रही</div>
<div>
<br /></div>
<div>
परंतु जब बोधस्पर्शी ने दरवाजा खोला तो कमरे में ठन्डी बयार बहने लगी..</div>
<div>
घुटन थम गई </div>
<div>
<br /></div>
<div>
आध्यात्म बोध है... शब्दों का शोध नही</div>
<div>
-अरुण</div>
<div>
बोधिवृक्ष</div>
<div>
*******</div>
<div>
“आँगन में यहाँ जो वृक्ष खड़ा है</div>
<div>
कहना गलत नही कि </div>
<div>
वह इस सूबे.. पृथ्वी..</div>
<div>
सारे ब्रह्म में खडा है”</div>
<div>
<br /></div>
<div>
यह तथ्य </div>
<div>
एक सत्यबोध बनकर</div>
<div>
जिनके ह्रदय में उतरा होगा </div>
<div>
उनके लिए वह वृक्ष... केवल वृक्ष नही</div>
<div>
एक बोधिवृक्ष बन गया होगा</div>
<div>
-अरुण</div>
<div>
मुक्तक</div>
<div>
*******</div>
<div>
डूबजाना समंदर में... है लहर की फ़ितरत </div>
<div>
'आगे क्या?'- यह सवाल भी साथ में डूबे </div>
<div>
<br /></div>
<div>
मोक्ष मुक्ती की करो ना बात अभ्भी</div>
<div>
बंध बंधन का...समझ लो...बस बहोत है</div>
<div>
<br /></div>
<div>
न ही उम्मीद कुई और न ही मै हारा हूँ</div>
<div>
पल पल की जिंदगी ही.. अब जिंदगी है</div>
<div>
-अरुण</div>
<div>
मुक्तक</div>
<div>
********</div>
<div>
इस तट की लम्बाई ......उस तट से दिखती है</div>
<div>
उस तट की.. इस तट से</div>
<div>
<br /></div>
<div>
चाहो गर, जीवन पूर इक पल में देख सको......</div>
<div>
अगर देख सको उसको</div>
<div>
अपने ख़ुद से हट के</div>
<div>
-अरुण</div>
<div>
मुक्तक</div>
<div>
******</div>
<div>
आकार देख पाया नही .........निराकार को</div>
<div>
नाम दे सको न कभी तुम.........अनाम को</div>
<div>
धुरी नही हो ऐसा कोई...... चक्र भी कहाँ </div>
<div>
इच्छा करे ना.. ऐसा कोई मन नही कहीं </div>
<div>
-अरुण</div>
<div>
<br /></div>
<div>
पंछी और पिंजड़ा</div>
<div>
***************</div>
<div>
पंछी चाहे </div>
<div>
पिंजड़े की पकड से छूटना,</div>
<div>
यह बात सही सहज स्वाभाविक है, परंतु</div>
<div>
जिस क्षण पंछी का अपने भीतर फड़फड़ाना</div>
<div>
पिंजड़े के लिए कष्टदायी बने, आदमी </div>
<div>
उसी क्षण की तलाश में बेचैन है </div>
<div>
क्योंकि </div>
<div>
आदमी अपने को </div>
<div>
कभी पंछी समझता है तो </div>
<div>
कभी पिंजड़ा..</div>
<div>
यह देख ही नही पाता कि</div>
<div>
वह स्वयं पंछी भी है</div>
<div>
और पिंजड़ा भी....</div>
<div>
-अरुण</div>
<div>
<br /></div>
<div>
</div>
<div>
<br /></div>
<div>
<br /></div>
<div>
<br /></div>
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<br /></div>
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<br /></div>
<div>
<br /></div>
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<br /></div>
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<br /></div>
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<br /></div>
<div>
<br /></div>
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<br /></div>
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<br /></div>
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<br /></div>
</div>
