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Showing posts from November, 2013

देह–मन-प्राण से संग

“देह के जाले को, मनस का कीड़ा दो सांसो के बीच, जगत की पीड़ा” इस मूल सूत्र को जिसने तत्व से जान या देख लिया वह पाएगा की वह हमेशा से ही बन्धनों के पार है सारे बंधन माने हुए हैं, देह–मन-प्राण से संग केवल मान्यता के कारण ही है. इस कल्पना के चलते ही सारे बंधन सता रहे हैं -अरुण

चेतना बंटी और मन उभरा

नदी का पानी हर क्षण बहती धारा में नया का नया है। किनारे खड़े पेड़ की छाया ने प्रवाह का कुछ हिस्सा ढक दिया है। ढका हिस्सा रुका, थमासा लगता है। नदी दो टुकड़ों में बँट गई । वर्तमान पर भूत की छाया पसरी चेतना बंटी और मन उभरा - अरुण

तब पता नहीं क्या होता होगा ?

समानअर्थी शब्दों का उपयोग करते हुए यह कहना होगा कि आत्मा-साक्षी-बोध-जागृति या Total Awareness (या ईश्वर) निरावारण है. साधन के रूप में जबतक ध्यान का उपयोग होता रहता है, यह किसी न किसी आवरण में ही हुआ प्रतीत होता है. ध्यान की ऊपरी सतह पर यह अहंकार-धारी शरीर, मस्तिष्क या मन का आवरण पहने दिखता है ध्यान की भीतरी अवस्था में यह निरहंकारी ‘सकल-जीववस्तु-जगत’ का चोला पहने होता है परन्तु जब ध्यान और साक्षी एक हो जाते हैं तब पता नहीं क्या होता होगा ? - अरुण  

भक्ति बनाम निर्भरता

भक्ति किसीपर निर्भर हो जाना नहीं, दूसरे में सम्मिलित हो जाने का नाम है. सम्मलेन में गुरु-शिष्य, बड़ा-छोटा, महाराज-भगत ... इस तरह के रिश्ते नहीं होते, सम्मेलन में सभी घटक एक दूसरे में समर्पित सक्रियता के साथ बसते हैं -अरुण  

शुद्ध बोध या चेतना

पारस पत्थर होता है या नहीं – मालूम नहीं पर इतना निश्चित है कि यह ‘होना’ (शुद्ध बोध या चेतना) जिसे भी छूता है वैसी ही बन जाता है. जब हम सोचते या कहते हैं कि ‘मै आदमी हूँ, हिन्दू हूँ, युवक हूँ, भारत का हूँ’ तो इन सब स्थितियों में ‘हूँ-पन’ या ‘होना’ ( mere being ) ही केवल है, अस्तित्व में मै-पन, आदमीपन, हिन्दूपन, युवकपन या भारतपन .. इन सब को कोई स्थान नहीं -अरुण        

प्रवचन किसके लिए ?

प्रवचन के शब्द तो खुले आकाश में तैरते है   जो मैदान साफ हो वहीँ पर रेंगते है तुम उन्हें सुन पाओ तो ठीक दिमाग का आँगन साफ़ रख पाओ तो ठीक ख्याल रहे ... फूल महकता है पर किसी खास के लिए नहीं बादल बरसता है किसी मकसद से नहीं जो भी गुजर जाए पास से गंध पाता है जो भी धरा हो धरा पर भींग जाता है ... अगर प्रेरणा हो पास से गुजरने की, बरसते आकाश के नीचे टहलने की तो गंध फूल की छू जाएगी बूँद बूँद सूखी रुक्ष दरारों में उतर आएगी मतलब ये कि सत्य के प्रवचन हैं केवल प्रेरणाओं के लिए किसी संकल्प या वासनाओं के लिए नहीं किसी खोज या खोजी के लिए नही बल्कि उनके लिए जिनकी सारी खोजें थम चुकी हैं, खोजी में ही सारी खोजें सन चुकीं है - अरुण