Posts

Showing posts from February, 2015

तीन रुबाईयां

रुबाई ******* बैद मन का.. मर्ज़ को अच्छा नही करता टेढ़ को सीधा करे .....अच्छा नही करता सबके सब सीधे से पागल.. ऐसे सीधों से वह कभी मिलता नही ...चर्चा नही करता - अरुण रुबाई ***** ठहराव नही है ......है बहाव जिंदगी न रुका कुछ भी, न पड़ाव है जिंदगी न चीज़, न शख़्स, न जगह है कोई 'है' का न वजूद यहाँ, बदलाव है जिंदगी - अरुण रुबाई ******* सिक्के के पहलुओं में दिखता विरोध गहरा भीतर से दोनों हिलमिल आपस में स्नेह गहरा ऊपर से दिख रही हो आपस की खींचातानी भीतर में बैरियों के ... बहता है प्रेम गहरा - अरुण

रुबाई

रुबाई ***** पेड़ जंगल में समाजिक नही....एकांत में है भीड़ से हट के भी हर शख़्स खड़ा भीड़ में है भीड़ में पला बढ़ा भीड़ का ही एक रूप हुआ आसमां सब का एक ही न किसी भीड़ में है - अरुण

तीन रुबाईयां

रुबाई ****** ज़रूरत को सयाना ठीक से परखे ज़रूरी जानकारी को टिकी रख्खे निरा मूरख पढत-पंडित गलत दोनों गिरे कोई तो कोई ज्ञान को लटके - अरुण रुबाई ****** दुनिया में नही होती कुई बात कभी पूरी दिन रात जुड़े इतने .....छूटी न कहीं दूरी हर रंग दूसरे से कहीं ज़्यादा कहीं फीका इंसा ना समझ पाए क़ुदरत की समझ पूरी - अरुण रुबाई ****** यह जगत टूटा हुआ तो है नही....."लगता" ज़रूर और फिर आते निकल.. ....स्वार्थ भय ईर्षा ग़रूर इसतरह मायानगर आता नज़र.. ....बनता बवाल "लगना" ऐसा जो निहारे....जगत उसका शांतिरूप - अरुण

रुबाई

रुबाई ******* जहांपर पाँव रख्खा है वहीं पर 'वो' खड़ा है प्रयासों से मिले .....ऐसी न कोई संपदा है नज़ारे जी रहें हैं ...हो नज़र सोयी या जागी सभी मारग सभी खोजें समझ की मूढ़ता है - अरुण

रुबाई

रुबाई ******** है यहीं अभ्भी ....उसे पाना नही है पाया हुआ है...ढूँढने जाना नही है देख लेना है कहीं ना बंद हो आँखें ख़्वाब में या याद में खोना नही है - अरुण

रुबाई

रुबाई ******* चुप्पी भी बोलती है चुप हो के फिर सुनो अपनी ही सोच में हो...बाहर निकल,सुनो कुछ जानना नही है ख़ुद को भी भूल जाओ पूरे जगत की धुन में घुल जाओ फिर सुनो - अरुण

रुबाई

रुबाई ****** दिल से समाना सकल में आराधना है मन से हुई जो याचना... ना प्रार्थना है अपनी बनाई मूर्ति को भगवान कहना एक अच्छा और भला सा बचपना है - अरुण

दो रुबाई

रुबाई ****** किसी के साथ भी हो लेता है तर्क वकालत के बड़े काम आता है तर्क तर्क करते लोग होशियार दिखते हैं,मगर जिंदगी को समझ पाया न तर्क - अरुण रुबाई ******* प्रेम में जो बात है.........सन्मान में नही कागजी फूल में तो ..... कोई जान नही प्रेम प्रेमी और प्रेयस सब बराबर के सगे किसी का मान...किसी का अवमान नही - अरुण

रुबाई

रुबाई ******** पहनावा शख़्सियत का पहनो उतार दो आदम से  जो मिला है उसको सँवार लो अपने लिबास में ही जकड़ा है आदमी तोडों ना बेड़ियों को बंधन उतार दो - अरुण

रुबाई

रुबाई ******* पादरी मौला ओ पंडित की रुचि रब में कहाँ राह बेचू हैं सभी..मंज़िल से मतलब है कहाँ यूँ,  सभी थाली कटोरी और प्यालों की दुकानें भूक विरहित पेट हैं तो प्यास भी लब पे कहाँ - अरुण

रुबाई

रुबाई ****** सोचते हो जो...नही है जिंदगी वैसी अंधता जो भी कहे...ना रौशनी वैसी रौशनी रौशन हुई ना कह सकी कुछ भी केहन सुन्ने की ज़रूरत क्या पड़ी वैसी? - अरुण

रुबाई

रुबाई ****** मन बिना यह तन चला होता न होती त्रासदी अश्व ख़ुलकर भागता रहता न होता सारथी हाय! तन में क्यों सभी के मन की विपदा आ ढली रिश्ता तन मन का सही जिसमें घटा....सत्यार्थी - अरुण

रुबाई

रुबाई ******* आँख देखे सामने का कण सकल सब साथ साथ मोह होते शुद्र से ......होते विकल जन साथ साथ आँख चाहे उस तरह से देखना ...........भूले सभी देख पाए बुद्ध ही.....निरबुध सभी हम साथ साथ - अरुण

रुबाई

रुबाई ******* पत्थरों में भी दिखे जिसको रवानी कह न पाता इस तजुर्बे को ज़ुबानी आँख जिसको मिल गई हो ये अजूबी तेज़ तूफ़ानों में देखे..... ठहरा पानी - अरुण

रुबाई

रुबाई ******* हर जुड़ा रिश्ता तजुरबे पर करारों पर खड़ा है आपसी सौदा हिसाबों के लिए ही वह बना है बात सच है फिर भी कड़वी जान पड़ती हो भले इस हकीकत से हटे उनके लिए दुनिया बला है - अरुण

रुबाई

रुबाई ****** सागर में मछली है .........मछली में सागर है पीढ़ी दर पीढ़ी का ........इकही मन-सागर है सागर से मुक्त कहां ..मछली जो कुछ भी करे जबतक वह गल न जाय बन न जाय सागर है - अरुण

रुबाई

रुबाई ******* न कोई अकेला है और ...न है कोई अलग यहाँ से वहाँ तक एक ही अस्तित्व है सलग यह 'अलगता' है ग़लतफ़हमी सदियों पुरानी दिल मानने को नही तैयार ...बात ये सख़त - अरुण