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Showing posts from September, 2010

प्रकाश के रास्ते में ......

प्रकाश के रास्ते में प्रकाश को रोके खड़ा हो गया सामने खड़ी हो गई एक परछाई जिंदगी कट गई पर लाख कोशिश के बावजूद भी परछाई को हटा न पाया रास्ते से हट जाना भी मेरे बस में कहाँ बस बचा एक ही उपाय मै स्वयं ही प्रज्वलित हो जाऊं फिर कभी भी, कहीं भी कोई परछाई न होगी प्रकाश अपने रास्ते से गुजर जाएगा सीधे सीधे .................................. अरुण

शब्द और आशय एक दूजे से मुक्त ..

जब विचार ‘ कर्ता ’ की भूमिका निभाते हैं सांसारिकता में घुले रहतें हैं जब वे ‘ कर्म ’ के रूप में विचरते हैं सांसारिकता से मुक्त रहते हैं सांसारिकता से मुक्त मन ही समाधी अवस्था का परिचायक है सांसारिकता क्या है? अस्तित्व को दिए गये अर्थ या आशाय्ररूपी संकेत आपस में संवाद करते हुए हमारी सांसारिकता को (हमारी consciousness को) सजीव बनाते हैं शब्द या आशय का एक दूसरे से मुक्त होना ही समाधी है ................................................................ अरुण

कौन सी मिटटी मेरी ?

योग करूँ ? ध्यान करूँ? व्यायाम या प्राणायाम करूँ? क्या करूँ? ज्ञान से जाऊं कि ध्यान से कि भक्ति से ? व्यर्थ हैं ऐसे प्रश्न इसका जबाब न स्वयं के पास होगा और न दूसरा दे सकता है अगर कोई बीज पूछे कौन सी मिटटी, किस रंग सुगंध की मिटटी, मेरे लिए सही होगी? हमारे पास बस यही जबाब होगा- जहाँ गिरकर तुम फूटो, फलो, ऊगो, पौधा बन जाओ, वही मिटटी तुम्हारी है बाकि सब बेमेल, थोता या झूठा है ................................. अरुण

रेखा होती ही नही ......

सच्चाई यह है कि समय होता ही नही परन्तु काल (त्रिकाल) का सदैव अनुभव हो रहा है ऐसा इसलिए कि ध्यान बंट गया है टुकड़ों में और इसीलिए ध्यान और अध्यान का एक क्रम बन जाने से यानी ध्यान-अध्यान .. ध्यान-अध्यान .... ध्यान-अध्यान के अनुभूत होने से निरंतरता की कल्पना जाग उठी है दूसरे शब्दों में ऐसा भी कह सकतें हैं कि रेखा होती ही नही केवल बिंदु ही बिंदु हैं परन्तु बिंदुओं के प्रति अध्यानावस्था होने से रेखा की कल्पना सजीव हो गई है .................................................. अरुण

संगठन – स्वार्थ का गठजोड़

संगठित होना जरूरी है किसी के विरोध में या पक्ष में कुछ हासिल करने को या किसी से आजाद होने के लिए परन्तु ऊपरी तौर पे आदमी को आदमी से जोडते दिखते ये बहाने गहराई में, स्वार्थ के गठजोड़ है अलगाव के बहाने हैं क्योंकि ये पक्ष-विपक्ष के रोगसे मुक्त नही हैं ............................................. अरुण

समय मन की उपज

सूर्य, चंद्र, पृथ्वि, तारे ये सब चलते हैं किसी समय के आधीन होकर नहीं बल्कि मानव-मन ही इनकी गति के आधार पर अपनी घडी की रचना करता है ............................................................. अरुण

प्रेम यानी अनन्यभाव

जिनमें अनन्यभाव जागा प्रेम और करुणा फल उठी साधारणतया हम जिसे प्रेम कहते हैं वह अपनत्व, लगाव, आत्म- तादात्म , सहानुभूति समानुभूति, समवेदना से अधिक कुछ भी नही इन सारे भावों में 'मै' का अस्तित्व बना रहता है आत्मसत्ता काम करती रहती है अनन्य भाव का अभाव रहता है ...................................................... अरुण

मन का अभेद्य अंधकार

कहते हैं उजाले के सामने अँधेरा टिकता ही नही परन्तु मन का अँधेरा अलग है मन का अँधेरा जहाँ से भी गुजरे बिना देखे ही उजाले को निगल जाता है - अँधेरे में ही राह बनाते जाना मन का धर्म है इसीलिए सत्य का चिर-प्रकाश वह कभी भी देख नही पाता जो भी चिर-प्रकाशित हो गये वे मन-विलोपन के बाद ही हुए क्योंकि मन से चिर-प्रकाश देखा ही नही जा सकता .................................... अरुण

प्रखर सूर्य-प्रकाश में बैठकर.....

धर्म के सम्बन्ध में मनुष्य का आचरण अटपटा सा है ऐसा लगता है मानो- एक खुले मैदान में प्रखर सूर्य- प्रकाश में बैठकर कोई सूर्य का मंदिर बना रहा हो दीपक की पूजा कर रहा हो ...................................... अरुण

प्रखर सूर्य-प्रकाश में बैठकर.....

धर्म के सम्बन्ध में मनुष्य का आचरण अटपटा सा है ऐसा लगता है मानो- एक खुले मैदान में प्रखर सूर्य- प्रकाश में बैठकर कोई सूर्य का मंदिर बना रहा हो दीपक की पूजा कर रहा हो ...................................... अरुण

समाजीकरण – एक बंधन

शुद्ध- तरल -प्रवाही चेतना लिए बालक सृष्टि से उभरकर मानव समुदाय में अवतरित हुआ उसके कानों में मानवी परिधि यानी माँ – बाप परिजनों ने अपना मंत्र फूँकना शुरू किया उसकी आँखों में अपनी प्रतिमाएं और रिश्ते जड़ना, मुंह में अपनी संस्कृति के कौर डालना सामजिक मूल्यों की गंध से उसे भर देना और अपने स्पर्श से उसकी स्वर्णिम आभा को लोहे की जड मूर्ति के रूप में ढालना शुरू कर दिया कुदरत का वैश्विक आनद सुखदुख की सीमाओं में सिमट गया हवा की तरह बहती आत्मा अहंकार के खूँटे से बंध गयी नाम- धाम- संपत्ति- प्रतिष्ठा के लिए लाचार बन गयी ........................................... अरुण

छेद -वास्तविक, पर सच नही

कागज के पन्ने के बीच एक छेद हो जाए तो वहाँ से कागज के पीछे की जमीन देखी जा सकती है छेद एक वास्तविकता तो है पर छेद का अपना कोई अस्तित्व नही मन भी एक गहरी वास्तविकता है पर उसका अपना कोई अस्तित्व नही मन की वास्तविकता पर मनोविज्ञान खड़ा है पर भौतिकशास्त्र को मन दिखाई ही नही देता .............................. ............. अरुण

सत्य-बोध कोई निष्कर्ष नही

जो जब, जहाँ, जैसा है वैसा ही देख लेना निष्कर्ष-विहीन बोध है जो जब जहाँ जैसा है वैसा न देखते हुए किसी निष्कर्ष तक पहुँचने की जल्दीबाजी करना प्रवृति है ज्ञानार्थियों की ..................................... अरुण