मन की लहरेंhttp://www.blogger.com/profile/15167461728431243414noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8534420496180705347.post-70321210813820319692017-04-12T06:10:00.002+05:302017-04-12T06:10:19.684+05:30पंछी और पिंजड़ा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
पंछी चाहे<br />
पिंजड़े की पकड से छूटना,<br />
यह बात सही सहज स्वाभाविक है, परंतु<br />
जिस क्षण पंछी का अपने भीतर फड़फड़ाना<br />
पिंजड़े के लिए कष्टदायी बने, आदमी<br />
उसी क्षण की तलाश में बेचैन है<br />
क्योंकि<br />
आदमी अपने को<br />
कभी पंछी समझता है तो<br />
कभी पिंजड़ा..<br />
यह देख ही नही पाता कि<br />
वह स्वयं पंछी भी है<br />
और पिंजड़ा भी....<br />
-अरुण<br />
<br /></div>
मन की लहरेंhttp://www.blogger.com/profile/15167461728431243414noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8534420496180705347.post-83740056672361077382017-04-11T19:55:00.002+05:302017-04-11T19:55:23.181+05:30मुक्तक<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
मुक्तक<br />
******<br />
आकार देख पाया नही .........निराकार को<br />
नाम दे सको न कभी तुम.........अनाम को<br />
धुरी नही हो ऐसा कोई...... चक्र भी कहाँ<br />
इच्छा करे ना.. ऐसा कोई मन नही कहीं<br />
-अरुण<br />
<div>
<br /></div>
</div>
मन की लहरेंhttp://www.blogger.com/profile/15167461728431243414noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8534420496180705347.post-44234980388170860572017-04-09T07:02:00.002+05:302017-04-09T07:02:52.163+05:30मुक्तक<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
मुक्तक<br />
*******<br />
डूबजाना समंदर में... है लहर की फ़ितरत<br />
'आगे क्या?'- यह सवाल भी साथ में डूबे <br />
<br />
मोक्ष मुक्ती की करो ना बात अभ्भी<br />
बंध बंधन का...समझ लो...बस बहोत है<br />
<br />
न ही उम्मीद कुई और न ही मै हारा हूँ<br />
पल पल की जिंदगी ही.. अब जिंदगी है<br />
-अरुण<br />
<br /></div>
मन की लहरेंhttp://www.blogger.com/profile/15167461728431243414noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8534420496180705347.post-54943144957187781952017-04-08T15:04:00.002+05:302017-04-08T17:17:05.005+05:30March 2017<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
मुक्तक<br />
*******<br />
हाँ..ना.. में दिया जा सके.... जिंदगी ऐसा जवाब नही<br />
कोई रखे हिसाब इसका.... जिंदगी ऐसा हिसाब नही<br />
अनगिनत हैं अक्षर यहाँ ............. अनगिनत तजुर्बे हैं<br />
जिंदगी कुछ जाने पहचाने अक्षरों की..... किताब नही<br />
-अरुण<br />
<br />
मुक्तक<br />
********<br />
जीने की तमन्ना ने बाँटी सारी दुनिया दो हिस्सों में<br />
जो इधर हुआ अपना हिस्सा जो उधर बचा सारा जहान<br />
-अरुण<br />
<br />
अभी यहाँ कल ही कल<br />
**********************<br />
अभी यहाँ जो भी है.... आँखों के सामने<br />
देखता उसको तो.. जो कल है बीत चुका<br />
अभी यहाँ सपने भी..... आनेवाले.. कल के<br />
कल तो बस कल ही है.. आये या ना आये<br />
-अरुण<br />
<br />
एक शेर<br />
********<br />
इधर इसका जले इतिहास....... तो जलता उधर उसका<br />
धुआँ और आग तो सबकी..... नही इसकी नही उसकी<br />
-अरुण<br />
<br />
