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Showing posts from 2009

दो शेर

इतना न प्यार दो कि आदत जकड़े घर के बाहर है बड़ी जिद्दोजहद ख़ुशी जाहिर करो मगर बेइन्तिहाँ न करो दिल टूटेंगे उनके जो ग़मगीन बैठे हैं ........................................... अरुण

निजी खोज जरूरी है

ये भीड़ उन लोगों की ही जो अपनी निजी 'प्यास' का समाधान ढूंढ़ नही पाए पर ये जान कर कि इर्दगिर्द भी लोगों में ऐसी ही 'प्यास' है इकठ्ठा हुए, 'प्यास' का उपाय ढूँढने में जुट गए, कई सार्वजानिक तरकीबें इजाद की, मंदिर बने, पोथियाँ लिखी- पढ़ी गईं , पूजा पाठ प्रवचन,भजन पूजन ऐसा ही सबकुछ और अब यही सब..... मानो 'प्यास' बुझाने के तरीकें मिल गएँ हों पर सच तो यह है कि निजी 'प्यास' अभी भी बनी हुई है क्योंकि निजी खोज शुरू ही नही होती ...................................... अरुण

दुनिया बदल रहा हूँ .....

दुनिया बदल रहा हूँ खुद को बदल न पाया होगा तभी बदल जब खोए जगत की छाया जेहन है छाया जगत की जिस्म के भीतर .................. माटी न बांधती है किसी को यहाँ मगर हम ही बंधे उसे, वो तो अजाद है मेरी- तेरी कह के, हमने बाँट दी सारी जमीं ................ कागज पे लिख रही है कलम लफ्ज ए जेहन कागज को सिर्फ स्याही का आता सवाद है कागज न जाने. न जाने दिमाग - लिखा क्या है उसपे? ................................................. अरुण

खोज अन्तस्थ की

खोज की तरफ आँखों को ले आता है गुरु गुरु को छोड़े बिना खोज होती नही शुरू खोज के लिए गुरु साधक, पर खोज में गुरु अड़चन ..................... जितना बढे सहवास ढलता है सुवास जितना बढे सानिध्य प्रकटे सार सार सहवास संसार से, सानिध्य अन्तस्थ से ............. श्रद्धा से यात्रा शुरू हो पाती है विवेक से निखर निखर आती है अन्तस्थ की यात्रा में श्रद्धा एवं विवेक दोनों जरुरी ............................................................. अरुण

तीन पंक्तियों में संवाद

नफरत निभाई जाती है संग दोस्त के जिससे हो वास्ता उसी से हो सके घृणा भावना का विश्व है बड़ा पेचीदा ..................... मन न कभी मन को मिटा पाया कलम न कभी लिखे को मिटा पाई मन ही मन रचे समाधानों से काम चल जाता है ........................ अभी ईश्वर को जानने की जल्दी नही है 'हाँ, मै उसे मानता हूँ' - ये ख्याल ही ईश्वर सा है इसीलिए खोजी कम और आस्तिक बहुत हैं ......................................................... अरुण

तीन पंक्तियों में संवाद

पेड़ का फल -फूल की सुरभि बुद्धि का फल, प्रेम की सुरभि हम पकड़ते हैं फल, सुरभि पकड़ती है हमें ........... हम तो सोये हुए- जागते भी, सोते भी सोये हैं विचारों में, सोये हैं सपनों में जागना अभी बाकी है असली सच्चाई में ............. ये आसमाँ और ये धरती देह से अलग कहाँ? भेद है दृष्टि में, अस्तित्व में कहाँ ? ................................................ अरुण

तीन पंक्तियों में संवाद

विरासत में पाई हुई दुकान चलाने वाले तुने दुकान भरी पाई है, पहले दिन से नयी नजर तो 'नया'- नया, विरासती तो 'पुराना'- नया ................. दुनिया के बदस्तूर बर्ताव किए जाते हैं सुकून न सही, इज्जत तो मिलेगी दुनिया के सभी दस्तूर भाते नही ....................... शब्द में अर्थ लपेटूं तो लपेटूं कैसे शब्द तो लेबल है चादर नही ऐसे लेबलों से सच बयां नही होता ................................................... अरुण

तीन पंक्तियों में संवाद

विरासत में पाई हुई दुकान चलाने वाले तुने दुकान भरी पाई है, पहले दिन से नयी नजर तो 'नया'- नया, विरासती तो 'पुराना'- नया ................. दुनिया के बदस्तूर बर्ताव किए जाते हैं सुकून न सही, इज्जत तो मिलेगी दुनिया के सभी दस्तूर भाते नही ....................... शब्द में अर्थ लपेटूं तो लपेटूं कैसे शब्द तो लेबल है चादर नही ऐसे लेबलों से सच बयां नही होता ................................................... अरुण

