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Showing posts from January, 2010

एक शेर

देख सुनकर सोचकर करता जगत-रमा देखना बस देखना करता है होशमंद ........................................... अरुण

रोवां रोवां दर्द का ......

दर्द, गम, तन्हाई में मायूस था, बे-इंतिहा रोवां रोवां दर्द का मुझको दिखा था दूर से ........................ बेखबर शीशा तो बेखबर नजारा है जो भी है दायरे में, अक्स उभरता उसका ........................... मासूम बच्चों के जुबां पे सवाल जो भी हैं किसी भी फलसफी के, बुनियादी मुद्दे हैं .................................................... अरुण

तीन दोहे

जो पलड़े में बैठता तुलता है दिन रात खुद का बोझा छोड़ते राजी हो हर बात ............................. लोभ कृत्य या त्यागना दोनों चित्त मलीन गर विचलन मन का हुआ, लोभ त्याग आधीन ............................. दावा करने से महज, कैसे कोई माने जो दिखला दे तैर कर, तरन-कला वो जाने ....................................................... अरुण

तीन दोहे

मानुस निर्मित जगत में, धरम गया है हार पैर सत्य के छीनकर, उन पर झूठ सवार .......... सत खोजन को चल पड़े, बनती पद की रेख हम तो बस चलते रहे, उस रेखा को देख ............... मंदिर मूरत सामने, लेता अँखियाँ मीच निराकार को देखता, बैठे मस्जिद बीच ................................................... अरुण

तीन दोहे

खोजत शब्दन थक गये, जो दिखलाये साच शब्दों में खोजा बहुत, हुआ सत्य का भास ........................... मन-थियटर में बैठते, दिखे जगत की फ़िल्म होत ध्यान स्थिर स्क्रीन पर, मन का बुझता इल्म .................... कब रोना कब हासना, सब दुनिया की सीख अपना तो कुछ भी नही, सब दुनिया की भीख .......................................................... अरुण

तीन दोहे

अँखियाँ अन्दर जोड़ दे, वो तेरा गुरु होय गर अँखियाँ गुरु से जुडी,अन्दर का सत खोय ........................... अगला कद ऊँचा करे हम छोटे हो जात अहंकार करता दुजा अपने मन पर घात ....................... माटी कभी न टूटती, घट माटी का टूटे जो माटी बनकर रहे, कभी न टूटे फूटे .................................................... अरुण

तीन दोहे

अँखियाँ अन्दर जोड़ दे, वो तेरा गुरु होय गर अँखियाँ गुरु से जुडी,अन्दर का सत खोय ........................... अगला कद ऊँचा करे हम छोटे हो जात अहंकार करता दुजा अपने मन पर घात ....................... माटी कभी न टूटती, घट माटी का टूटे जो माटी बनकर रहे, कभी न टूटे फूटे .................................................... अरुण

तीन दोहे

मूरखपन अपना दिखे होवे असली ज्ञान पढ़ा सुना सर में धरे वो पावत बस मान ........................ मन के ऊपर जो चढ़े, कर ले जीवन सैर मन चक्के में फँस गया, उसकी ना कछु खैर ........................ हम पुतले हैं नून के सागर जाएँ बोर नही बताशा जो करे, चीनी बैठे शोर ............................................... अरुण

कुछ शेर

इस जिन्दा रवानी-ए- जुबां का असर लगता है के जेहेन में बैठा कोई ...................... आते ही नयी जान उसे प्यार भरी गोद मिले अपनों ने घर दिया हो मगर उम्रभर की कैद मिले ............... भीतर है तवानाई, न सूरत है न सीरत है दुनिया से गुफ्तगू में इक शख्सियत बने तवानाई = ऊर्जा ......................................................... अरुण

कुछ शेर

किसको सजा ?, कौनसा इंसाफ करते हो? कहा था न तुमने? - यह तो है 'उसी' की लीला .......................... मर्ज कैसे सह सके, बेमर्ज हो जाना मर्ज दीगर नही, सिवा मरीज के ............................... जिस निगाह से कुदरत खुद को देखे वो निगाह देना, मुझे मेरे वजूद .......................................... अरुण