चेतना का काम है चे.त.ना ..जब चेतती है हर एक के बीते हुए अनुभवों को, याद के रूप में चेताती है।अनुभवों में व्यक्तिगत भिन्नता होने के कारण, लगता यूँ है कि हरेक के भीतर जलती चेताग्नि ..<br />
दूसरों के चेताग्नि से भिन्न है..। सच तो यह है कि सबकी चेतना की आग और यादों का धुआँ तो common ही है।<br />
<br />
जबतक अंतरदृष्टि न चौंधे<br />
************************<br />
आकाश में बिजली चौंधनेपर<br />
पसर जाती है अचानक सर्वव्यापक रौशनी<br />
और मिट जाता है सारा का सारा पसरा अंधेरा<br />
<br />
हमारे इस रोज़ाना जिंदगी में<br />
मन में.. अंतर्दृष्टि की चकाचौंध<br />
जबतक नही होगी<br />
सर्वव्यापक अवधान भी न पसरेगा....<br />
हम विचारों के आभासित प्रकाश में ही<br />
अपना रास्ता बनाते हुए<br />
नज़र आते रहेंगे<br />
फिर भी<br />
रहेंगे तो हम तमस में ही....<br />
इच्छाओं के भ्रम में उलझे<br />
और भ्रम-जाल से निकलने के<br />
मिथ्या प्रयासों में<br />
डूबे हुए <br />
-अरुण<br />
मनुष्य में सकलता का अभाव<br />
**************************<br />
आमतौर पर,<br />
उसकी विचारशीलता को<br />
आधार मानकर<br />
मनुष्य को विवेकधारी पशु या<br />
Rational Animal) कहा गया<br />
परंतु दुनिया का परिदृश्य तो कुछ अलग ही कहानी कहता है<br />
सच्ची बात तो यह है कि<br />
मनुष्य से जादा विवेकशून्यता और कहीं भी नही<br />
और जगत में मनुष्य से अधिक स्व-केंद्रित भी कोई नही<br />
उसकी स्व-केंद्रितता उसे प्रकृति से जुदा कर रही है<br />
<br />
प्रकृति से समरसता के मामले में भी<br />
पशु मनुष्य से आगे है<br />
दुसरी ओर, अपने समूह में भी<br />
मनुष्य पूरीतरह से घुलमिल नही पाता<br />
<br />
क्योंकि उसके विचारों में स्वरसता का प्रभाव है<br />
और सकलता का अभाव<br />
-अरुण<br />
रिश्ता तर्क और समझ का<br />
***********************<br />
तर्कपूर्ण समझ ही विज्ञान है<br />
समझपूर्ण तर्क को ही प्रज्ञान कहिए<br />
तर्कहीन समझ है.....एक जानकारी या ज्ञान<br />
समझहीन तर्क को अज्ञान कहिए<br />
-अरुण<br />
मानवता का सागर<br />
****************<br />
मानवता के<br />
इस विस्तीर्ण सागर में<br />
हज़ारों लाखों करोड़ों घडे तैर रहे हैं<br />
हर घड़ा लहरों पर सवार होकर<br />
जिधर लहरें ले जाएँ उधर बढ़ रहा है<br />
लहरों से छलकता जल अपने में समेटते हुए<br />
आगे बढ़ रहा है अपनी उम्र की राह पर<br />
<br />
घडा अपने को दूसरे घड़ों से अलग<br />
समझते हुए अपने भीतर<br />
संकलित जल को भी अपना मान लेता है<br />
<br />
क्योंकि वह बेख़बर है कि ...<br />
न तो वह जल उसका है और न ही वह मिट्टी<br />
जिससे वह बना है<br />
-अरुण<br />
<br />
“व्यक्तिपन”<br />
***********<br />
जंगल में खड़ा पेड खड़ा<br />
और जंगल के बाहर बस्ती में<br />
अकेला खड़ा वृक्ष.....दोनों ही<br />
न तो अकेलापन महसूस करते हैं<br />
और न ही कोई सामुहिकता, क्योंकि....<br />
भीतर दोनों के ही<br />
कोई भी “व्यक्तिपन” नही पनपता<br />
<br />
“व्यक्तिपन” की भूल तो<br />
आदमी के साथ ही घटती रही है<br />
और शायद घटती रहेगी<br />
आदमी ही महसूस करता रहेगा<br />
या तो अकेलापन<br />
या सामुहिकता का दंभ<br />
-अरुण<br />
वसुधैव कुटुंबकम्<br />
****************<br />
पेड के पत्ते ने कभी नही कहा<br />
