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Showing posts from May, 2011

सम्पूर्ण जागृति में घटा आचरण ही सही है

‘ क्या करें और क्या न करें ’ इस तरह की सीख जीवन बाबत का एक समाज द्वारा दिया प्रशिक्षण है, इस सीख का अनुपालन करनेवाले का जीवन समाज-प्रतिष्ठित या मान्य तो होगा पर ऐसे जीवन को अंतर-विरोध और अंतर-संघर्ष का भी सामना करना पडता है ...................... वैसे एक ही सूत्र सबसे सटीक है वह है- सम्पूर्ण जागृति में घटा आचरण ही सही है ................................. अरुण

समाधी यानि एकत्व की अनुभूति

अशरीर, शरीर और प्रतिशरीर (मन) ये तीनो हीं एक ही उर्जा की तीन भिन्न लयों पर ((Rhythm) होनेवाली अभिव्यक्तियाँ हैं Rhythm के भिन्नत्व के कारण से वे तीनों भिन्न हैं ऐसा लगने लगता है जब अवधान जागता है तो तीनों के एकत्व (Harmony) की अनुभूति होती है प्रायः एकत्व की इसी अनुभूति को समाधी कहा जाता होगा

सिर्फ पहुंचे को पहुँचने पर रास्ता दिखे

दृष्टि ( Vision) उस स्थिति का पूरा दृश्य स्पष्ट कर देती है जिसमे दृष्टिधारक पहुँच चुका है और इस पहुंचे हुए को वह कैसे पहुँचा इस बात का तर्क-पथ भी दिखला देती है परन्तु पहुँचने का प्रयास करने वाले को ऐसे किसीभी तर्क-पथ का ज्ञान नही हो सकता जो उसे सही दृष्टि दे दे ................... दृष्टि धारक ‘ गीता ’ की रचना कर देता है परन्तु गीता का अभ्यासक दृष्टि नही पा सकता .................................. अरुण

सिर्फ पहुंचे को पहुँचने पर रास्ता दिखे

दृष्टि ( Vision) उस स्थिति का पूरा दृश्य स्पष्ट कर देती है जिसमे दृष्टिधारक पहुँच चुका है और इस पहुंचे हुए को वह कैसे पहुँचा इस बात का तर्क-पथ भी दिखला देती है परन्तु पहुँचने का प्रयास करने वाले को ऐसे किसीभी तर्क-पथ का ज्ञान नही हो सकता जो उसे सही दृष्टि दे दे ................... दृष्टि धारक ‘ गीता ’ की रचना कर देता है परन्तु गीता का अभ्यासक दृष्टि नही पा सकता .................................. अरुण

Mind- driving और Understanding

जानने का काम मन (देह बुद्धि ) का है समझना काम है ह्रदय (अस्तित्व) का ......... अभिव्यक्ति के मोह के आधीन होकर जब समझ मन का प्रयोग शुरू कर देती है तब वह जानने का काम करने लगती है वह Mind - driving बन जाती है वैसे तो शुद्ध समझ हमेशा मन के बाहर खड़ी है इसीलिए शायद उसे understanding कहते हैं ..................................... अरुण

अस्तिव प्रारंभ और अंत के परे

शुरुवात मन की होती है अंत भी मन का है अस्तित्व की न तो शुरुवात है और न ही अंत इसी लिए अस्तिव की कोई परिभाषा नही बन बाती ................ मन की छोटी सी भाषा निर्भाष को अभिव्यक्त करने में असमर्थ है अस्तित्व केवल ‘ है ’ पन का दूसरा नाम है ................................. अरुण

मन मन खुद को मत भटकाना

मन मन खुद को मत भटकाना दीप जाग्रति की आभा में मन को रिता बना आ आ ना उस आभा के तार तार से बनते मन के गलियारे मन मानस में शब्द बुन रहा जिसमें अंतर सुध हारे तार तार को छोड़ सकल ज्योति में खुद खो जाना ................................. अरुण