तीन पंक्तियों में संवाद

खिलाकर मिर्च पूरी, मुंह जलातें हैं बचा चयन न कोई, अब सिवा पानी के परंपरा के बंधन हों तो विकल्प नही होते ............... दुख को जगाता सुख, दुख को दबाता सुख दो किस्म के सुखों में ये जिंदगी कटी पर पाया नही ऐसा जिसे दुख न नापता .................. निकले थे यात्रा पर, चक्के के ऊपर हम पता नही कब कैसे चक्के में आ अटके मन में अटके को जिंदगी- परेशानी ................................................. अरुण

तीन पंक्तियों में संवाद

हंसते रोते सब तजुर्बे काम आये सब में 'मै' ने ढूंढ़ ली अपनी महत्ता राख में भी उठ खड़ा होता है 'मै' .................... 'छोड़ अपने मोह'- ये सीख पूरी भा गई कैसे छोड़े मोह इसकी फिक्र जारी हो गई अब नया सवाल- 'इस फिक्र से कैसे बचूं ?' ...................... जाना नही सगे को बरसों से साथ रहते वह अपनी सोचता था, मै अपने में ही खोया 'कौन रोता है किसी और के खातिर ऐ दोस्त...' ............................................................... अरुण

तीन पंक्तियों में संवाद

हाल पूछते हो, बतला न सकूँगा हाल हर पल में है अलेहदा जबाब आने तक बात बदल जाती है ........... तर्क के तीर काम आ सकते हैं मगर तीरअन्दाज की नजर हो चौकन्नी तर्क का यन्त्र चले समझ की हाथों से .............. ये, कुदरत में खुद को घोलकर, कुदरत को बूझता वो, हिस्सों में बाँट बाँट के कुदरत को जाँचता दोनों ही खोज, विद्या अलग अलग ......................................................... अरुण

तीन पंक्तियों में संवाद

अच्छों- बुरों से सोहबत तो कर के देख ली बदनाम ही बचे थे जिनको न मिल सका शायद उन्ही में होगा कोई रहनुमा मेरा ........... किसीको पाना हो कोशिशों पे चढ़ जाना किसी का हो लेना आसमाँ से गिर जाना खुद का बोझा छोड़ते राजी हो हर बात .............. शब्द सारे खोखले हैं उनसे पूछो तो दिखाते अंगुली केवल शब्दों के कई घाट, अर्थों का केवल एक प्रवाह -जीवन प्रवाह ..................................................... अरुण

आजादी के साठ साल बाद भी .....

साठ बरस से पिंजड़े का बस द्वार खुला है बिन पंखों का पंछी उसमे पड़ा हुआ है यहाँ गरीबी गाना गाये आजादी के हर दिन हर पल डगर चले जो बर्बादी के बेकारी से हाँथ युवा का सडा हुआ है साठ बरस से .... 1 हर मजहब से ऊंचा उठकर संविधान है दो मजहब के बीच द्वेष का ही विधान है धर्म यहाँ सर पर सवार बन खड़ा हुआ है साठ बरस से .... 2 भेदभाव के बैरी बस सदभाव भेदते 'अंतर' को अलगावभरे स्वर आज छेदते हर दिवार पर नारा कोई जड़ा हुआ है साठ बरस से .... 3 रोज किसी का स्मरण किसी का जनम मनाते आदर्शों पर चलने की बस टेप बजाते कार्यक्रमों से इन्ही देश यह जुड़ा हुआ है साठ बरस से .... 4 रटे रटाये भाषण से हम ऊब चुके हैं ऊँची ऊँची बातों में हम डूब चुके हैं कड़े परिश्रम का नारा बस कड़ा हुआ है साठ बरस से ... 5 साठ बरस से पिंजड़े का बस द्वार खुला है बिन पंखों का पंछी उसमे पड़ा हुआ है (यह कविता आजादी के ४० साल पूरे होने पर लिखी गई थी. मुखड़े में 'चार दशक से ... ' की जगह 'साठ साल से.... ' इतनाही परिवर्तन किया गया है.) ............................................................... अरुण

तीन पंक्तियों में संवाद

एक गाँधी ने दिलाई एक आजादी अब उसे मिल बाँटते हैं कई गाँधी 'अनशन.. परिस्थिति विकराल.. तेलंगना स्वीकार' ........... सच नहीं कोशिश कुई, साहस है पूरा एक सच ने उसको थामना जो झूठ से लेता छलांग कोशिश असत्य से टूटने की हो, सत्य से तो जुड़े ही हैं ............ भोर,सुबह, दोपहर और शाम क्या? रात क्या?- बढ़ते घटते सूर्य के परिणाम ये बातें परस्पर विरोधी नहीं - डिग्री का फर्क है .............................................. अरुण

तीन पंक्तियों में संवाद

जीवन में दो और दो चार नहीं होते जो समझ से जीते हैं बेजार नहीं होते दीवारें चार- जेल की, तो घर की भी ------------ बात सर से सर लगा के करो, टकराएगी दिल से दिल लगा के करो, पहुँच जाएगी लफ्जों की कश्तियों से बातें पहुँच ना पाती ------------- कुई छोटा बड़ा कोई, हकीकत है भुलाएँ क्यों दिलों से दिल मिले हों तो बराबर के सभी रिश्ते 'मायनीओरीटी' जुबां पे आते हम चूक गए ....................................................... अरुण

