अगस्त २०१७ की रचनाएँ
दिमाग है सामाजिक कृति ********************* हर एक की शक्ल अलग है... और उसका नाम धाम परिवार भी अलग होने से वह सोचता है कि उसका एक अलग..स्वतंत्र वजूद है पर उसका यह देखना जानना और समझना बोधप्रद होगा कि ‘उसका दिमाग’... उसका दिमाग नही है वह तो है समाज की निर्मिति समाज द्वारा संस्कारित कृति जिसे इस जीवन-तथ्य का हरपल जीवंत एहसास है वह... सामाजिक बंधनों, परंपरा-रिवाजों और मान्यताओं के दबाव से निर्बोझ होकर एक खुली जिंदगी जी रहा होता है बिना उन दबाओं से लड़े...बिना उन्हे स्वीकारे -अरुण कोई दूसरा उपाय नही ******************* जहाँ संबंध हैं.. संबंधों में आपसी लेनदेन है... वहाँ संघर्षों का होना किसी न किसी रूप में, अवश्यंभावी है संघर्ष... मनचित की पूरी क्षमता को उभरने नही देते सो आदमी अस्वस्थ और अशांत है पर संघर्षों से बचने के लिए कोई सन्यास नही लेता और चाहकर भी कोई संबंधविरहित नही हो पाता बस, संघर्षों का अंतरबाह्य त्रयस्थ अवलोकन..स्पष्ट समझ ही अपनेआप में संघर्षों का थमना है.... कोई दूसरा उपाय नही -अरुण मन तो है तन का केवल प्रतिरूप ********************...