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Showing posts from November, 2010

जिंदगी की लम्बाई......

जिंदगी की लम्बाई चौड़ाई, ऊंचाई और गहराई क्षण या साँस की लम्बाई चौड़ाई, ऊंचाई और गहराई से अधिक नही यह तो आदमी की याददास्त का आंगन है जिसमें जिंदगी दिन, सप्ताह, वर्ष, दशक, शतक और युगों के पैमाने में फैलती दिखती है ................................................, अरुण

मन एक भूमिका अनेक

रंगमंच पर एक ही पात्र एक साथ अनेक भूमिकाएं इस सटीक ढंग से निभाता है कि लगता है - कई पात्र मिलकर विभिन्न भूमिकाएं कर रहें है दर्शक भी इतने रम जातें हैं कि उन्हें प्रतीत होता है कि मानो रंगमंच पर कई पात्र साकार हो चुके है मन भी इसीतरह का ‘ एक पात्र और बहुभूमिका ’ वाला नाटक है मन के इस नाटक में अभिनेता-दर्शक (दोनों एक ही यानी मन ) इस सच्चाई से बेखबर हैं कि वही एक (स्वयं) अनेक भूमिकाएं निभा रहा है ....................................... अरुण अब कुछ दिन विराम

नैतिक मूल्यों में गिरावट

ऐसी गिरावट के एक नमुने के रूप में, किसी राजनीतिक पार्टी द्वारा किए गये कुछ ऐसे बयान आजकल भारत में पढने-सुनने को मिलते हैं -- “ हमारी पार्टी आपके पार्टी जैसी भ्रष्ट नही है. यह ईमानदार लोगों की पार्टी है हमारे यहाँ अगर कोई मिनिस्टर अपने रिश्तेदारों में सार्वजनिक जमीन गलती से बाँट भी देता है तो यह बात सार्वजिक तौर पर उजागर होने पर, उनसे वापस लेकर जनता को लौटा भी देता है. आपके पार्टी के मिनिस्टर जैसा नही कि खाए और डकार जाए ” ........................................... अरुण

दृष्टिमय बोध

संसार की हर वस्तु, तथ्य, दृश्य, या प्रक्रिया का वर्णन किया जा सकता है परन्तु हर वर्णन के बाद भी कुछ अवर्णित ( unexplained) शेष बचता ही है और इसीलिए कहते हैं कि वर्णन हमेशा अधूरा है अतः जरूरत है इस अधूरेपन को भी देख सके उस दृष्टि की, केवल वर्णन की नही ........ वर्णन करना काम है विज्ञान का अधूरे के साथ साथ पूरे को देख सकना काम है दृष्टिमय बोध का इस दृष्टिमय बोध के अभाव के कारण ही सदियों से सच समझाना जारी है और कभी भी पूरा नही हो पा रहा ......................................... अरुण

दुहराता वही शेर

अपनी ही हर खुशी से परेशां हैं सारे लोग किसको खुशी कहें , हर दिल में हो तलाश अँधेरा काट लेगा, डर के न भागो यारों इसी जगह पे छुपा है, रौशनी का चिराग सवाल उठने से पहले जबाब हाजिर हो ऐसे माहोल में नयी सोच नही बन पाती जहाँ खिला है फूल खुश है जिंदगी पाकर पिरोके माला में मौत उसे मत देना महलों को गरीबी में सादगी दिखती गरीबी में ख्वाब उठते हैं महलों के अँधेरा–ओ-उजाला, बेखुदी-ओ-होशियारी दोनों ने नही देखा एक-दूजे को ................................................. अरुण

आज का तीसरा शेर

अँधेरा–ओ-उजाला, बेखुदी-ओ-होशियारी लफ्ज दोनों साथ, न ताल्लुक बीच में ................................................. अरुण

आज के दो शेर

जहाँ खिला है वहाँ खुश है जिंदगी पाकर पिरोके माला में फूल, उसे मौत न दे .............. अच्छा है, गर महलों को गरीबी में सादगी दिखती और दिखते गरीबों को महलों के ख्वाब ................................................. अरुण

आज का शेर

सवाल उठने से पहले जबाब हाजिर हो ऐसा माहोल गुलामों के लिए अच्छा है ................................................. अरुण

