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Showing posts from May, 2012

भ्रष्टाचार का भूत

चुंकि काम अच्छा है, शक जताया नही जाता हालांकि, पाप भीतर है बाहर से मिटाया नही जाता जबकि ‘ टीम ’ में सिमट बैठीं है कई चिडचिडी रूहें ऐसी रूहों के बल पे भूत भगाया नही जाता -अरुण

एक अजीबसा रिश्ता

वे सब मेरी आरती उतारते हैं और मै उनसे अपनी आरती उतरवाकर अपने को धन्य हुआ पाता हूँ.   मै उनको मन की शांति के लिये मोह-मुक्ति पर प्रवचन देता हूँ    और वे सब अपनी वासनाओं की तृप्ति के लिए मुझे पूजते रहते हैं मेरे उनके बीच एक अजीबसा रिश्ता है -अरुण      

पुस्तकों में दबे मजबूर शब्द

जब आतंरिक या बाहरी बाध्यता जोर पकड़ गई, जो कहा नही जा सकता, उसे भी कह देने की कोशिशे हुईं शांति को शब्दों से सजाया गया शांति सज तो गई परन्तु न कही और न ही सुनी गई जो कही और सुनी गई वह शांति न थी. वह थे गीता, कुरान, उपनिषद, और ऐसी ही कई पुस्तकों में दबे मजबूर शब्द -अरुण   

हर आदमी को उसकी Space दी जाए

हर आदमी को स्वयं की मर्जी के अनुसार निर्णय लेने और कृति करने की आजादी है ऐसी आजादी के समर्थन में उस आदमी के लिए उचित जगह या space छोडनी होगी. अपने निर्णय और कृति में अगर वह कोई चूक करता है तो जो परिणाम निकलेंगे उसका सामना करने की जिम्मेदारी भी उसी की है. चूक करने का और उससे निपटने का, दोनों का   उसे अधिकार है , यह बात भुलनी न चाहिए -अरुण   

समाज की न्याय-व्यवस्था

समाज की न्याय-व्यवस्था कितनी ही प्रगतिशील और मानवतापूर्ण क्यों न हो. समाज का ही पक्ष लेते हुए न्याय प्रदान करती है. उसी के आधार पर सजा का निर्धारण करती है. परन्तु इस व्यवस्था को यह हक नही है कि वह इस बात का धैर्य और ख्याल रखे कि व्यक्ति को दी जानेवाली सजा कहीं व्यक्ति के अन्तः-परिवर्तन की प्रक्रिया में बाधा तो नही बन रही. इसका मूल कारण यह है कि न्याय-व्यवस्था अपराध से पीड़ित व्यक्ति या लोगों को न्याय दिलाने के विचार से ही बंधी हुई है, उसे घोषित अपराधी के भविष्य में परिवर्तन की संभावन का विचार करने की कोई आजादी नही है -अरुण

संदेह-विरहित अंतर-मन

टिमटिमाती मोमबत्ती की कदमभर रोशनी में भी चलना हो पाता है और दिन के घने पूरे आच्छादित प्रकाश में भी, पहला कदम-ब-कदम वाला सफर अनसुलझे संदेहों को थामे हुए आगे बढता है   तो दूसरा संदेह-विरहित अंतर-मन से      -अरुण

यह सच न भूल जाना

करता नही कुई भी, सब यूँ ही हो रहा है करना-ओ- करनेवाला दोनों ही हो रहा है नाचे वही है नर्तन, गाये वही है गाना सब भेद है खयाली यह सच न भूल जाना -अरुण

असुरक्षित सरकार तो देश भी असुरक्षित

सरकार चलानेवाली पार्टी, दल या सत्ताकी यह जिम्मेदारी है कि वह देश/प्रदेश में विकास की प्रक्रिया को बनाये रखते हुए जनता के सभी तबकों के लोगोंका कल्याण करे और उन्हें खुशहाल रख्खे केवल यही चिंता कि जनता खुश रहे   और हमें जिताती रहे सरकार को कमजोर बना देती है.     ऐसी चिंता से त्रस्त लोग या पार्टियां सरकार चला नही सकते. इस समय देश में सरकार डरी हुई है जनता का विश्वास खोने का भय उसे सता रहा है. ऐसी अवस्था में उसके द्वारा देश के लिए लिये जाने वाले सभी निर्णय गलत साबित हो रहे हैं. सरकार की खूब हसाई हो रही है. -अरुण