तीन पंक्तियों में संवाद

चंद सामान से गुजारा करने वाले अच्छी हालत में बसेरा करने वाले आंसुओं की नमी में कोई फर्क नहीं --------------- सुबह को आना हो तो कहाँ आएगी रात ठहरी है हरेक के घर में जलता तो होगा कहीं चिरागे उम्मीद ................................................ अरुण

एक चिंतन

खुली सड़क पर दौड़ती कार में बैठकर कार की गति को महसूस किया जाता है . हवा का दबाव, उसकी मार, पीछे दौड़ते मालूम पड़ते पेड़ों की गति .... सब मिलकर कार की गति का अनुभव करा देतें हैं. इसके लिये स्पीडो मीटर देखना जरूरी नहीं. मान लीजिए यदि किसी कारण/गलती से स्पीडो मीटर यह संकेत दे की कार 'चल नहीं रही' तो क्या हम इसे स्वीकार कर लेंगे? स्पीडो मीटर गति का सही सही आंकड़ा जानने के लिये है. वह गति का एकमेव प्रमाण नहीं है. सारे तर्क, विश्लेषण, मापन, गणन, बुद्धि के मित्र है. बुद्धि के समाधान के लिये होतें है. उनका भी अपना विशेष महत्व है. ज्ञान में छुपे व्यक्तिनिष्ठता के प्रभाव को हटा कर वस्तुनिष्ठ निष्कर्षों तक पहुँचाने में वे सहायक होते है. परन्तु रहस्य-दृष्टा पूर्णनिष्ठतासे जगत को देखता है. उसके देखने में देखने वाला एवं दिखने वाला, दोनों का एकसाथ एवं एकही क्षण अंतर्भाव है. इसीलिये जिस सुख दुःख को लेकर दुनिया में इतना उहा पोह होता दिखता है, मनस वैज्ञानिक भी इतना विश्लेषण करते दिखते हैं , रहस्य-ज्ञाता की दृष्टी में (अनुमान, तर्क या मत में नहीं ) सुख दुःख का कोई अस्तित्व ही नहीं है. वह तो म

एक चिंतन

लोगों को सुखी कैसे रख्खा जाये? -इसपर सभी समाज एवं अर्थ विचारकों ने सोचा है लोगों के मन में सुख दुःख सम्बन्धी भावनाएं कब और क्यों उभरती है? - इसका उत्तर मनोवैज्ञानिक देता है लोगों के सुख दुःख को लेकर किसने क्या कहा? -इसे दार्शनिक खोजता एवं बताता है सुख दुःख का परमअस्तित्व में क्या स्थान है ? - इसे रहस्य-दृष्टा अपने में एवं अपने समाजी संबधो के भीतर झांक कर प्रति क्षण देखता रहता है ................................................................................. अरुण

कुछ शेर

नग्मा- ए- इश्क में भी तल्लीनता अजीब दिल से पढ़ने पे दिख जाती है रूह अपनी सांसे तो सब की ही तरोताजा हैं भीड़ में आते रिवायात महक उठती है अगले पल को बतलाना नामुमकिन, पर किया करते कई इसका ही कारोबार ............................. अरुण

कुछ सांकेतिक शेर

जिंदगी से मै बहोत नाशाद हूँ जितना चाहूँ उतना वह देती नहीं (सांसारिकता में उलझे मन का निराश होना लाजमी है. इच्छाएं बढ़ती ही जाती हैं जिससे मन सदा अतृप्त है ) अँधेरे से नहीं बातें करना ऐ उजाले तेरी हर बात अँधेरे में बदल जाएगी (सिद्ध के संवाद सांसारिक मन को समझ नहीं आते. सिद्ध की सारी बातों को मन अपना आशय जोड़कर समझना चाहता है ) .................................................................................... अरुण

कुछ सांकेतिक शेर

भुला दिया हो मगर मिट न सकेगा हमसे जो मिटाना है उसे भूल नहीं पाते हम (अस्तिव जिसके हम अभिन्न हिस्से हैं उसे भले ही हम भूले हुए हों पर उसे हम कभी मिटा नहीं सकते. परन्तु जिसको दिमाग ने रचा है, वह हमारा व्यक्तित्व, हमें मिटाना तो है पर उसको हम किसी भी तरह भूल नहीं पाते.) जहन ने देखा नहीं फिर भी बयां कर देता दिल ने देखा है, जुबां पास नहीं कहने को (अन्तस्थ को मन देख नहीं पाता पर बुद्धि के सहारे शब्दों में अभिव्यक्त करता है जब कि भीतरी अनुभूति अन्तस्थ को पूरी तरह छूती है फिर भी अभिव्यक्ति का कोई भी साधन उसके पास नहीं है.) नहीं आँखों ने सुना और दिखा कानों से दिल से छूना हो जिसे धरना नहीं हाथों से (अन्तस्थ को अंतःकरण से ही जाना जा सकता है मन से नहीं देखा जा सकता. ठीक उसी तरह जैसे आँखों से सुना नहीं जा सकता एवं कानो से देखा नहीं जाता. जिसे अंतःकरण ही देख सकता है उसे मन से पकड़ने का प्रयास व्यर्थ है .) ....................................................अरुण

कोई भूल हुई हो शायद ...