एक शेर

अँधेरा काट लेगा, डर है ?- न भागो यारों इसी जगह पे छुपा है, रौशनी का चिराग ................................................. अरुण

एक शेर

अपनी ही हर खुशी से परेशां हैं सारे लोग किसको खुशी कहें , हर दिल में हो तलाश .................................................. अरुण

सारा अस्तित्व एक का एक

सारा अस्तित्व एक का एक है कहीं कोई भेद नही, कोई टुकड़ा नही मेरा अस्तित्व अलग और तेरा अलग - ऐसा भी नही कुदरत स्वयं को जिस दृष्टि से देखती है उसी दृष्टि से देखने पर सारा अस्तित्व क्या है यह समझ आता है ......... टुकड़ों में जो दिखे – कैसा वजूद? मेरा वजूद, तेरा वजूद, उसका वजूद? कुदरत को जिस तरह से दिखे, वैसा दिखे वही सच्चा है- तेरा और मेरा, सबका वजूद ................................................ अरुण

एक निर्बोझ जीवन-प्रवाह

ठीक से देखना बने तो दिखे कि बाहर, पेड की छाया बनती है, बनायीं नही जाती पेड उगता है, उगाया नही जाता धरती चलती है, चलाई नही जाती ऐसे ही भीतर, साँस चलती है चलाई नही जाती धडकन चलती है चलाई नही जाती विचार भी चलते हैं, चलाए नही जाते चलानेवाले के बिना ही सबकुछ चल रहा है चलानेवाला है ही नही और सब हो रहा है इस सच्चाई से जुडी जीवन्तता ही है एक निर्बोझ जीवन-प्रवाह ..................................... अरुण

आनंद जिंदगी के बहाव में

किनारे खड़ा आदमी अगर बहती नदी के बहाव को देखकर प्रसन्न है तो मतलब प्रसन्नता बहाव के कारण है केवल जल के कारण नही ऐसे आदमी को संग्रहित जल, बहाव का आनंद नही दे सकता जिंदगी का आनंद भी उसके बहाव में है अनुभवों के संग्रह में नही ......................................... अरुण

कुछ अजीबसी अटपटी अभिव्यक्ति

करने वाला हो तो वह कुछ करेगा ही ‘ कुछ नही करना ’ भी करने के बराबर ही है करते करते जब उसने खुद को गहराई और व्यापकता से देखना शुरू किया वह खुद ‘ देखना ’ बन गया फिर कुछ करने का सवाल ही कहाँ? देखना ही- देखने को- देखता रहा करनेवाला अपने देखने के साथ दिखता रहा पहले था केवल करना करना करना अब है केवल देखना देखना देखना ................................................... अरुण

क्या यह सब किसी ‘महान शक्ति’ का परिचायक है?

भारत के सही प्रतिनिधित्व का दावा करनेवाला समस्त भारतीय मीडिया गये दो दिन केवल इस बात को लेकर परेशान था कि बराक ओबामा साहब पाकिस्तान को हमारे समर्थन में कुछ सुनाते क्यों नही ?- पाकिस्तान के नाम पर चुप्पी क्यों साधे हुए है? गहरे में सोचा जाए तो कहीं न कहीं हमारे भीतर से मानसिक गरीबी और लाचारी की गंध आ रही थी सामने का पक्ष (अमेरिका) खुले तौर पर बिना किसी ढकोसले के, समान धरातल पर खड़े होकर, हमारा आर्थिक सहयोग मांग रहा था फिर भी, हमसे सौदे की पेशकश करने वाले इस ‘ मित्र-सौदागर ’ से सौदा करने के बजाय (यानी हाँ या ना करने के बजाय ) हम उससे कह रहे थे पहले कुछ आँसू जतलाइए और फिर बात होगी सामने का पक्ष भारत को दुनिया की महान शक्ति कह कर संबोधित कर रहा था (दिल से हो या मतलब से) और हम एक लाचार की तरह उससे सहानुभूति की मांग कर रहे थे क्या यह सब किसी ‘ महान शक्ति ’ का परिचायक है? ...................................................................... अरुण

