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Showing posts from March, 2015

रुबाई

रुबाई ******* ज़र्रा ज़र्रा है जुदा ना मलकियत उनकी अलग फिर करोड़ों में मेरी ये शख़्सियत कैसे अलग? यह उतारा दिल में जिसने सच्चा बुनियादी सवाल देखता ख़ुद में खुदाई ना खुदा जिससे अलग - अरुण

तीन रुबाईयां

रुबाई १ ******* हकीकत को  नजरअंदाज करना ही नशा है असल में होश खोता आदमी ही....दुर्दशा है तरीके मानसिक सब,...होश खोने के यहांपर ललक भी कम नही, बेहोश होना ही नशा है - अरुण रुबाई २ ******* बैसाखी के बल लँगड़ा ...चल पाता है अंधा हर हांथ का भरोसा..कर लेता है होश को चलना नही होता..ये अच्छा है बिन चले जागी निगाहों से पहुँच जाता है - अरुण रुबाई ३ ******* ये बस्ती ये जमघट हैं सुनसान मेले सभी रह रहे साथ.. फिर भी अकेले जुड़े दिख रहे.....बाहरी आवरण ही परंतु..ह्रदय धाग .... ......टूटे उधेडे - अरुण

६ रुबाईयां

रुबाई १ ****** हांथ वक्त का थामा तो माजी में ले जाता है वक़्त का सरोकार... जिंदगी से हट जाता है जिंदगी की साँस में सांसे मिलाओ ओ' जिओ देख लो कैसा मज़ा जीने का... फिर आता है - अरुण रुबाई २ ******* बूंद चाहें कुछ भी कर लें ना समंदर जान पाएं खुद समंदर हो सकें जब लहर में गोता लगाएं जाननेसे कित्ना अच्छा ! जान बन जाना किसीकी एक हो जाना समझना एक क्षण सारी दिशाएं - अरुण रुबाई ३ ***** तार छिड़ते.....वेदना से गीत झरता है विरह के उपरांत ही मनमीत मिलता है प्रेम शब्दों में नही...संवेदनामय दर्द है आर्तता सुन प्रार्थना की देव फलता है - अरुण रुबाई ४ ******* हरारत जिंदगी की सासों को छू जाती है लफ़्ज़ों में पकड़ो, बाहर निकल जाती है लफ़्ज़ों को न हासिल है ये जिंदगी कभी जिंदगी दार्शनिकों को न समझ आती है - अरुण रुबाई ५ ****** दूसरों के साथ रहो...नाम पहनना होगा किसी भाष को जुबान पे ..रखना होगा जिसका न कोई नाम भाषा, उस अज्ञेय को भीतर शांत  गुफ़ाओं में ही जनना होगा - अरुण रुबाई ६ ******* पत्ते फड़फड़ाते हैं ......डोल रही हैं डालियाँ किसने उकसाया हवा को ? लेने अं

आठ रुबाईयां

आठ रुबाईयां ************** रुबाई १ ****** प्यार में गिरना कहो ....या मोह में गिरना कहो इस अदा को बेमुर्रवत .....नींद में चलना कहो नींद आड़ी राह ..जिसपर पाँव रखना है सरल जागना चलना ना कह, उसे शून्य में रहना कहो - अरुण रुबाई २ ****** जिंदगी द्वार खटखटाती, हाज़िर नही है टहलता घर से दूऽऽऽर, ..हाज़िर नही है ख़याली शहर गलियों में भटकता चित्त यह जहांपर पाँव रखा है वहाँ  हाज़िर नही है - अरुण रुबाई ३ ***** कुदरत ने जिलाया मन. ..जीने के लिए होता  इस्तेमाल मगर......सोने के लिए जगा है नींद-ओ- ख़्वाबों का शहर सबमें मानो जिंदगी बेताब हुई....मरने के लिए - अरुण रुबाई ४ ****** खरा इंसान तो इस देह के.. अंदर ही रहता है वहीं से भाव का संगीत मन का तार बजता है जगत केवल हुई मैफिल जहाँ संगीत मायावी सतत स्वरनाद होता है महज़ संवाद चलता है - अरुण रुबाई ५ ***** बाहर से मिल रही है ..पंडित को जानकारी अंदर उठे अचानक.......होऽती  सयानदारी इक हो रही इकट्ठा........दुज प्रस्फुटित हुई यह कोशिशों से हासिल, वह बोध ने सवारी - अरुण रुबाई ६ ******* 'जो चलता है चलाता है उसे कोई'