उत्क्रांति के पथ पर आदमी के मस्तिष्क-रचना में कोई भूल हुई हो शायद यही कारण है कि उसकी सभी मानसिक परेशानियाँ अवास्तविक हैं उनके कारण समझे बिना ही वह झूठे इलाजों की तरफ दौड़ पड़ता है सपनों में ही डूबकर इच्छाएं जगाता है सपने में ही अपने ध्येय चुनता है स्वास्थ्य, शिक्षा और आर्थिक तथा तकनीकी उन्नति के लिये चलने वाले उसके प्रयास तो समझ आते हैं इस दिशा में तरक्की की क्षमता भी अजब की है उसके पास... इन सब के बावजूद उसके भीतर भय, चिंता एवं असुरक्षा है मानवीय समस्याएँ हल करने में वह विफल रहा है किन्ही लोगों से दूर जाता हुआ अपनो को पास लाता दिखता है ऐसे भय आधारित संगठन हेतु प्रेम एवं सहयोग की भाषा बोलता है जाने अनजाने किसी की बर्बादी पर ही खुद को आबाद करता है अन्दर झांके बिना ही बाहर पसरना चाहता है अशांति की चिनगारी भीतर दबाये शांति की तलाश में है अपनी अलग पहचान बनाने की होड़ में अपनी असली पहचान खो बैठा है यह आदमी ........ उसकी उत्क्रांति प्रक्रिया में कोई भूल हुई हो शायद ........................................................ अरुण

एक सोच

चाँद ही की तरह दूसरे ग्रहों पर भी देशों के झंडे गड़ेंगे और फिर यहाँ जैसे ही वहाँ पर भी युद्ध एवं अशांति के बीज पड़ेंगे ...................... अरुण

रुबाई

पांव के नीचे जमीं को मैंने देखा ही नहीं दर्द के भीतर उतरकर मैंने देखा ही नहीं मै तो दौड़े जा रहा था वक्त का रहगीर बन हर कदम आलम मुसल्लम मैंने देखा ही नहीं ..................................... अरुण

एक रूमानी ख़याल

यूँ ही बाँहों में सम्हालो कि सहर होने तक धडकनें दिल की उलझ जाएँ गुफ्तगुं कर लें जुबां से कुछ न कहें रूह भरी आँखों में डूबकर वक्त को खामोश बेअसर कर लें जुनूने इश्क में बेहोश और गरम सांसे फजा की छाँव में अपनी जवां महक भर लें बेखुदी रात की तनहाइयों से यूं लिपटे बेखतर दिल हो, सुबह हो तो बेखबर कर लें ..................................... अरुण

दो शेर

अच्छों से और बुरों से दोनों से करे संग कोई भी रंग आसमाँ पे चढ़ता नहीं उलझना हो दुनिया में तो ऐसे उलझो जैसे कि परिंदों से आसमाँ उलझे .......................................... अरुण

एक सवाल भगवान से ...

मालूम न था भगवान इतने बेरहम होगे.. मौत का बख्शीस एक मासूम को दोगे? ऊबनेवालों को जीने का जहर दोगे जिंदगी में खेलने वाला उठा लोगे? शाख से गिरकर जो माटी चूमना चाहे उस लुड्कते फूल को तुम उम्र दे दोगे शाख पे खिलकर जो मौसम को सजा देगी उस कली को तोड़ माटी में मिला दोगे? दुआ करते हो सुनते हैं क्या दुआ दोगे किसीको जिंदगी देकर तुरत ही मौत दे दोगे? तो आखिर कबतलक मनहूस रोती जिंदगी दोगे मौत के डर से सिहरती जिंदगी दोगे? ................................................. अरुण

कुछ शेर

खुद में ही डूब जाए खुद ही से हस पड़े मस्ती भरा है उसको पागल न जानना घाव ढक दे ऐसा मरहम, घाव भर दे ऐसा मरहम कौनसा तेरे लिए खुद फैसला करना जीता हूँ जिंदगी मै चेहरे बदल बदल कर असली शकल का मुझको कोई पता नहीं .................................................. अरुण

कुछ शेर

हटा जब मोह बाहर का, खुले इक द्वार भीतर में पुकारे खोज को कहकर- यहाँ से बढ़, यहाँ से बढ़ भरी ज्वानी में जिसको जानना हो मौत का बरहक* उसी को सत्य जीवन का समझना हो सके आसाँ जिसम पूरी तरह से जानने पर रूह खिलती है 'कंवल खिलता है कीचड में' - कहावत का यही मतलब ख़याल भरी आँखों से मै दुनिया देखूं दुनिया दिखे ख़यालों जैसी अँधेरे से नहीं बैर रौशनी का कुई दोनों मिलते हैं तो रौनक सी पसर जाती है बरहक = सत्य, * सिद्धार्थ (भगवान बुद्ध) के बारे में ................................................................... अरुण

