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Showing posts from June, 2010

मुक्ति

पिंजड़े का पंछी खुले आकाश में आते मुक्त महसूस करे यह तो ठीक ही है परन्तु अगर पिंजड़े का दरवाजा खुला होते हुए भी वह पिंजड़े में ही बना रहे और आजादी के लिए प्रार्थना करता रहे तो मतलब साफ है आजादी के द्वार के प्रति वह सजग नही है वह कैद है अपनी ही सोच में ................................... अरुण

परिभाषा की परिसीमा

परिभाषाएं कितनी भी सटीक क्यों न हों हमेशा अधूरी हैं कामचलाऊ हो सकती हैं पर आशय के पूर्णत्व को छू नहीं सकती ठीक वैसे ही जैसे वस्तु की छाया वस्तु को पकड़ नहीं सकती ................................................ अरुण

आइंस्टीन का टाइमस्पेस और मन

आइंस्टीन का ‘ टाइमस्पेस ’ मन को भी लागू है अस्तित्व है एक का एक कहीं भी न भेद, न अन्तर, न अवकाश न दिशा और न ही आकार बुद्धि ने अपनी सहुलियत के लिए ‘ आरम्भ ’ और ‘ अंत ’ की कल्पना की और इन दो काल्पनिक स्थल- बिंदुओं के बीच का अंतर नापना चाहा और ऐसा करते काल का ख्याल पैदा हुआ मन के भीतर भी अंतर, आकार, दिशा की अवधारणा होने से मनोवैज्ञनिक काल या टाइम प्रकट हुआ जान पड़ता है .............................. ............ अरुण

आइंस्टीन का टाइमस्पेस और मन

आइंस्टीन का ‘ टाइमस्पेस ’ मन को भी लागू है अस्तित्व है एक का एक कहीं भी न भेद, न अन्तर, न अवकाश न दिशा और न ही आकार बुद्धि ने अपनी सहुलियत के लिए ‘ आरम्भ ’ और ‘ अंत ’ की कल्पना की और इन दो काल्पनिक स्थल- बिंदुओं के बीच का अंतर नापना चाहा और ऐसा करते काल का ख्याल पैदा हुआ मन के भीतर भी अंतर, आकार, दिशा की अवधारणा होने से मनोवैज्ञनिक काल या टाइम प्रकट हुआ जान पड़ता है .......................................... अरुण

दूसरों की पर-निर्भरता में रस लेता आदमी

आम तौर पर एक बात देखने को मिलती है . देखा जाता है कि एक आदमी सामनेवाले अपने किसी मित्र या परिचित को कोई कूट प्रश्न या पहेली हल करने को देता है, फिर यह देखने मे रस लेता है कि कैसे वह उसे हल नहीं कर पा रहा या उसे कितनी माथापच्ची करनी पड़ रही है. मित्र को पहेली का हल मिलने जा रहा है, अगर ऐसा दिख जाए, तो प्रश्नकर्ता तुरंत हस्तक्षेप कर उसे रोकते हुए, खुद ही प्रश्न का हल बता देता है. अगर हल ढूँढता हुआ मित्र हल न ढूँढ पाए तो कितना ही अच्छा हो, ऐसा सोचकर वह मन ही मन खुश होता दिखता है. कूट - प्रश्न कर्ताओं की यह सहज मानसिकता कई अन्य प्रसंगों एवं ढंगों में देखने को मिलती है, जैसे महिमामंडित शब्दों में श्रोताओं को उलझाकर अपने प्रवचन को दैवी चोला पहनानेवाले बाबागण या बड़ी बड़ी बयानबाजी कर लोगों को उकसानेवाले राजनीतिक नेता या धर्मग्रंथों का प्रतिपादन कर लोगों के मन में अपनी महत्ता स्थापित करनेवाले लोग. ऐसे ‘ महत्वधारी ’ लोग नहीं चाहते कि लोग या आम आदमी अपने प्रश्न स्वयं हल करें. लोगों को पर-निर्भर बनाने में उन्हें रस मिलता है. प्रश्न न भी हों तो वे नये कूट प्रश्न गढ़कर लोगों में फैला