भाव अलगाव का

अस्तित्व का हर कण - कण नही बल्कि सकल अस्तित्व ही है परन्तु जब उसमें अपने अलग होने या अलगाव का भाव जागता है वह एक स्वतन्त्र इकाई के रूप में अहम भाव से विचरने लगता है जहाँ अलगाव जागा, स्व-बचाव, स्व-संवर्धन, हिंसा, स्वार्थ, मोह, स्पर्धा, महत्त्वाकांक्षा जैसे भावों का जागना लाजमी है -अरुण  

सजगता और चेतना

सजगता और चेतना क्या इन दो अवस्थाओं में कोई मूलभूत अंतर है? .... इस प्रश्न पर चिंतन करने पर जो बात स्पष्ट हुई लगती हैं वह यह कि - सजगता एक सर्व-व्यापक स्थिति है जबकि चेतना किसी विशेष वस्तु/प्रसंग/परिस्थिति के बारे में रहती है सजगता केंद्रित नही पर चेतना केंद्रित या focused रहती है -अरुण

सकल अस्तित्व अभेद्य है

सकल अस्तित्व एक का एक, अभेद्य है फिर भी आदमी उसे टुकड़ों में बाटने की चेष्टा कर रहा है, जो बट नही सकता उसे भी बाटने का आभास पैदा कर देता है अँधेरा-उजाला, यहाँ-वहाँ, अभी-तभी, ध्यान-अध्यान जैसे मायावी उपाय भेद का भाव जगा देते हैं ॐकार यानी आकार-निराकार के परे वाली जो स्थिति है, आदमी ने उसमें बुद्धि-प्रयोग द्वारा अनगिनत ध्वन्याकर (शब्द) पैदा कर दिये हैं -अरुण     

‘स्वयं’ को जानना

‘ स्वयं ’ को जानने की बात जब होती है, समझ में एक भूलसी   घटती है ऐसा ‘ जानना ’ ‘ स्वयं ’ और उसे ‘ जाननेवाला ’ इन दो टुकड़ों में बटा हुआ लगता है जबकि स्वयं को जानना एक ऐसी बात है जिसमें ‘ स्वयं ’ (एक ही पल और दृष्टि में) अपना कर्तापन, कार्य, परिणाम और Intrinsic ( अंतर्भूत) अस्तित्व को निहार लेता है -अरुण

जिंदगी के दो समानांतर रास्ते

आदमी की जिंदगी दो समानांतर रास्तों से गुजरती है, सांसारिकता और अस्तित्वता, यही वे दो रास्ते हैं. दोनों एक दूसरे से पूरीतरह अलग और अछूते होते हुए भी, चुंकि एक साथ और एक संगती में चलते हैं, लगता है कि दोनों एक दुसरे के मिलेजुले अंग है अस्तित्व से आदमी जन्मता है. अपने जीवित प्राणों के साथ जीता है और प्राणों के बंद होते ही निष्प्राण अस्तित्व के रूप में बना रहता है परन्तु संसार का जन्म, जन्मे हुए आदमी के अस्तित्व के आतंरिक संवाद से फलता है और प्राणों के लुप्त होते ही वह लुप्त हो जाता है -अरुण      

परिवर्तन व्यक्ति में होता है

परिवर्तन व्यक्ति में होता है समाज में नही, जलता तो पेड है जंगल नही, सभी समुदायवाचक संज्ञाओं के साथ यह भूल होती है. भूल केवल समझने में ही नही तो समझ की भूल के कारण दृष्टि और कृति में भी घटती है समाज से भ्रष्टाचार हटाने वालों को यह बात ठीक से समझ लेनी होगी -अरुण  

बच्चे जीवनभर बच्चे ही रहते हैं

बचपन में बच्चे गुड्डा-गुड़ियों में मग्न रहते हैं, उनसे दिल बहलाते हैं, वे ही उनकी रूचि बन जाते हैं और बच्चे जीवनभर बच्चे ही रहते हैं. परिवर्तन तो केवल गुड्डा-गुड़ियों में होता जाता है पैसा, प्रतिष्ठा, प्रगति, सत्ता .... ये सब गुड्डा-गुड़ियों के ही परिवर्तित रूप हैं -अरुण

जीवन-मुक्ति का मतलब

बेडियाँ हैं पर बंधन नही रिश्तों में कोई अनुबंधन नही चहरदिवारी भी रोके न ताजी हवा ‘ मै ’ के अखाड़े में ‘ तू ’ ना हुआ बटकर भी भीतर से बटता नही माया में रहते भी धोखा नही -अरुण

