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Showing posts from August, 2013

स्वयं के जागरण के लिए ही लिखता हूँ

मन की लहरों के नीचे फैले गहन विस्तीर्ण शांति सागर से उठकर मन के माध्यम से रोजाना जो कुछ भी share करता हूँ उसका प्रथम लाभार्थी मै स्वयं हूँ. दुसरे इसे सही माने में पढ़ते हैं या नहीं, पढ़ते हैं तो वह उन्हें भाता है या नहीं, यह मै नहीं जानता. लिखने के पीछे जो प्रेरणा काम कर रही है वह है – स्वयं के जागरण के लिए ही उसे लिखकर उजागर करना -अरुण  

मस्तिष्क है काया तो मन है छाया

मस्तिष्क से उभरता है मन का एहसास यह एहसास ही मन को चलाता है- एक लहर दूसरी को चलाती है, ठीक उसी तरह. मन को मस्तिष्क का न कोई एहसास है और न ही उसपर कोई नियंत्रण   जबकि मस्तिष्क प्रक्रिया से ही मन छलक कर एहसास के रूप में विचरता रहता है -अरुण

छूता अज्ञात है पर ...

अज्ञात से उठती प्रेम-गंध, उडता भक्ति-रंग, पसरता शांति रस   सबको ही छूता है सब को ही भाता है पर अज्ञानवश इसका स्रोत मनुष्य को किसी ज्ञात ही में नजर आता है और इसकारण वह उस ज्ञात के मोह में रम जाता है -अरुण

मन के पार

जब तक वह किनारे पर न आ जाए, मछली को सागर का क्या पता चले, उसे ‘सागर के होने की’ –कैसी खबर मन-सागर में खोया आदमी क्या जाने मन-सागर होता क्या है? चेतना के सनातन किनारे पर खड़ा आदमी ही मन-सागर को पूरी तरह निहार सकता है क्योंकि वह मन-कणों, अंशों, लहरों, थपेड़ों से बने मानसिक व्यापार या उलझनों से   पूरी तरह बाहर निकल चुका होगा, चेतना में शरीर है पर शरीर में उलझे को चेतना का ख्याल ही नहीं, मन, शरीर की उप-उपज है पर मन में उलझे को भी चेतना का स्पर्श नहीं जो इन दोनों के बाहर आकर निहार सका उसे ही मन के पार वाली बात समझ आती है -अरुण