स्मृति को रोग विस्मृति का

बीते क्षणों, दिनों और वर्षों की गठडी स्मृति के रूप में बन गई एक सजीव पुतला हर नूतन क्षण, दिन और वर्ष को पुरातन बनाती हर नए जागे को पुराने में सुलाती और सोये हुए को ही मौत के पूर्ण विराम तक ले जाती लहर को कभी भी सागर न बनने देती किरण में न सूर्य को उभरने देती स्मृति की इस गठडी को विस्मरण हुआ सारे समस्त सकल अस्तित्व का अपने ही अस्तित्व में डूब जाने के कारण ........................................... अरुण

दृष्टिवानो को चुनना नही पडता

दृष्टि यदि साफ हो और सामने फैला प्रकाश हो तो रास्ता चुनना नही पडता कदम सही रास्ते पर पड़ते हैं अपने आप कोई निर्णय लेना नही पडता न ही गलती से बचने की किसी जिम्मेदारी का बोझ ढोना पडता है ये सारी बातें कि क्या सही, क्या गलत, कौन सा अपना कौन सा पराया – केवल दृष्टिविहीनों के लिए हैं दृष्टिवानो के लिए नही ...................................... अरुण

यात्रा नही केवल यातायात

जीवन की यात्रा अजीब है यहाँ आदमी अपनी ही जगह खड़ा है और रास्ता पीछे की तरफ ढल रहा है आदमी को लगता है कि उसने एक लंबी दूरी पार कर ली हिसाब बताता है कि कदम अभी वहीं के वहीँ खड़े है यह यात्रा नही केवल यातायात है ........................... अरुण

बेहोश-होश

नींद में गाड़ी चलाना जो उसे आता है बिन टकराए रास्तों से गुजर जाता है -बात ट्रक चालक की हो रही है कई बार ऐसा होता है रात को जागकर गाड़ी चलाते चलाते भोर में अचानक झपकी लग जाती है इसी झपकी में ट्रक-चालक मीलों तक बिना कहीं टकराए ट्रक को हांककर ले जाता है ऐसी अर्ध-निद्रावस्था में भी शरीर बिना त्रुटि काम करता है कहीं, इसी तरह के बेहोश-होश में तो हम सब नही जी रहे ? यानी Not living, just managing the life पूर्ण होश ही जागरण है सच्चे प्रकाश का आगमन है .................................................. अरुण

एक सम्यक दीपक जल उठे

क्या ही अच्छा हो कि एक ऐसा सम्यक दीपक जल उठे सभी के जीवन में जो अँधेरा भी मिटाए और उजाले की चकाचौंध भी कष्ट से छुटकारा दे और सुख पाए हुए को समाधान .................................... अरुण

सब मुश्किल बन जाता

अच्छा है जो मेरी सांसे मेरे प्राण, मेरी धड़कने मुझसे पुछ कर नही चलती वरना विचारों के तल पर मै जिस तरह फडफडा रहा हूँ शरीर के तल पर भी फडफडाता रहता उठना बैठना चलना फिरना सब मुश्किल बन जाता .......................... अरुण

और अब सब अलग अलग

सारी कहानी एक ही जीवंत क्षण में घट रही है सूरज है, किरणें हैं, धूप है गर्मी है, है पसीना है पसीने की नमी का बदन को छूता स्पर्श सूरज से लेकर उस स्पर्श और उसके भी आगे का सारा अनुभव एक ही क्षण में भीतर के खालीपन को छूता है पर जैसे ही उस खालीपन में देखनेवाला उभर आता है सारी बातें बट जाती हैं सूरज अलग, किरणे अलग, धूप भी कहीं दूर अलग और पसीने का अनुभव भी अलग ही अलग पहले एक का एक और अब सब अलग अलग ....................................... अरुण

विचार बहुत शरारती हैं

विचार बहुत शरारती हैं आदमी में बोध या जागरण का भ्रम जगाते हैं अपनी नकली दुनिया में ही आदमी को उलझाये हुए, उसमें मुक्ति का आकर्षण पैदा करतें हैं फिर विचारों के रसायन से बना यह मन मन ही मन मुक्ति ढूँढने लगता है मुक्ति तो पाता नही मुक्ति की लालसा में उलझे हुए आदमी को कई बाबाओं, ग्रंथों, क्रियाकलापों और उपायों – तंत्र मंत्र आदि की दुनिया में भटकाता है ........................................... अरुण