कुछ शेर

कुछ शेर

उसी की खोज सही जो कि नहीं पास अरुण अपनी सांसो को, धडकनों को, खोजते न फिरो लिखाकर नाम तख्तियों पे, दावे नहीं करते ये तो तख्तियां हैं - नाम बदलती रहती हैं चाँद पे पांव धरा तो लगा हसरत पूरी बंदा बेसब्र अब, करता वहाँ पानी की तलाश ........................................................अरुण

एक गजल, कुछ शेर

किसने जाना था बदल जाएगा ये वक्त का नूर छोड़ के जाना पड़ेगा तेरी सोहबत का सुरूर चन्द लम्हों की मुलाकात का जादू कैसा जिंदगीभर उन्ही लम्हों का किया करते गुरुर इश्क में जारी रहे सिलसिला गुनाहों का ये अहम बात नहीं किसने किया पहला कसूर दिन गुजरते हैं तो यूँ घाव भी भर जाते हैं फिर भी रह जाते हैं हर हल में कुछ दाग जरूर वक्त के साथ बदलनी है तो बदले हर बात जो गई बीत उसे कौन बदल पाए हुजुर ....................................................... अरुण कुछ शेर हवा ओ आग पानी और धरती आसमां सारे मै हूँ चौराहा जहाँ से सब गुजरते हैं दुनिया है खेल जिसमें जीता नहीं कोई देखी है हार सब ने अपनी अपनी जंगे जहन का शोर बाहर भी फैलता जंग थम जाए तो बाहर भी सुकून .............................................. अरुण

एक गजल

एक गजल

कुछ साँस ले रहे हैं ज़माने के वास्ते कुछ मेहरबां बने हैं ज़माने से सीखकर जो खुद को देख लेता है गैरों की शक्ल में गैरों को जान देता है अपनी निकालकर जिसके लिए बदन हो किराये का इक मकान उसको न चाहिए कोई चादर मजार पर उस साधू को कौन सराहेगा मेरे यार जिस साधू का मोल न हो राजद्वार पर ...................................................... अरुण

एक गजल

सामनेवाले ने खुद की जब कभी तारीफ की ठेस सी लगती है दिल में खुद को घटता देखकर कायदा कायम हुआ तो कत्ल होने थम गए तलवारे नफरत चल रही हर बार दुश्मन देखकर प्यास को इज्जत मिली प्यासों से दुनिया भर गई हो न हो जतला रहे सब प्यास पानी देखकर 'उनसे' पाकर इक इशारा चल पड़े मंजिल तरफ कुछ तो उनके हो गए आशिक उन्हें ही देखकर अपनी हालत पे बड़ा मै गमजदा ग़मगीन था गम से मै वाकिफ हुआ औरों को रोता देखकर .............................................................. अरुण

कुछ शेर

इस किनारे पर भटकता, उस किनारे जा टिके इतना लम्बा फासला पर आँख खुलते ही कटे खोजनेवालेने क्या कभी पाया खुदा खोजनेवाले से जो ना अलहदा ............................................ अरुण

कुछ शेर

कई अच्छे बुरे सपने, कई अरमान चुप चुप से गुनाहों की दबी सी बू, जहन है ऐसा तहखाना यादों पे धूल यादों की चढ़ती गई शख्सियत अपने आप ढलती गई ........................................ अरुण

कुछ शेर

सांसे भी खुद-ब-खुद, धड़कन भी खुद- ब -खुद आसां सहल था जीना, दुष्वार क्यों हुआ ? दिल में सुकून है, कोई तलब नहीं ये तो दिमाग है कि जिसके कई सवाल नाकाम मुहब्बत की बनती है कहानी होता है मिलन तो चर्चा नहीं होता ................................................... अरुण

कुछ शेर

'गुलाब को काटे न हों- तो कितना बेहतर, ये सोच ही तरक्की-ओ-परेशानी भी उमंग में जनम और विषाद में मौत ये सिलसिला-ए- जिंदगी कबतक आजादी जानी नहीं पर चाही हरदम जिंदगी जी ली पिंजडे बदल बदल कर .............................................. अरुण

कुछ शेर

अपने ही घर में बैठे खिड़की से झांकता हूँ दुनिया ने ध्यान खींचा घर की न सुध रही अँधेरे को हटाता रहा, न हट पाया रात दिन, रौशनी के गीत गाता रहा धुएँ सी शख्सियत मेरी, धुआं ही बटोरता हूँ धुआं कहाँ से चला, पता नहीं .................................................... अरुण

कुछ शेर

दौलत पे मिलकियत का क्योंकर करें गुमान सच तो यही कि दौलत का मै बना गुलाम कोशिश के जोर से तो कुछ भी हुआ हो हासिल सच का तो कोशिशों से कोई न वास्ता ........................................... अरुण