कुछ शेर

जुबां पे लफ्ज नही, थे अंगारे अब किताबों में हैं लाशे उनकी ...................... मशालें उनके हाथों में दिए जाते हो मासूम जला देंगे खुदका ही आशियाना ..................... दौड़ने दो अपने खयाली घोड़े पर मत होना सवार उनपे ..................................................... अरुण

कुछ शेर

सवाल उठ्ठे ही नही पर जबाब सीख लिये जानकारों में मेरा नाम लिया जाता है ............................. बादलों ने न कभी मंजिल ढूंढी हवा पे छोड़ दिया अपना सफर ................ नींद में रहना ही आसान हुआ जागना बड़ा ही बामुश्किल .................................... अरुण

कुछ शेर

मंदिरों का झुण्ड जब हाँथ जोड़े आसमाँ को हर अलग मंदिर की मूरत झुण्ड पर हसने लगे ....................... तर्जुमों के तर्जुमें हैं, जीस्त रू-ब-रू क्या करे आईने हटतें नही हैं सामने से जब तलक ................... अंदेशों से बने मंजिल अगर तो राह अंदेशों की, चल पड़ेगी ..................................................... अरुण

एक विचार

जोर से घूमता बिजली का पंखा, उसके मध्य में दिखता प्रकाश-चक्र वह प्रकाश-चक्र एक वास्तविकता है भी और नही भी, जैसा देखें वैसा दिखे दुनियादारी देह- दृष्टि में वास्तविक है परन्तु ध्यान-दृष्टि में है केवल भ्रम ............................................................................................................. अरुण

कुछ विचारणीय बातें

आठ बच्चों का बाप जिसका यह व्यवसाय है लिखना नारे गली गली, परिवार नियोजन के चुनावी- घोषणा-पत्र जारी करने वाले क्या 'उस बाप' से भिन्न हैं? ......................... स्वामीजी के प्रवचन ने 'वसुधैव कुटुम्बकम' का पाठ पढ़ाया अंत में भारत की संस्कृति का गुणगान कर तालीयां बटोरीं स्व-संस्कृति की डींग हाकने वाले अध्यात्म से दूर ही रहें तो ही अच्छा हो ................... पूरे परिवार का पेट भरने, निर्धन बाप बच्चों से भी काम करवाता है थोड़ी बहुत हैसियत वाले घरों में, अपने भविष्य का बोझ बच्चा बाप पर डालता है परिस्थिति शोषण करवाती है कहीं बच्चों का तो कहीं बाप का ............................................................................................. अरुण

दो चौ-पंक्तियाँ

खूब पढ़ ली हैं किताबें खूब सुनली वाणियाँ सादगी परिधान कर ली, की बहोत कुर्बानियां पर नही आजाद होने की वजह बनती अभी तिमिर- बंधन था तभी, अब रौशनी की बेड़ियाँ पांव के नीचे धरा उसके लिये क्या दौड़ जेब में रखे हुए बाबत है कैसी होड़ धर्म सारे हैं पराये अपनी केवल जागृति आँख बाहर भागती है उसको भीतर मोड़ ......................................................... अरुण

एक चिंतन

फलने-फूलने, झरने-बहने, उगने-उभरने वाले का स्वभाव पाने, पकड़ने के लिए प्रयास करने वाले जैसा हो ही नही सकता अनायास का मिलन प्रयास से कैसे हो ? परमात्मा अनायास है और सांसारिकता प्रयास ................................... अरुण

दो चौ-पंक्तियाँ

चलती को गाड़ी कहे ...

