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Showing posts from February, 2014

सच्चाई ! तुम छुपी हो कहाँ?

संमंदर की लहरों पे पसरा नजारा नजर में वही सो न दिखती है धारा नज़ारों के रिश्ते नज़ारों की दुनिया छुपी जाए सच्चाई, बचता.. किनारा -अरुण

एक शेर-

शायद यही वजह है के परेशां है ये दिल तुम्हे पाने से पहले तुम्हे पा चुका है दिल - अरुण

वास्तव एवं यतार्थ

  कोई भी वस्तु या object प्रकाश लहरों के आड़े आ जाए तो परछाई बन ढल जाता है. ऐसे ही हरेक प्रत्यक्ष अनुभव विगत होते ही मनछाया बन जाता है. मनछाया,परछाई की तरह, वास्तविक तो है पर यतार्थ नही. मन का वास्तव यतार्थ को छू नहीं सकता. यतार्थ मन पर जागते ही मन खो जाता है. -अरुण

एक शेर

पता दूसरों का मेरी डायरी में मेरे घर का मुझको नहीं है पता - अरुण

एक शेर -

आँखे गडा रहे हो चेहरे पे क्यों भला चेहरा हवा हवा है आंखे धुवाँ धुवाँ -अरुण

एक शेर

निकलते आंख से आंसू कभी तेरे कभी मेरे अलहिदा है नही ये गम , ये तेरा हो के मेरा हो -अरुण

अस्तित्व अखंडित, खंड काल्पनिक

कल्प-भ्रम-माया ही खंड का स्रोत है । सकल जागा चित्त ही है अखंडित, योगमय, भक्तिपूर्ण अस्मृत ज्ञान। - अरुण

क्या अच्छा है ?

होश खोकर बेहोश हो जाने से अच्छा है होश में बेहोश हो जाओ असावधानी में भूल करने से अच्छा है सावधानी से भूल को जन्मते देखो -अरुण

आदमी और पल

आदमी को पल पल , पल बनकर जीना है पर आदमी का हर पल , आदमी बन कर जीता है -अरुण