कुछ शेर

अपनी ही रौशनी से इतना बंधा हुआ दिखती नही न जानी सूरज की रौशनी इतनी न कभी पास मेरे आ पाई जितनी कि फुरकत में हुआ करती हो अहले दिल से क्यों लगाया दिल जाने क्यों ऐसे सवालात परेशां करते ........................................................... अरुण

कुछ शेर

चन्द ही लोग क्यों न हों अच्छे यहाँ भीड़ जुटाने के लिए काम आते नाम उनके जिंदगी प्यास जगाने ओ बुझाने का सफर कोई होगा? के जिसे प्यास का एहसास नही मर गया वो लौटकर आता नही पानी के बुलबुलों में रिश्ता मत जोड़ .................................................. अरुण

कुछ शेर

अपने कदम किधर हैं इसका पता नही अगला मुकाम क्या हो यह तय हो चुका तू राजे महब्बत की बातें न कर बातों से मुहब्बत नही की जाती एक किस्सा ढल चुका है जेहन में जिन्दगी की लिख रहा जो इक किताब .................................................. अरुण

कुछ शेर

दुनिया से मांग ली है ये अपनी गुलामी लोगों को कोसने का कारण नही हमें 'ये मेरा- नही, मेरा', दोनों झगड़ रहे आपस में बांटते है मगर 'मर्ज' बराबर ............................................... अरुण

कुछ शेर

अब तक तो माजी ही मेरा जिन्दा मै हूँ तो कहाँ हूँ, न ख़बर मुझको कब आदमी की आदमी से होगी मुलाकात अभी बस मिल रहे, आपसी तआरुफ़ बड़ा मुश्किल गुजरना आलमी रिश्तों की गलियों से कभी वे फूल होते तो कभी काटों से चुबते हैं ................................................................... अरुण

कुछ शेर

शायद यही वजह कि तडपता है -दिल तुम्हें पाने से पहले, तुम्हें पा चुका है दिल ये दर्द उठाया है दिली ख्वाहिश ने हमदर्द करे भी तो करे कैसा इलाज अपनी तस्बीर बनाई है दिल के कोने में दिनरात उसीसे करता बातें ............................................. अरुण

कुछ शेर

कोई बंदा- नही ऐसा- जिसे कोई- नही है डर अगर होगा तो उसकी साँस में जन्नत की खुशबू है ख़ुद से ही- देखता हूँ तमाशा जहान का ख़ुद को भी- देखता, जो जहां से जुदा नही टूटा जो कुदरत से रहा सहमा सहमा यही डर जो खुदा को ढूँढता है .................................................... अरुण

कुछ शेर

ख्याले उलझन को 'नजर' देखे तो अचानक सुलझ जाते हैं ख्याल तजुर्बे हो न हों, 'नजर' साफ हो ऐसों का दिल हुआ मासूम जिम्मेदारी ओ खतरों से भागनेवाले किसी 'दामन' को थाम लेते हैं ................................................ अरुण

कुछ शेर

दिमाग बनाता चीजें, भीतर बाहर जिंदगी उनसे उलझकर रह गई इस दुकाँ से उस दुकाँ तक आँख गुजरी बेखबर देख लेना अब जेहन में झाँककर सारा बजार प्यार तो प्यार, नही यार से जज्बाती जूनून एक मंजर ऐसा जिसमे सभी यार ही यार ................................................................ अरुण

कुछ शेर

जो नही है सामने, होता बयाँ नजर को ना चाहिए कोई जुबाँ इन्सान के जेहन ने जो भी रची है दुनिया भगवान दब चुका है उसके वजन के नीचे घडे में भर गया पानी जगह कोई नही खाली कहाँ से साँस लेगा अब घडे का अपना खालीपन ............................................................................ अरुण

कुछ शेर

तमन्ना बेइख्तियार हुई बदनाम दिल हुआ बेजा की कौम की तारीफ तो बढ़ी इस्मत ख़ुद की जरा सी की तो मिली रुसवाई है इल्म कि नापाक इरादे फिरभी जी सकता हूँ दुनिया के बदस्तूर ...................................................... अरुण

कुछ शेर

सोचने को भी न बच पाए समय ऐसे संकट में निकल आती है राह किसी भी चीज जगह का नही है नाम सच दिखना के असल क्या है, सच हुआ ख्यालात उभरते हैं, बनते हुए इक शीशा शीशे में उभरता 'मै', ख्यालात चलाता है .............................................................. अरुण

दो दोहे

समाज और परिवार द्वारा संस्कारित मन कभी भी आजाद नही है पहले मिर्ची खाय दे सो फिर जले जुबान मीठा तीता सामने चुन मेरे मेहमान मन को साधन बना कर जो जी पाए वह आनंदित है जो मन में उलझ गया वह त्रस्त है चढ़ चक्के पर होत है दुनिया भर की सैर जो चक्के में खो गया उसकी ना कुई खैर .................................................................. अरुण