“पेड ही मेरा कुटुंब है”<br />
ज़िंदा सांसे हर लहर की अपने को<br />
सागर ही समझती हैं.....लहर नही<br />
<br />
परंतु क्या यह अजीब नही कि हम इंसान<br />
जो भीतर में दूसरों से डरे डरे हैं....<br />
इस पढ़ी पढ़ाई शब्दावली को <br />
रुक रुककर दुहराते रहते हैं...<br />
सारी वसुधा ही हमारा कुटुंब है...<br />
वसुधैव कुटुंबकम्<br />
-अरुण<br />
विचार<br />
*******<br />
हँसाते हैं विचार...विचार ही रुलाते हैं<br />
विचार ही रखते हैं सजग गंभीर और निष्पक्ष<br />
विचारों में बदल होते बदल जाता विचारक<br />
विचारों और विचारक में कहाँ है भेद कोई?<br />
<br />
स्थिती को देखना सुनना सभी का एक जैसा<br />
मगर उस देखने-सुनने में घुस जाते विचार<br />
किसी के वास्ते है वह स्थिती सुखमय सुखद<br />
किसी पे आ गिरा हो दु:ख का कोई पहाड़<br />
<br />
सभी ये वेदना-संवेदनाएँ शांत निर्मल<br />
और सजग होते हुए भी,<br />
आदमी बेहोश और अस्वस्थ है<br />
बस...विचारों की वजह से<br />
-अरुण<br />
मन का घना वन<br />
***************<br />
बीज पसरे तो............. पेड और जंगल पसरे<br />
जंगल में फँसे हुए तो निकल भी सकते हैं बाहर<br />
कल्पना के बीज से ही पसरता है मन का घना वन<br />
इस वन में खोया हुआ न कोई बाहर आया है अबतक<br />
-अरुण<br />
<br />
आभासमय है जीवन<br />
*****************<br />
पेड की परछाई को छूने से....<br />
पेड का स्पर्श नही होता..<br />
यह बात सबको मालूम है अच्छे से.....फिरभी<br />
असत्य को ही सत्य समझने की भूल सभी कर रहे होते हैं<br />
<br />
अस्तित्व गतिशील है सर्वत्र..देह के बाहर और भीतर भी<br />
इस गति से मनुष्य की दृष्टि-गति एवं समझ-गति...<br />
दोनों ही मेल नही खाती और..... इसकारण<br />
सीधे अस्तित्वगति को देखने की जगह<br />
उसके आभास को ही.....अस्तित्व समझकर...<br />
आदमी जीवन जी रहा है<br />
-अरुण<br />
होता कुछ और..लगता कुछ और<br />
*************************<br />
अंधेरे में ज़मीन पर पड़ी हुई रस्सी<br />
देखते ही<br />
भय और असुरक्षा महसूस हुई<br />
वजह इसकी साफ़ थी<br />
देखनेवालेको... रस्सी.. रस्सी न लगकर.... साँप लगी<br />
<br />
कहने का मतलब....होता कुछ और है<br />
और लगता कुछ और<br />
<br />
अस्तित्व है....”कुछ होते रहना”<br />
मगर मन है.....”कुछ और ही लगते रहना”<br />
<br />
‘‘होने’ और ‘लगने’ के भेद को....भेद सकता है<br />
केवल ध्यान<br />
न कोई मन.. न कोई ज्ञान<br />
-अरुण<br />
अस्तित्व का धर्म<br />
**************<br />
हो रहा दिन.. हो रही है रात<br />
पर ये बात...<br />
हरदम ख़्याल में रखे रहो के<br />
<br />
सिर्फ पल पल में बदल<br />
बदलाव ही<br />
अस्तित्व का है धर्म<br />
<br />
इसे दिन कहें या रात?<br />
सिर्फ अपने चयन की बात<br />
-अरुण<br />
जीवन सारा प्रतिबिंबों का, बिंब बिंब से खेल रहे हैं<br />
***************************************<br />
प्रतिबिंबों के रूप बदलते, नये चित्र प्रतिमाएँ रचते<br />
उन्हे हिलाते उन्हे मिलाते, नया रूप धर बोल रहे हैं<br />
<br />
प्रतिबिंबों के बिंब बन रहे, बिंबों के नव बिंब बन रहे<br />
इस बिंबात्मक मन में हरदम, बिंब सजग लग रेल रहे हैं<br />
<br />
बिंब कणों की यात्रा चलती, विचार गढ़ती विचार करती<br />