मन भी शरीर निर्मित

बाहरी काया यानी भौगोलिक और सामाजिक पर्यावरण के संपर्क में आकर जिसतरह शरीर मल मूत्र पसीना खून और ऐसी ही कितनी रासायनिक पदार्थों की निर्मिति करता है वैसे ही मन की निर्मिति भी शरीर द्वारा ही होती है अन्तर इतना ही की मन को निर्मित-मन ही महसूस करता है कोई दूसरा बाहरी शरीर नही .......... शरीर की और पर्यावरण की पल पल की जागरूकता को जिस तरह मल मूत्र जैसी बातें केवल एक पदार्थ मात्र जान पड़ती हैं ‘ मेरा मल ’ या ‘ मेरा मूत्र ’ जैसा तादात्म वहाँ गहराता नही ठीक इसी तरह ऐसी जागरूकता मन को भी एक निर्मित पदार्थ मात्र ही समझ सकती है बिना किसी तादात्म के ....... बस, इतनी गहरी जागरूकता जागनी होगी ............................................................... अरुण

अवधान और परिधान

जीते रहना ही है,जानते रहना जी लेना है, जान लेना जिंदगी जीते रहने का नाम है जी लेने का नही जी लेने पर मन निर्मित होता है जीते रहने में अवतरित है - अवधान जिंदगी अवधान है और मन है परिधान ....................................... अरुण

एक रूहानी गजल

उसने तो रोशनी दी, दिख्खे सभी ओ साफ अपने लिए ये रोशनी दीवार बन गई उसको कहें खुदा, खुद उसमे से निकल अब उसकी मेहरबानी सरोकार बन गई मैदान में खड़ा हो तसब्बुर का कोई पेड जब पेड हो तो छाँव की दरकार बन गई ख्वाइश की की गुलामी, मकसद की चाकरी नाकाम साँस वक्त की सरकार बन गई खुद से ही चल रही थी खुद की ही जुस्तजू पल पल की खबर मुझको दीदार बन गई .......................................... ............अरुण

परिवर्तन बीज में यानी व्यक्ति में जरूरी

वैसे तो खुले तौर पर समाज हमेशा ही मोह ओर लोभ से बचने की शिक्षा देता रहा है परन्तु दूसरी ओर उलट, प्रतियोगिता, सफलता, महत्वाकांक्षा, समाज में अपना वजन बढ़ाने जैसी बातों को प्रोत्साहन और प्रतिष्ठा भी देता रहा है जब तक ऐसी चीजों को समाज में सम्मान है भ्रष्टाचार, दुराचार, लूट-खसोट,, अनावश्यक संग्रह के किस्से बने ही रहेंगे इन बातों का विरोध तो होगा परन्तु मनुष्य के आचरण में परिवर्तन की किसी भी सम्भावना की अनुपस्थिति में. .............. परिवर्तन व्यक्ति में होगा तभी समाज बदल पाएगा परिवर्तन बीज में होगा तभी वृक्ष में गुणात्मक बदलाव संभव हैं ....................................................... अरुण

टूटन की पीड़ा

चेतना ( Consciousness) के सागर में कभी चेतना इस लहर पर केंद्रित होकर उस लहर को निहारती हैं तो कभी उस लहर पर सवार होकर इस लहर से संवाद करती है इसी लिए सारा अन्तस्थ-सागर हमेशा टूटा टूटा सा रहता है जब ध्यान में सागर एक का एक छाया हुआ हो तो टूटन की पीड़ा शेष नही बचती .................................................. अरुण

कविता किसे कहें ?