सत्य-कथन

सत्य-कथन के लिए सुसाहस की जरूरत है परन्तु ‘ समाज क्या सोचेगा? ’ या समाज के प्रस्थापित मूल्यों के समर्थन में ‘ आम लोग कहीं नाराज न हो जाएँ ’ - इस भय से भी सत्य-कथन को टाल दिया जाता है या उसपर मीठे-झूठ का मुलामा चढा दिया जाता है अंधविश्वास फैलाने वालों के खिलाफ आवाज उठती है तो यह   ठीक ही है, परन्तु अविश्वास स्वीकारने वाली आम जनता के खिलाफ आवाज उठाने का ढाढस तो पत्रकार भी नही करते. सब लोग ढोंगी बाबाओ की निंदा करते हैं परन्तु इन ढोंगियों के ग्राहक यानी अज्ञानी लोगों की (जिनकी संख्या बहुत है) कोई भी खुलकर निंदा नही करता - अरुण     

सुबह और मुर्गे की बांग

सुबह की पहली किरण और मुर्गे की बांग, इनके रिश्ते से प्रायः सभी परिचित हैं. रिश्ता कारक और परिणाम ( cause and effect) वाला नही बल्कि सह-क्रियण ( synchronization) वाला है. प्रातः की किरण निकलते ही मुर्गे में बांग देने की प्रेरणा जागती है और वह बांग देता है, ठीक इसीतरह का रिश्ता मन और शरीर के बीच में है. मन शरीर का प्रेरक है, कारक नही. मन की प्रेरणा से मस्तिष्क प्रभावित होता है और प्रभावित मस्तिष्क (मन नही) शरीर को संचालित करता है, शरीर और मस्तिष्क एक ही संगठन के हिस्से हैं परन्तु मन और शरीर तो केवल सह-क्रियाएँ हैं ( synchronized actions) -अरुण  

मै उस कच्चे फल की तरह

मै उस कच्चे फल की तरह हूँ जो परिपक्वता को भलीभांति निहारता तो है पर खुद पक नही पाता परिपक्वता के लिए जो माहोल जरूरी है, उसमें शायद वह खुद को घोल नही पाता -अरुण

खुद की सच्चाई अपनी नज़रों से न देखो

एक अटपटा और   असहज सुझाव यह है कि खुद की सच्चाई देखनी हो तो अपनी नज़रों का उपयोग न करो, तुम्हें समेटे हुए जो पूरा अस्तित्व है, उस अस्तित्व की नज़रों से देखो -अरुण

सफर अंधा और मुसाफिर भी अंधा

जिस दुनिया में सांसारिकता विचरती है वहाँ अँधेरा है. सफर अंधा और मुसाफिर भी अंधा. मुसाफिर के पास अँधेरे की चमक देखने वाली ऑंखें है और सफर के रास्ते में अंधे को दिख सकने वाली चमचमाती रोशनी. तमसभरी यह सांसारिकता प्रवचनों और ग्रंथों को सुन-पढकर चाहे जितनी भी कोशिश करे, सांसारिकता के तमस को देख नही सकती और न ही असली रोशनी को पहचान सकती है -अरुण

नया- नया और पुराना-नया

आज का सूरज कल जैसा दिखता है हर नई सोच में   पुराना महकता है ..... कल का डूबा ही नही सूरज आज का, उगे कैसे     यादों के धागों से नई सोच सिले कैसे -अरुण  

भीतरी भाव का ही प्रभाव

जो भी भीतर भाव जागे, उसका ही प्रभाव आगे आचरण में व्यक्त होता हुआ दिखता है. उत्क्रांति और सामाजिक प्रकिया के आधीन रहा हर आदमी, जन्म से कुछ ही दिनों के बाद भीतर विभाक्ति-भाव जाग उठते ही,   अपने को भिन्न अस्तित्व के रूप में देखता-समझता है. इसी भिन्नत्व भाव के कारण उसे जिंदगी भर संघर्ष से होकर गुजरना पड़ता है   -अरुण        

एक सूतभर भी उसकी नही

मेरी यह छोटीसी जिंदगी, मेरे अपने तजुर्बे गिने चुने है ढेर सारे दूसरों से लेकर बुने हैं ये इकठ्ठा जमा तजुर्बे ही मेरी शख्सियत है कैसे कहूँ इसे कि यह मेरी व्यक्तिगत है अब समझा कि यहाँ अपना व्यक्तिगत कुछ भी नही परछाई जितनी भी चाहे जमीन घेर ले एक सूतभर भी उसकी नही -अरुण    

कल आज और कल

बीते क्षण-कण ही सनातन को छूते हैं और उसे ‘ अभी ’ की पहचान दे देते हैं यही पहचान अगले क्षण-कणों को खुद पर ओढती हुई, अपना लिबाज और स्वरूप   बदलते हुए अपना कल, आज और कल बनाती रहती है -अरुण