कुछ शेर

पेड़ गर चाहे नया होना कभी हो न सके बीज बदले तो सारा रूप रंग ही बदले मै न जानू 'उसे' पर मैंने 'उसे' मान लिया मै न जानू - कहने में डर सा लगता है वैसे नही जुदा कुदरत से कोई बंदा एहसास खो गया है इसबात का मगर ....................................................... अरुण

कुछ शेर

कुई छोटा बड़ा कोई, हकीकत है भुलाएँ क्यों दिलों से दिल मिलें हों तो बराबर के सभी रिश्ते जेहन में हो अगर झगडा किसी भी दो खयालों का मुसल्लम जिन्दगी जीना नही मुमकिन किसी को भी हिफाजत के लिए जो बीच खीची हैं लकीरें सरहदें हैं, डराती आदमी को आदमी से .................................................... अरुण

कुछ शेर

सुकून मिल न सके ख्याले सुकूं के आते शोर को पूरी तरह देखे वही पाता सुकून चलती गाड़ी का ही हो चाक बदलना जैसे जीते जी ख़ुद की मौत देख पाना बामुश्किल होश को जो भी दिखे, सच है वही पुस्तकों में जो लिखा, सब झूठ है ........................................................ अरुण

असीम से ससीम

पैदा होते धरती पर आया तब मै असीम था न था मेरा कोई नाम, पता और परिचय सारी जमीन, सारा सागर, सारा आसमान मेरा अपना था पर आज ... एक छोटे से नाम और परिचय का मै मुहताज हूँ ........................ अरुण

होश बेहोश

रिक्त आया था, रिक्त जाऊंगा रिक्त हूँ हर क्षण मगर 'बेहोश' हूँ 'होश में हूँ'- जानना काफी नही अपनी 'बेहोशी' का दिखना होश है 'बेहोश' = सांसारिकता के प्रकाश में निद्रस्थ .................................................................. अरुण

दस्तूर

आँखों को फोड़ने का दस्तूर रखके कायम बंदिश को तोड़ने की बातें चला रहे हैं आधी मुहब्बत का पूरा पूरा दस्तूर दुनिया तो चल रही है सम्भलते गिरते जंगे आजादी है जिन्दा दुनिया में सिलसिलाए दस्तूर चल पड़ा जबसे ............................................ अरुण

कुछ शेर

असलियत गौर से हट जाए भरम जाए पसर गौर की वापसी तक, बन्दा बन्दा है पागल तुलने ओ तौलने की मिली जो तालीम न किसी बात का भी असली वजन जाना है रिश्तों के आइनों में, बनते बिगड़ते रूप यारों से दुश्मनी हो दुश्मन से दोस्ती ................................................... अरुण

कुछ शेर

पिंजडे की मुहब्बत में उलझा हुआ ये पंछी पूछे की उडूं कैसे आजाद मिजाजी से है बदनसीब इंसा का जहन जानने से पहले ही जानता कुछ कुछ जिंदगी में दो और दो चार नही समझे जो हकीकत लाचार नही ....................................................... अरुण

कुछ शेर

निकलते आँख से आंसू कभी तेरे कभी मेरे अलहिदा है नही ये गम के तेरा हो के मेरा हो प्यार में अपने पराये का नही कोई हिसाब ऐसा मंजर है कि जिसमें कोई बटवारा नही हर कुई मजबूर लेकर जिन्दगी की दास्ताँ कुछ ही करते आप अपने दास्ताँ की जुस्तजू ..................................................... अरुण

दो शेर

कुदरत जो फैलती फिर इन्सान क्यों नही छोटे से नजरिये का छोटा सा आसमान ख़ुद जो बन गया रौशनी अपनी रास्तों ओ कोशिशों की न वजह उसको ........................................................... अरुण

कुछ शेर

इस पल में जिन्दगी या इस पल में मौत है खामोश आसमां या तूफान ऐ जहन अच्छाई ओ बुराई दोनो जुदा जुदा रिश्ता न बीच में जो काम आये अपनी जगह पे ठहरा वो तो अज़ाद है खिसका इधर उधर जो वो तो बंधा बंधा (इधर = अतीत, उधर= भविष्य ) .................................................. अरुण

दो शेर

सदियाँ गुजर चुकी हैं कुछ भी अलग नही अब भी वही जहन है जिद्दोजहद लिये फैली खुदाई बाहर भीतर वही खुदाई कुछ भी जुदा नही है 'मै' के सिवा यहाँ ........................................................... अरुण

दुनियादारी

सामाजिक परिवेश में जन्म पाने के कुछ दिनों के बाद - सर्व प्रथम - भेद का भाव जिससे उभरे स्व एवं पर का भाव परिणामतः जन्मे भय भाव और सुरक्षा की इच्छा यही है सुखेच्छा, दुःख का प्रपंच लिए दुःख से निकलने की तड़प ही उलझाती है नए दुःख में इसी दुष्ट चक्र को कहते हैं - संसार या दुनियादारी ............................. अरुण

