परम...विराट की गोद



परम...विराट की गोद में बैठी  
अपनी संकुचित दृष्टि-सृष्टिवाली
एक छोटीसी गुडिया यानि यह आदमी
नाच-डोल रहा है....हँसता-रोता, मिलता-झगड़ता...
अपनी अलग पहचान के कारण त्रस्त हुआ,
असहाय अवस्थासे विवश होकर  
परम के स्मरण की बातें करने लगता है
बाहर से जो सीखा, भीतर जो सूझा
उसी को स्मरण समझकर मरण तक उसीको
दुहराये चला जाता है ..
परन्तु परम गोद का संवेदी स्पर्श
केवल उसी को जिसकी दृष्टि-सृष्टि का
संकुचन विलोपित होकर
परम हो सका
-अरुण  

Comments

Popular posts from this blog

मै तो तनहा ही रहा ...

यूँ ही बाँहों में सम्हालो के

षड रिपु