दूसरों की पर-निर्भरता में रस लेता आदमी

आम तौर पर एक बात देखने को मिलती है . देखा जाता है कि एक आदमी सामनेवाले अपने किसी मित्र या परिचित को कोई कूट प्रश्न या पहेली हल करने को देता है, फिर यह देखने मे रस लेता है कि कैसे वह उसे हल नहीं कर पा रहा या उसे कितनी माथापच्ची करनी पड़ रही है. मित्र को पहेली का हल मिलने जा रहा है, अगर ऐसा दिख जाए, तो प्रश्नकर्ता तुरंत हस्तक्षेप कर उसे रोकते हुए, खुद ही प्रश्न का हल बता देता है. अगर हल ढूँढता हुआ मित्र हल न ढूँढ पाए तो कितना ही अच्छा हो, ऐसा सोचकर वह मन ही मन खुश होता दिखता है. कूट - प्रश्न कर्ताओं की यह सहज मानसिकता कई अन्य प्रसंगों एवं ढंगों में देखने को मिलती है, जैसे महिमामंडित शब्दों में श्रोताओं को उलझाकर अपने प्रवचन को दैवी चोला पहनानेवाले बाबागण या बड़ी बड़ी बयानबाजी कर लोगों को उकसानेवाले राजनीतिक नेता या धर्मग्रंथों का प्रतिपादन कर लोगों के मन में अपनी महत्ता स्थापित करनेवाले लोग. ऐसे ‘ महत्वधारी ’ लोग नहीं चाहते कि लोग या आम आदमी अपने प्रश्न स्वयं हल करें. लोगों को पर-निर्भर बनाने में उन्हें रस मिलता है. प्रश्न न भी हों तो वे नये कूट प्रश्न गढ़कर लोगों में फैला

बंधी दृष्टि

तांगे या बग्घी को जोता गया घोडा नाक की सीध में भागता है उसकी आँखों को पट्टी से इस तरह ढंक दिया जाता है कि वह केवल सीध में ही देख सके, बाएं- दाएं देखकर कहीं भटक न जाए समाज भी अनुशासन के नाम पर व्यक्ति की आखों को विश्वासों, परम्पराओं तथा रिवाजों की पट्टियाँ बांध देता है ताकि व्यक्ति व्यवस्था के प्रति बगावत न कर पाए ऐसा व्यक्ति अनुशासन में तो ढल जाता है पर वह अपनी स्वतन्त्र -दृष्टी की शक्यता को खो बैठता है ............................................................... अरुण

शुद्ध लय शब्दों में खो गई

किसी भी गेय गीत में धुन, ताल और शब्दों की संगती है जब भी शब्दों को धुन में सुना जाता है या धुन को शब्दों में उभारा जाता है तो दोनों एक दूसरे में इतने घुलमिल गये होते हैं कि लाख कोशिशों के बावजूद भी न तो शब्दों को धुन से और न तो धुन को शब्दों से अलग किया जा सकता है जीवन क़ी शुद्ध लय में सांसारिक शब्द इतने घुलमिल गये हैं कि अब शुद्ध लय को ढूँढना मुश्किल बन गया है .................. अरुण

संसार- एक कल्प-वास्तव

सांसारिकता के रंगमंच पर स्वार्थ ही नायक है जो इस संसार को एक नाटक समझकर जी रहें है वे मुक्त हैं जिन्हें संसार एक वास्तविकता जान पडता है वे सब स्वार्थ-जन्य इस कल्प-वास्तव ( Virtual Reality) से बंधे हैं ............................................ अरुण

चित्र बने विचित्र

चित्रकार रंगों का प्रयोग कर चित्र बनाता है अपनी कल्पना में बसे चित्र को कागज पर प्रतिबिम्बित करता है इस प्रतिबिम्बन या रेखाटन को जहाँ जैसे रंगों कि जरूरत हो उन रंगों का इस्तेमाल कर सजीव बनाता है ऐसा करते वक्त उसके मन में न किसी रंग विशेष का आग्रह है और न तो विरोध - वह अभ्रष्ट चित्त से सृजन कर रहा है परन्तु भ्रष्ट मन से यानी किसी मत, पक्ष, या विकल्प का आग्रह या विरोध लिए की जाने वाली हर कृति भ्रष्ट होगी, विचित्र होगी ............................................... अरुण

मन - एक भ्रम-छाया

पेड की छाया के लिए सूर्य और धरती दोनों का होना जरूरी है परन्तु यह छाया न तो सूर्य ने पैदा की और न ही धरती इसकी मालिक है यह छाया न तो सूर्य को जानती है और न ही धरती और पेड से इसका कोई लगाव है यह स्वयं के प्रति भी पूरी तरह उदासीन है ऐसी ही एक छाया है आदमी का मन परन्तु यह मन (भ्रम- छाया) अपने होने का दावा ही नहीं करता बल्कि अपने शरीर (धरती) और परिवेश( सूर्य) दोनों पर अपनी सत्ता स्थापित करता है ................................................. अरुण