आती बीती की बातों से........ भूतभावि को ठेल रहे हैं<br />
<br />
प्रतिबिंबों की पूरी रचना..........जब चेते यह पूरी रचना<br />
अपना व्यर्थ स्वरूप निहारे, सत-स्वरूप पा डोल रहे हैं<br />
-अरुण<br />
सारी कायनातही नज़रों में....<br />
*********************<br />
वैसे तो, सारी कायनातही नज़रों में बसी रहती है<br />
ये ज़रूरतें हैं........... जो नज़रों को सिकुडती रहती<br />
वैसे तो देख सकता है ये इंसान... सभीकुछ लेकिन<br />
नज़रों को सिर्फ...................उसकी जरूरत दिखती<br />
<br />
जो कुछ हो रहा है इर्द गिर्द............. औ ख़ुद में<br />
छोटासा हिस्साही......... उसकी पकड का है हिस्सा<br />
ये ज़मीं आसमान...................बंदा है सारी दुनिया<br />
फिर भी उसकी समझ में वो तो सिर्फ इक क़िस्सा<br />
-अरुण<br />
जीवन-कला<br />
***********<br />
न ये दुनिया और न ही यह जिंदगी...<br />
किसी मक्सद की ओर दौड़ रही है<br />
केवल चलते रहना ही इसका काम है<br />
इसी चलते रहने या जीवनगति के<br />
आनंद में डूबे रहना ही है...<br />
जीवन की कला<br />
-अरुण<br />
स्वामित्व<br />
*********<br />
हर वस्तु, पदार्थ और जीव ही<br />
स्वयं का मालिक है<br />
कोई अन्य उसका स्वामी नही,<br />
<br />
वैसे तो स्वामी या स्वामित्व<br />
केवल एक विचार या संकल्पना मात्र है<br />
यह संकल्पना जब किसी चीज आदि से<br />
जुड जाती है या उससे<br />
तादात्म स्थापित करती है<br />
मन में स्वामित्व का भाव जाग जाता है<br />
-अरुण<br />
किताबी जीवन<br />
**************<br />
अगर आध्यात्मिक किताबें न होती..<br />
न होती दार्शनिक नसीहतें<br />
तो शायद आदमी<br />
अपनी मौलिक मनवेदनाओं का हल<br />
स्वयं में ओर स्वयं से ढूँढता<br />
अपने को समझते समझते पूरी मानवता के<br />
स्वभाव को देख लेता<br />
<br />
पर ऐसा हुआ नही<br />
कुछ अपवादों के साथ..<br />
आदमी आँखें बंद किए हुए<br />
दूसरों की नज़रों से दुनिया को<br />
जानने के लिए प्रवृत्त हुआ<br />
अपना जीवन जीने की जगह<br />
किताबी जीवन जीने लगा<br />
-अरुण<br />
अजब यह व्याकरण और गणित<br />
**************************<br />
जानना ही जानता है...जो जना(जाना) जाए<br />
अजब है व्याकरण इस जिंदगी का,<br />
कर्ता क्रिया और कर्म सबकुछ<br />
एक क्षण और एक स्थल में ही सिमट जाए<br />
<br />
पेड ही जड़ और पत्ता, दृश्य दर्शन और द्रष्टा<br />
एक ही ह्रद-श्वांस में सबकुछ गना जाए<br />
अजब है यह गणित इस जिंदगी का<br />
-अरुण<br />
<br />
मोटेतौर पर तीन तरह के लोग<br />
*************************<br />
मोटेतौर पर तीन तरह के लोग इस दुनिया में रहते हैं<br />
एक वह जो देखे बिना ही किसी बात को मान लेते हैं<br />
दूसरे वह जो बात को देखते और उसपर सोचते रहते हैं<br />
तीसरे वह जो बात को देखते.. सोचते और<br />
ख़ुद में, उसे पूरी तरह स्पष्टता से समझ लेते हैं<br />
<br />
पहलेवाले बंधन में रहते हुए भी नही जानते कि वे बंधन में हैं<br />
दूसरेवाले बंधन के दर्द को महसूस करते हुए<br />
या तो उससे समझौता करते हैं या संघर्ष<br />
<br />
तीसरे वे जिनकी स्पष्ट एवं समुचित समझ उन्हे<br />
बंधन में फंसने ही नही देती<br />
-अरुण<br />
सत में रहते सत ना जाने<br />
**********************<br />
केवल रात ही रात होती जीवनभर तो<br />