अनुभव की लालसा

हरेक क्षण अपने आप में पूर्ण है अनुभव की लालसा उसके पूर्णत्व को भंग कर देती है। विचारों से विचार नही मिटते विचारों से विचारजन्य समस्याएँ नही सुलझती कागज पर पेन्सिल से रेखाएं बन तो सकती हैं पर उन रेखाओं को पेन्सिल से मिटाया नही जा सकता। .............................................................................. अरुण

समतल वर्तमान पर भूत भविष्य का भ्रम

कागज पर रेखाओं और शेडिंग द्वारा ऊँची नीची घाटियाँ रेखांकित की जाती हैं। कागज का धरातल समतल होते हुए भी उसपर ऊंचाई एवं गहराई जैसे आयामों का भ्रम पैदा कर दिया जाता है। अस्तित्व में केवल वर्त्तमान ही है, परन्तु मस्तिष्क में, स्मृति रेखाओं के सहारे भूत एवं भविष्य काल का भ्रम निर्मित होता है। इसतरह, समय या काल का काल्पनिक आयाम वास्तव जान पड़ता है। वर्तमान में ही अतीत एवं भविष्य का स्पर्श है। ............................................................................................................................. अरुण

कल आज और कल

ना मुरादी में यादे कल तमन्ना में कल का कल आज है इक रास्ता गुजरे है कल से कल .......................... अरुण

आज का दोहा ...

जीते जी मै खो गया दुनियादारी खींच। एक गुफा फैली रही, जनम मरण के बीच।। जनम के साथ ही साथ नींद (गुफा) की प्रक्रिया शुरू हो गई। पृथ्वी और आकाश के बीच रहते हुए भी उसकी ओर से ध्यान हटने लगा। प्रकृति से हटकर संस्कृति द्वारा ढलने लगे। समाज नाम का एक रोग संक्रमित हुआ। सामाजिक संवाद की भाषा मिली। तरीका मिला समाज में रहने का। रिश्ते बने अपने पराये के। प्रेम करना सीखा अपनो के साथ व बैर पालना सीखा परायों के विरूद्व। संगठन के नाम पर अलगाव सीखा। जो वैश्विक है उसे देश-परदेश, घर-द्वार, जात-परजात में बांटना सीखा। परम-प्राण के टुकडे हुए और इन टुकडों के सहारे जीना सीखा। परम शान्ति भंग हुई और दौड़ शुरू हुई मन की शान्ति, घर की शान्ति, नगर की शान्ति, देश और विश्व-शान्ति के पीछे। जीवन टूटा और उसके टुकडों को जीवित रखने हेतु संघर्ष शुरू हुआ। जहाँ संघर्ष वहां भय, वहां चिंता। जहाँ भय वहां स्वप्न, वहां मोह सुख का तथा साथ ही आशंका दुःख की। इसतरह प्रकृति से नाता टूटा और हम भी टूटे भीतर-बाहर। नींदमयी जीवन की धार पर बहते हुए खो गए, जागृत-जीवन से कोसो दूर। .........................................................

कुछ शेर .......

'जो भी है ' देखना है खुदा कहूँ न कहूँ मर्जी अपनी जानना तो कुछ भी नही है यारों 'जानने वाले' को ही जानो, जानना क्या है? दुनिया में जितने बन्दे उतने ही होते आलम जिसमें सभी समाये खोजूं वही मै आलम ................................................................... अरुण

कुछ शेर ....

आदम से न देखी शक्ल आदमी ने अपनी अपने अक्स से काम चला लेता है चार्चाए रोशनी कुछ काम का नही दरवाजा खुला हो यही काफी है बंद आँखों में अँधेरा, खुलते ही सबेरा न फासला कुई मिटाना है .......................................................... अरुण

कुछ शेर .....

मिल जाना समंदर में लहर की इशरत 'आगे क्या?'- पूछने को कौन बचे मुक्ति की बात से तो मतलब नही अभी बंधन का बंध समझा, बस बात ये बहोत न उम्मीद कुई और न मै हारा हूँ पल पल की जिंदगी से वास्ता है मेरा .................................................................... अरुण

प्रपंच मन में है, ध्यान में नही

सिनेमा हाल में मूव्ही चल रही है। बालकनी के ऊपर कहीं एक झरोखा है जहाँ से प्रकाश का फोकस सामने के परदे पर गिरते ही चित्र चल पड़ता है, हिलती डोलती प्रतिमाओं को सजीव बना देता है। हमें इन चल- चित्रों में कोई स्टोरी दिख रही है। हम उस स्टोरी में रमें हुए हैं। परन्तु जैसे ही ध्यान, झरोखे से आते प्रकाश के फोकस पर स्थिर हुआ, सारी स्टोरी खो गई। केवल प्रकाश ही प्रकाश , न कोई स्टोरी है, न कोई चरित्र है, न घटना, न वेदना, न खुशी, कुछ भी नही। ये सारा प्रपंच परदे पर है, प्रकाश में नही। संसार रुपी इस खेल में भी, प्रपंच मन में है, ध्यान में नही। ............................................................................................................................................. अरुण