मन - एक भ्रम-छाया

पेड की छाया के लिए सूर्य और धरती दोनों का होना जरूरी है परन्तु यह छाया न तो सूर्य ने पैदा की और न ही धरती इसकी मालिक है यह छाया न तो सूर्य को जानती है और न ही धरती और पेड से इसका कोई लगाव है यह स्वयं के प्रति भी पूरी तरह उदासीन है ऐसी ही एक छाया है आदमी का मन परन्तु यह मन (भ्रम- छाया) अपने होने का दावा ही नहीं करता बल्कि अपने शरीर (धरती) और परिवेश( सूर्य) दोनों पर अपनी सत्ता स्थापित करता है ................................................. अरुण

सृष्टि-सागर

आदमी- सृष्टि-सागर की एक लहर है पर इस लहर ने अपने को सागर से अलग माना और इसीलिए इतनी सारी उलझने, गफलत, भ्रम और सारे संघर्ष पैदा हुए .............................. .... अरुण

‘निष्काम कर्म’ की भूमिका

बिना बोये फल नहीं मिलता – यह सच है और यह भी सच है कि - बीज बोने पर फल मिलेगा ही – इसकी भी कोई निश्चिती नहीं है इन दो सचों या तथ्यों का मिलाप ही है यह निष्कर्ष कि - कर्म करो पर फल कि आशा न रखो ................................................... अरुण

चित्र बने विचित्र

चित्रकार रंगों का प्रयोग कर चित्र बनाता है अपनी कल्पना में बसे चित्र को कागज पर प्रतिबिम्बित करता है इस प्रतिबिम्बन या रेखाटन को जहाँ जैसे रंगों कि जरूरत हो उन रंगों का इस्तेमाल कर सजीव बनाता है ऐसा करते वक्त उसके मन में न किसी रंग विशेष का आग्रह है और न तो विरोध - वह अभ्रष्ट चित्त से सृजन कर रहा है परन्तु भ्रष्ट मन से यानी किसी मत, पक्ष, या विकल्प का आग्रह या विरोध लिए की जाने वाली हर कृति भ्रष्ट होगी, विचित्र होगी .............................. ................. अरुण

शुद्ध लय शब्दों में खो गई

किसी भी गेय गीत में धुन, ताल और शब्दों की संगती है जब भी शब्दों को धुन में सुना जाता है या धुन को शब्दों में उभारा जाता है तो दोनों एक दूसरे में इतने घुलमिल गये होते हैं कि लाख कोशिशों के बावजूद भी न तो शब्दों को धुन से और न तो धुन को शब्दों से अलग किया जा सकता है जीवन क़ी शुद्ध लय में सांसारिक शब्द इतने घुलमिल गये हैं कि अब शुद्ध लय को ढूँढना मुश्किल बन गया है .............................. .................. अरुण

आदर्श - न जमीनी न आसमानी

वही गेंद उछलते हैं जो गिरकर जमीन को छूते हैं उन्हें जमीनी और आसमानी दोनों हकीकतों का पता है वे उनमें में से नही जो गिरने से पहले ही उछलकर किन्ही आदर्शों को छूना चाहतें हैं और अपने आदर्शों को पकडे हुए जमीन पर आ गिरतें हैं .............................. ........ अरुण

स्वर्ग, नरक, संसार

अस्तित्व की सकलता के प्रति जो क्षण क्षण सजग है वह स्वर्ग में है जो अहम् में लीन है नरक में है जो अहम् और सकल के बीच दौड़ रहा है , विचलित है, संभ्रमित है वह संसार में है हरेक व्यक्ति इन तीनो संभावनाओं के साथ जीता है ............................................ अरुण

शुद्ध लय शब्दों में खो गई

किसी भी गेय गीत में धुन, ताल और शब्दों की संगती है जब भी शब्दों को धुन में सुना जाता है या धुन को शब्दों में उभारा जाता है तो दोनों एक दूसरे में इतने घुलमिल गये होते हैं कि लाख कोशिशों के बावजूद भी न तो शब्दों को धुन से और न तो धुन को शब्दों से अलग किया जा सकता है जीवन क़ी शुद्ध लय में सांसारिक शब्द इतने घुलमिल गये हैं कि अब शुद्ध लय को ढूँढना मुश्किल बन गया है ................................................ अरुण