रात को ही आदमी दिन समझ लेता<br />
दिन में भी अगर होता वह बंद कमरों में<br />
आशय दिन का किताबों में ही रहता <br />
<br />
असत ही है जब जीवन का तानाबाना<br />
लगता आदमी को यही है असली जीना<br />
अपनी साँस ओ धड़कन को किए नज़रअंदाज़ै<br />
पूछे संतों से..कहाँ है मेरी धड़कन मेरी साँस?<br />
-अरुण<br />
दिखता है वही...<br />
*************<br />
जब भी देखता हूँ...बाहर या भीतर<br />
दिखता वही है जो अबतक देखा है<br />
वैसा का वैसा या.. थोडासा बदलासा<br />
वही बने नया जो पहले से सीखा है<br />
-अरुण<br />
तन के बोल मन की मनमन<br />
**************************<br />
एक दूसरे के सामने खडे हुए,<br />
हम एक दूसरे से बात करते हुए दिखते हों भले ही,<br />
पर सच तो यह है कि<br />
मेरा मन मेरे मन से और तुम्हारा मन तुम्हारे मन से,<br />
इस तरह दोनों ही, अलग अलग, अपने स्वयं से ही बोल रहे हैं<br />
<br />
बोलना और सुनना, चुंकि, एक दूसरे की ओर निशाना साधे,<br />
खुलकर चल रहा है, मान लिया जाता है हम दोनों<br />
एक दूसरे से वार्तालाप कर रहे हैं।<br />
<br />
सामुदायिक रूप से चल रहा यह सारा शोरशराबा<br />
आदमीयों के मनों के भीतर चल रही<br />
मनमन का ही परिणाम है<br />
-अरुण<br />
क्षितिज और मन<br />
**************<br />
क्षितिज धरती ही नही आकाश से भी दूर है<br />
होता नही है जो मगर.. फिरभी नज़र आता<br />
आदमी का मन क्षितिज जैसा....निरा आभास<br />
होता नही है फिरभी जग...इसमें समा जाता<br />
-अरुण<br />
‘उसे’ निर्गुण निराकार क्यों कहते हैं?<br />
*****************************<br />
हवा पर तैरते बादल नही आकार उनको<br />
हमें जो चाहिए आकार हम वह देख लेते<br />
हमें जो चाहिए वैसीही दिखती है ये दुनिया<br />
नही आकार गुण और नाम लेकर यह उगी है<br />
-अरुण<br />
मन का उजाला.. अंधेरे ही जैसा<br />
**************************<br />
मन हमें अपने ही उजालों में भटकाये रखता है<br />
और फिर हम हो जाते हैं<br />
प्रकाश की संभावना से कोसों दूर<br />
<br />
कोसों दूर.. इसलिए<br />
क्योंकि मन ही हमें प्रकाश जैसा लगने लगता है<br />
अपनी तमाम परेशानियों का समाधान<br />
हम मन में ही खोजने लगते हैं.. और फिर<br />
जिसे समाधान समझते हैं वही उभरकर<br />
बन जाता है एक नई परेशानी<br />
<br />
“परेशानी... समाधान और फिर परेशानी”<br />
इस शृंखला से तभी मुक्ति संभव है<br />
जब आदमी मन के उजालों से<br />
चिपके रहने के बजाय<br />
मन को ही प्रकाशित हुआ देख ले<br />
-अरुण<br />
<div>
<br /></div>
</div>
मन की लहरेंhttp://www.blogger.com/profile/15167461728431243414noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8534420496180705347.post-74824445800148163662017-04-08T06:36:00.002+05:302017-04-08T06:36:17.980+05:30बोधिवृक्ष<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
बोधिवृक्ष<br />
*******<br />
“आँगन में यहाँ जो वृक्ष खड़ा है<br />
कहना गलत नही कि वह इस सूबे.. पृथ्वी..<br />
सारे ब्रह्म में खडा है”<br />
<br />
यह तथ्य<br />
एक सत्यबोध बनकर<br />
जिनके ह्रदय में उतरा होगा<br />
उनके लिए वह वृक्ष... केवल वृक्ष नही<br />
एक बोधिवृक्ष बन गया होगा<br />
-अरुण</div>
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