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Showing posts from January, 2015

रुबाई

रुबाई ****** दिल की धड़कन मन की मनमन धमनियाँ हैं तर देख चलती जिंदगानी और .....उसका हर असर अपने भीतर और बाहर..... जिंदगी जिंदा सबक़ व्यर्थ के प्रवचन सभी सब ....और चर्चा बेअसर - अरुण

रुबाई

रुबाई ****** सत्य है क्या.. यह खोजना.. बेकार है यारों दोहा...'पानी बिच मीन'...   साकार है यारों क्यों है मछली प्यासी?.....-बस खोजो यही इसी में सत्य से............साक्षात्कार है यारों - अरुण

रुबाई

रुबाई ******* असलियत सुलझी हुई है .कल्पना उलझा रही कल्पना की सत्यता दिल की पकड ना आ रही एक पल जागा हुआ.......तो दूसरा सोया हुआ अंखमिचौली आदमी की समझ को गुमरा(ह) रही - अरुण

रुबाई

रुबाई ******* जिंदगी से है शिकायत सिर्फ़ बस इंसान को और कोई ना बनाए....अलग ही पहचान को सब के सब क़ुदरत की सांसे आदमी ही भिन्न है आदमी इतिहास की रूह जी रहा अरमान को - अरुण

रुबाई

रुबाई ******** यूँ अंधेरा न उजाले को मिटा पाता है न उजाले को अंधेरे पे तरस आता  है चिढा हुआ है सिरफ ऐसा जगा 'आस्तिक' वह नींद में रहते  दूसरों को जो जगाता है - अरुण

रुबाई

रुबाई ******* खड़ा हो सामने संकट भयावह काल बनकर निपटना ही पडे ..उससे हमें  तत्काल बढ़कर निरर्थक.. सोच चर्चा भजन पूजन..ये सभी तो दिमागी फितूर... बैठे आदमी के भाल चढ़कर - अरुण

रुबाई

रुबाई ******** जब तलक ना आग लग जाती... न छिड़ जाती लड़ाई तब तलक ना साथ आकर क़ौम.....'मन' पर सोच पाई सब के सब ..........अपनी ही अपनी दास्ताँ में गुम हुए ना कभी इंसानियत की.......... ..चेतना की समझ पाई - अरुण

रुबाई

रुबाई ****** खुद के भीतर जा उतर सीढी कुई लगती नही दुसरों की आंख से दुनिया कभी दिखती नही आइनें भी शक्ल दिखलाते मगर क्या काम के आइनों  में शक्स की गहराईयां ...दिखती नही - अरुण

रुबाई

 रुबाई ******** बंद आँखों से जलाओगे दिये बेकार होगें देखकर करना हुआ तो मनसुबे बेकार होंगे बंद आँखे तर्क में विज्ञान में बाधा नही पर भीतरी बदलाव के सब रास्ते बेकार होंगे - अरुण

रुबाई

रुबाई ******** सतह पे लहरें हैं, .....हैं संघर्ष के स्वर संथतल पर शांतिमय एकांत का स्वर सतह-तल दोनों जगह ....चैतन्यधारा सतह..लहरें..संथतल सब एक ही स्वर -अरुण  

रुबाई

रुबाई ******** आग पानी बन उड़ेगी और पानी बन धुआं सीखने को कुछ नहीं है भूलने का सब समां सब गिराओ ज्ञान अपना शून्य में रहकर रमों शून्य में ही रह रही बुद्धत्व की संवेदना - अरुण

रुबाई

रुबाई ******* ग़रीबी एक विपदा है कि हो बाहर या भीतर खरी वो संपदा जो जनम ले बाहर और भीतर रहें आइन्स्टाइन बुद्धी में ह्रदय को बुद्ध भाएँ तभी विज्ञान और आध्यात्म का घटता स्वयंवर - अरुण

रुबाई

रुबाई ******* तजुर्बात जहांतक सोच सकें..अंदाज़ा वहांतक जाता है आँखों को दिखे जितना रस्ता ...उतना ही भरोसा होता है हम दुनियादारी में उलझे.......अपने से परे सोचा ही कहां धुँधलीसी नज़र ख़ुदगर्ज कदम....खुद से न आगे जाता है - अरुण

रुबाई

रुबाई ******* भूत ही भूत महल बनाता है कल्पनाओं में रमा रहता है महल में बैठे..महल के अंदर ही वर्तमां को भी बुला लेता है - अरुण

रुबाई

रुबाई ****** कह देते मैंने किया.. तुम नही करते जो भी करे नाम महज़ ...अपना देते नही कुई करे.....सिर्फ़ होना ही होना कण कण जो खड़े...लगें उड़ते चलते - अरुण

रुबाई

रुबाई ************ सुनना है?.. सुनना भर..न समझने की फ़िक्र कर मौन को साधे रहो.......मनमें न कोई ज़िक्र कर हर सुनी बातें वचन क़िस्से तभी...., ताज़ातरीन सुननेवाले ने सुने गर  ....ख़ुद की हस्ती भूलकर - अरुण

रुबाई

रुबाई ******* रोग हो तो दूर कर दे.... ऐसा डाक्टर है यहाँ अडचनों को दूर कर दे....ऐसा चाकर है यहाँ नासमझ इंसान है सो.. मनगढों का है शिकार मानसिक भ्रमरूग्णता हैं....मनरचे मशवर यहाँ - अरुण

रुबाई

रुबाई ******** तैरते वक़्त कोई प्यास से तिलमिलाता हो, बात सुनी नही डूबता हो और पानी माँग रहा हो पीने को, बात जमी नही वैसे तो तैरकर या डूबकर ही...........जानी गई है जिंदगी चुल्लू चुल्लू पीकर जो जानना चाहें.. उनसे बात बनी नही - अरुण

रुबाई

रुबाई ****** देखने में भिन्नता का सब तमाशा एक का ग़म दूसरे की मधुर आशा देखनेवाले हज़ारों दृश्य केवल एकही 'भिन्नता' ने वाद जन्मे बेतहाशा - अरुण

रुबाई

रुबाई ******* हवा से लहरें उठ्ठे टकराए लहर से लहर... दरिया ख़ामोश है हो हल्की हलचल या के हो तूफ़ानी क़हर ... दरिया ख़ामोश है बनते बिगड़ते रिश्तों का होश-ओ-असर सतहे जिंदगी पर ही तहख़ाने में झाँक के देखो सब्र-ओ-सुकून है..जिंदगी ख़ामोश है - अरुण

रुबाई

रुबाई ******** जिसे दिख गई यह सच्चाई की वह हवा में उड़ रहे पत्ते पे खड़ा है भलाई इसीमें की वह जानले....कि नसीब उसका पत्ते से जुड़ा है फिर भी अपने अलग नसीब की बातें करना ही हो जिसकी फ़ितरत वह ज्योतिष से, बाबा से.....दिमाग़ी फितूरों से... जा जुड़ा है - अरुण

रुबाई

रुबाई ******** बीती कभी अनबीती को देखने नही देती बिनचखे को  बिनचखा.....रहने नही देती है स्मृती की यह करतूत .परेशां है आदमी जिंदगी को जिंदा बने.......रहने नही देती - अरुण

रुबाई

रुबाई ******* ख़ुशी मेरी या मेरा ग़म....सब दूसरों के हांथ दूसरों की कारवाईयों का मैं हूँ...बस जवाब है मशीनी जिंदगानी ख़ुद तो कुछ करती नही ख़ुद करेगी कारवाई जब कभी जाएगी जाग - अरुण