सत्य- मंत्र,यन्त्र, तंत्र

सत्य का मंत्र यानी - सत्य की स्पष्ट समझ सत्य का यन्त्र यानी - शरीर-मन और उसका सकल परिवेश सत्य का तंत्र यानी - सत्य की स्पष्ट समझ के साथ सकल परिवेश को अवधान में उतारते हुए ध्यानस्थ स्थिति में सत्य को तत्त्व से जानना ................................ अरुण

गुरु के बाबत

गुरु प्रकाश ही गुरु प्रसाद गुरु वह नही जो हाँथ पकड़कर रास्तों पे चलाये गुरु ऐसा प्रकाश है जिस प्रकाश में शिष्य अपना रास्ता ढूंढ लेता है .............................. . अरुण जहाँ शिष्य वहाँ गुरु जगत में भांति भांति के गुरु उपलब्ध हैं जिसे जैसा चाहिए वैसा मिल जाता है या यूँ कहें कि शिष्य जैसा हो वैसे ही गुरु की उसे जरूरत होती है, वैसा ही गुरु उसे भाता है नीचे धरातल के शिष्य को नीचे धरातल का ऊँचे धरातल वाले शिष्य को उसकी जरूरत का, जरूरत शिष्य के धरातल (समझ) के ऊँचे उठने की है गुरु का धरातल क्या है यह चिंता का विषय नही .............................. .................... अरुण गुरु हर क्षण मिलतें हैं जीवन में सीखने के अवसर क्षण प्रति क्षण जीवंत हैं जिसे दिखतें हैं वे उनसे सीख लेते हैं जिसे नही दिखते वे उन्हें ढूँढते रहते हैं बरसते पानी को चुल्लू से पकड़ा जा सकता है पर कुछ लोग बादल ढूँढने में जुटे हैं गुरु को ढूंढना नही है शिष्यत्व जगाना है ........................... अरुण

इधर से सुखकर तो उधर से दुखदायी

सुख की आकांक्षा में दुःख का भय है दुःख की अनुभूति में सुख का चिंतन एक ही अनुभूति - इधर से सुखकर दिखे तो उधर से दुखदायी क्यों न ऐसी जगह से देखें यह सारा तमाशा जहाँ न हो कोई आशा और न कोई निराशा ............................ अरुण

यहाँ अपना तो कुछ भी नही..

बालक- मन की कोरी स्लेट पर लिखा जाता है वही सब जो समाज के मन-पटल पर अंकित हो बालक बड़ा होता जाता है इस भावना के साथ कि जो कुछ भी उसके मस्तिष्क में है वह सब उसकी स्वयं की उपलब्धि है समाज के छोर से बह कर बालक के मस्तिष्क में संचित होंने वाले ज्ञान से बालक अपना तादात्म जोड़ देता है ठीक उसी तरह जिस तरह दुकान में रखी वस्तु जब अपने घर पहुंचती है तब वह अपनी बन जाती है यहाँ अपना तो कुछ भी नही .................................... अरुण

केवल बुद्धि से नही ....तत्त्व से

बुद्धि को यह बात कि 'हम सब डोरी को सांप समझकर जी रहे हैं' भले ही अच्छी तरह से समझ आ गयी हो फिर भी मन अभी भी 'डोरी' से यानी वास्तविकता से दूर भागता है बुद्धि से सत्य जानना काफी नही सत्य तत्त्व से (तन-मन-ह्रदय एवं अवधान से) अनुभव में समाना जरूरी है ..................................... अरुण

मन निर्मित समस्याएँ

जीवन की प्रायः सभी मन- निर्मित समस्याओं का दूसरा नाम है अहंकार यह अहंकार जिससे भी चिपक जाए वह समस्या- बन जाता है अपने परिवार से चिपके तो अन्य परिवार दुश्मन बन जातें हैं हिन्दू बन जाए तो दूसरे धर्म डराने लगते हैं अपने देश से चिपके तो दूसरे देशों से खतरा लगने लगता है इतना ही नही, अहंकार यदि किसी संकट से चिपक कर उसे अपना मान ले तो दूसरों के संकटों का बड़प्पन उसे सताने लगता है अहकार के ओझल होते समस्या का अस्तित्व ही नही केवल समाधान ही समाधान .............................. .......... अरुण