अस्तित्व के साथ बना हुआ एकत्मिक भाव मन की खिडकी से अभिव्यक्त हो उठता है और इसतरह कविता का जन्म होता है -------- कविता मन से उभरती तो है पर मन का उसपर कोई नियंत्रण नही रहता ------ मन की कुशलता से बनी सभी रचनाएँ सुन्दरतम कलाकृतियाँ हो सकती है पर कविता की स्वयं-अभिव्यक्तता उसमें देखने को नही मिलती ---- यही बात संगीत, पेंटिंग या अन्य अभिव्यक्तियों के सम्बन्ध में भी सच है ......................................... अरुण

झूठ से उभरे झूठ

झूठ से उभरा झूठ, झूठ को वास्तव जान पडता है झूठ की इस सारी प्रक्रिया के प्रति जो सजग है वह इस मिथ्या-वास्तव ( Vertual Reality) से परे रहता है, मुक्त रहता है ........................................................................ अरुण

वे पुराने लोग अब मिलते नही

रास्ते उनकी तरफ खुलते नही वे पुराने लोग अब मिलते नही अब भी जिनका जिक्र छूता है जुबां अब भी बाकी रूह पर जिनके निशाँ जिनके साये खाब से हटते नही वे पुराने लोग अब मिलते नही हो अचानक रोज इक उनका दीदार है दबा सा जहन में इक इंतजार फिर भी हैं जो फासले मिटते नही वे पुराने लोग अब मिलते नही क्या पता बिसरे या रखते मुझको याद दिल में क्या मेरी बसी अब भी मुराद ? इन सवालातों के हल मिलते नही वे पुराने लोग अब मिलते नही रास्ते उनकी तरफ खुलते नही वे पुराने लोग अब मिलते नही .............................................. अरुण

नदी लुप्त तो किनारे भी गायब

नदी बहे तो दो किनारे अपने आप बन जाते हैं दरअसल, किनारे अंदर से एक के एक हैं फिर भी दो दिखते हैं दोनों के अलग होने का भ्रम, दोनों को अलग इकाई बनाकर दोनों के बीच संवाद शुरू कर देता है, एक किनारा व्यक्ति ( Subject) तो दूसरा वस्तु बन ( Object) बन जाता है दोनों किनारे का एकत्व जानने के दो रास्ते हैं एक – नदी के तल में उतर जाना दूसरा- नदी के अस्तित्व को को लुप्त कर देना ---------------- चेतना के बहाव के कारण भी व्यक्ति और वस्तु जैसे दो टुकड़े उभर आतें हैं सम्पूर्ण चेतना ध्यान में उतरते ही लुप्त हो जाती है और किनारे भी खो जाते हैं ............................... अरुण

भ्रष्टाचार-विरोध कहीं ढकोसला तो नही ?

जिस समाज में दूसरे के अधिकार क्षेत्र में घुसपैठ करने के व्यक्तिगत आचरण को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर प्रतिष्ठा प्राप्त है ऐसे समाज में भ्रष्टाचार मिटाने की सोचना व्यर्थ की बात होगी .................... देश के भीतर व्यापक तौर पर फैले भ्रष्टाचार की निंदा करने वाले अपने व्यक्तिगत जीवन में यदि भ्रष्ट आचरण की प्रेरणा रखते हुए उसी के माध्यम से अपनी प्रतिष्ठा का संवर्धन करते हों (महत्व की आकांक्षा रखते हों, संचय प्रेमी हों ) तो उनका भ्रष्टाचार-विरोधी पैतरा एक ढकोसला मात्र है .......................................... अरुण

पागलपन दो ढंग का

पागल दो प्रकार के होते हैं - एक वे जिन्हें वास्तव न तो दिखता है और न समझ आता है और दूसरे वे जो अपने पागलपन को ही वास्तव मान लेतें हैं --------- एक न जानने के कारण पागल तो दूसरे मान लेने के कारण पागल, दोनों प्रकार दोनों में ही देखने को मिलते हैं, शिक्षितों में तथा अशिक्षितों में भी ............................................... अरुण

अंगुली निर्देश या अंगुली प्रपंच

अंगुली जहाँ और जिधर इशारा कर रही है उसे देख लेने की क्षमता जिनमें जागी नही वे अंगुली में ही अटक जातें है और उसके वर्णन को ही निर्देशित-सत्य समझ बैठते है ........... धर्म को समझने से जो चूक गये वे धर्म-प्रपंच को ही धर्म समझने की भूल कर बैठते हैं .......................................... अरुण