चलती को गाड़ी कहे....... अस्तित्व प्रवाही रहा है- बहता रहा है, बह रहा है और रहेगा. वह लगातार क्षण प्रति क्षण बदल रहा है. कहीं भी कभी भी ठहरा हुआ नही है. जिसे हम देह कहते हैं या जिसे हम पदार्थ कहतें हैं, वह भी पल पल सुप्त या स्पष्ट रूप से बदलता जान पड़ता है. इस क्षण जो चीज जैसी है उस क्षण वैसी नही रहती. अभी जो जिया अगले क्षण मरा एक नया जन्म लेते हुए. लगता है - जन्म-मृत्यु एक दूसरे में मिले हुए हैं. एक दूसरे में रूपांतरित हो रहे है, इस ढंग के रूपांतरण की निष्पत्ति है - निरंतर चला आता हमारा यह जीवन प्रवाह. प्रवाह में स्थिरता की कल्पना भी नही की जा सकती फिर भी आदमी की उत्क्रांति-यात्रा स्थिरता की कल्पना इजाद करती रही. उसने, 'चलती' में 'गाड़ी' (गाड़ी हुई ) बनना चाहा. जो नही हो सकता उत्क्रांति ने वह करना चाहा. ऐसी चाह (या Natural selection) मनुष्य के लम्बे उत्क्रांति क्रम में क्यों पैदा हुई ये कहना कठिन है. परन्तु अपने प्रति दिन के जीवन को निहारने पर एक बात स्पष्ट होती है. आदमी जिन बातों को स्थिर कहता है वे अस्तित्व की नजर में स्थिर नही है. फिर भी नित्य के व्यवहार में, संबंध

कुछ जरूरतें

मन की जरूरत है सिर्फ मन के वास्ते मन की जरूरत नही है 'उसके' वास्ते ............... जिंदगी निभाने के लिए, शब्द की जरूरत है जिंदगी समझनी हो तो, शब्द से परे जाएँ .............................. .................. अरुण

क्योंकर ढूंढे तू भगवान?

क्योंकर ढूंढे तू भगवान? खुदको ढूंढो कहाँ खो गया तेरा तन मन प्राण इसमें घाटा वहां कमाई, दौड़ धूप में दिवस गंवाई हर पल सोचत रहता मन में कहाँ नफा नुकसान क्योंकर ढूंढे तू भगवान? हुई रात तो पलक झुक गई, दिन होते ही आँख खुल गई बंटा रहा पर स्मृति सपनों में तेरा असली ध्यान क्योंकर ढूंढे तू भगवान? यह धरती यह नीला अम्बर, तुझसे अलग नहीं यह क्षणभर फिर भी तुझको भ्रान्ति हुई है तेरा अलग विधान क्योंकर ढूंढे तू भगवान? खुदको ढूंढो कहाँ खो गया तेरा तन मन प्राण .......................................................... अरुण

कुछ शेर

हर पल में 'मै' अलग, हर पल जहाँ अलग फिर जिंदगी अलग है, जागे को ही दिखे ................. वही आँखे, वही दुनिया, वही था वक्त का चेहरा बदलते 'देखनेवाला' सभी बदला, सभी बदला .................... ज्ञान तो खाता गया अज्ञान मिटाने को अज्ञान पे ठहरा नही, उसको जान लेने को ............................................... अरुण Posted by Arun Khadilkar at 7:14 AM 1 comments

दो सूत्र वचन

चाह- राह -श्रम- फल- सफल, विफल सुख -दुखः, चिंतामय जगत प्रति-पल .................... चाहे भगवान, चाहे अभिमान, चाहे पर- प्राण सत- रज -तम की अलग अलग पहचान ......................................... अरुण

एक चिंतन

जो खोज करते राह के दूसरे छोर तक पहुँच गया उससे राह छूट गई उसे भरोसा हो गया कि 'ईश्वर' तक पहुँचने की कोई राह नही उसने जाना कि 'ईश्वर' ही ढूंढ़ रहा था उसको जैसे जन्म पाने के लिए ढूंढें कोई बच्चा किसी मां की कोख ................... अरुण

कौन से तोहफे सजा के लावूं मै

खुली राहों में सिसकती हुई रातों के सिवा मै तुम्हे कौन से तोहफे सजा के लावूं मै मेरे जीवन में कहीं ख्वाब का सिंगार नही मेरी रातों में पला दर्द है बहार नही मेरी डूबी हुई हसरत को सिवा रोने के किसी रंगीन किनारे से सरोकार नही घने जंगल में सुलगती हुई शाखों के सिवा मै तुम्हे कौन से तोहफे सजा के लावूं मै मेरी आँखों में बसे अश्क बसी चाह नही मै अकेला हूँ मेरा कोई हमराह नही मेरी नाकाम उमंगो को सिवा रोने के गम हटाने की मिली और कोई राह नही गम के बोझ से दबती हुई सांसों के सिवा मै तुम्हे कौन से तोहफे सजा के लावूं मै .............................................. अरुण

ग़मों से दोस्ती मेरी .......