द्वार पर ही अटके गये

सत्य का किला जिसके कई द्वार हरेक द्वार है एक श्रद्धा स्थान जहाँ से गुजरकर अन्दर सत्य तक पहुँचना है हम सब द्वार पर ही अटक गये हैं द्वार को ही सत्य मान बैठें हैं हम हिन्दू बने, मुस्लिम बने, आस्तिक बने, नास्तिक बने, पर धार्मिक न बन पाए द्वार पर ही अटक गये .............................. अरुण

असीम बना ससीम

पैदा हुआ और इस धरती पर आया तब था असीम न था मेरा कोई नाम, कोई परिचय और न कोई पता सारी जमीन, सारा सागर, सारा आसमान मेरा अपना था पर आज एक छोटे से घर, नाम, और परिचय का मै मोहताज हूँ ............................. अरुण

विचारों की फलती लहरें

अबाध गति से बहती नदी की लहरें अचानक फल उठती हैं और पौधे बन जाती हैं, ऐसा अगर संभव हो जाए तो नदी का प्रवाह टूट कर बिखर जाएगा, हमारी सारी मानसिक चेतना या उर्जा उसमें उगते फलते विचारों के कारण इसी तरह टूट कर बिखरती है, इन विचारों से तादात्म हटते ही तन-मन का उर्जा प्रवाह पुनः सजीव हो उठेगा .............................. ................ अरुण

अस्तित्व यानी सकलता

धरती -आकाश- सागर अलग अलग से लगतें हैं मस्तिष्क को, अस्तित्व को नही , सदियों से सत्य की खोज चली आ रही है पर सत्य बेबूझ है क्योंकि मस्तिष्क हर चीज बाँट कर देखता है एक का एक अस्तित्व ही सत्य के आधीन है अस्तित्व की सकलता ही सत्य की समझ है ........................... अरुण

आदमी

पशुत्व और भगवत्व के बीच लटकी है आदमी की जात पशुत्व से हटकर आदमी बनने के प्रयास में कभी वह बना 'महापशु' तो कभी बना 'महाभगवान' पर आदमी न बन सका .............................. ......... अरुण

'जहाँ धुआं वहाँ आग निश्चित'

ऊपर लिखे अनुमान तंत्र का सहारा लेकर कई प्रश्नों के उत्तर ढूंढे जाते हैं परन्तु अहंकार क़ी खोज में इस अनुमान से हम चूक जातें हैं हम अहंकार को आग समझतें हैं दरअसल अहंकार आग नही धुआं है व्यक्तिगत देह और सामाजिक परिवेश क़ी अंतःक्रिया या अन्तःसम्पर्क से मन क़ी आग जन्म लेती है शरीर में है मन की सुलगती आग -- अहंकार उसी आग का अपरिहार्य धुआं है सारा अंतर ध्यान मन को देखे अहंकार को पकड़ने क़ी कोशिश काम की नही .............................................. अरुण

संस्कारित घोडा

मन के दरवाजे पर उर्जा का बंधा घोडा, विचलित है दौड़ने के लिए अगर खोल दो उसे तो वह भागेगा किसी कीले की ओर चढ़ाई के लिए या किसी मंदिर के सामने झुकने के लिए, किसी न किसी मकसद के लिये भागना उसका संस्कार है, उसने कभी जाना ही नही भागना बादल की तरह भागना हवा की तरह .............................. .... अरुण

दो बातें

नवीनता नयापन है दो तरह का - एक वह, जो पुराना नही दिखता और दूसरा वह - जिसके आते पुराने का स्मरण ही न हो ...................... अनंत दरवाजे, खिड़की और झरोखों से आसमाँ देखने वाले अनंत, असीम, अपार, जैसी संकल्पनों से मन बहलातें हैं ----------------------- अरुण

ध्यान- प्रकाश

केवल सुन-पढ़ लिया है कि भीतर है स्वच्छ नीला असीम आकाश पर जब देखा भीतर दिखा घना कुहरा, इतना गहरा और सख्त कि कुहरा ही कुहरे को देखे बस कुहरा ही कुहरा भीतर के आकाश को छुपा देता कुहरा बाहर के प्रकाश को ग्रस लेता कुहरा मनुष्य के सारे विचार कुहरे जैसे ही हैं कुहरे जैसा ही है उनका वजूद ध्यान -प्रकाश की मौजूदगी में ही विचार छट सकतें है ध्यान प्रकाश ही बाहरी दुनिया पे पड़े विचार- आच्छादन को गला सकता है .............................. ....................... अरुण