सजायी जिंदगी मैंने टपकते आंसुओं से गमों से दोस्ती मेरी तसल्ली है इसीसे हसें हम जब कभी कोई नया रोना हुआ हासिल बहल जाता है पाकर दुख नया खोया हुआ ये दिल उदासी चैन से पायी बड़ी जिन्दादिली से गमों से दोस्ती मेरी तसल्ली है इसीसे ख़ुशी के साज बजते हैं सिसकती जिंदगी के दर महकती हैं बहारें सुलगते वीरान दिल के घर अंधेरों में चमक जाती है बर्बादी खुशीसे गमों से दोस्ती मेरी तसल्ली है इसीसे दफन हो जाए हर उम्मीद फिर भी है अभी जीना बनावट हो उमंगों में मगर उसपर ही जी लेना जियेंगे जबतलक तूफान उलझे जिंदगी से गमों से दोस्ती मेरी तसल्ली है इसीसे सजायी जिंदगी मैंने टपकते आंसुओं से गमों से दोस्ती मेरी तसल्ली है इसीसे ............................................... अरुण

कुछ शेर और दिल की बात

ज्ञान नही, जो ज्ञानी को सख्त बना दे ज्ञानी का पिघलना ही ज्ञान का लक्षण ......... बीज से पेड़ उगाना तो तेरी मर्जी है खुद बीज बनो ये तुम्हारे हाँथ नही .............. अस्मिता को पुष्ट करें ऐसे प्रवचन आसानी से उपलब्ध सभी 'चैनल' पर .................................................. अरुण दिल की बात अपने इस USA प्रवास के दौरान कई दिनों से भीतर बड़ी अजीब सी हलचल है कहाँ भटक रहा हूँ कुछ समझ नही आता, क्या मै दुनिया में रमें मन का हिस्सा हूँ या मन से पार जाने की तड़प ... कुछ कहा नही जाता इतना ही पता है कि अब भी सांसों में अटकाव है विचारों में कोई भटकाव है प्राणों का खिचाव है कई दिशाओं में लिख तो लेतां हूँ पर अपना ही लिखा पढ़ नही पाता साहित्य बनता तो है पर साहित्य में कोई रूचि नही है विचार उभरतें हुए चौराहे पे चले आतें हैं चौराहे पे उन्हें कई देखते तो हैं पर क्या सोचते हैं पता नही, शायद वे भी इस चौराहे पर अपनी बात मुझसे कहना चाहतें होंगे पर मै अपने कहने में ही डूबा चला जा रहा हूँ और इसतरह एक अशिष्ट आचरण का परिचय दे रहा हूँ लोग माफ करेंगे या नही कुछ पता नही........ ..........................

दो शेर

मूरत पत्थर की सही, आँख पत्थर की न हो आँख के पीछे अमूर्त बैठा है ....................... अभी तो खोज जारी है हजारों जिन्स के बाबत तभी ये खोज पूरी, जब हिराए खोजने वाला .................................... अरुण

कुछ शेर

चलने पर राह बनती है बनी ( राह) पर भीड़ चलती है .................................. नीति निभे न निभे नीयत ठीक तो सब ठीक ...................... फासला तो था नही, लगने लगा चाक अपनी ही जगह चलने लगा .............................................. अरुण

दो शेर - नववर्ष की शुभ इच्छाओं के साथ

नीति निभे न निभे नीयत ठीक तो सब ठीक ...................... फासला तो था नही, लगने लगा चाक अपनी ही जगह चलने लगा .............................................. अरुण