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Showing posts from January, 2014

भारत में धरना-आन्दोलनों का अतिरेक

भारत में जनतंत्र स्थापित तो हुआ पर सही माने में नहीं. जनप्रतिनिधि और सरकार के चयन की कारवाई में जनता शामिल तो हुई परन्तु पूरी जिम्मेदारी के साथ नहीं. चुनाव के बाद जनता अपनी सारी जिम्मेदारियों का बोझ चुने हुए लोगों पर छोड़कर निश्चिन्त हो जाती है. चुने हुए लोग भी पूरी जिम्मेदारी को प्रशासकों और शासकों पर छोड़ देते हैं. जनता का काम केवल चयन करना नहीं बल्कि सतत निगरानी करते रहना है. यह बात न तो जनता ने सीखी और न ही ऐसी सीख जन-मन में उपजाने वाले लोग सामने आए. जो भी आये वे सब धरना, आन्दोलन, भूक हड़ताल या तोड़फोड़ में ही रस लेते दिखे.   उनकी रूचि जनता को आगे लाने में नही.. बल्कि अपने को आगे रखने में बनी. जनता अगर सतत निगरनी करती रहे तो धरना-आन्दोलन और ऐसे उपायों का अतिरेक अपने आप कम हो जाएगा. इन उपायों का उपयोग केवल संकटकाल में ही होना उचित होगा. जनता ने केवल उदासीन और असंतुष्ट होना ही सीखा है, सतर्क और आश्वस्थ होना नही. -अरुण

मनधारी ही है दुःखधारी

मनधारी मानव का दुखी रहना स्वाभाविक है. दुःख से भागने के लिए ही वह सुखों में लिप्त होता है और इस सुख-लिप्तता से भागने के लिए, वह त्याग का प्रतिष्ठित उपाय ढूंढ लेता है. ये सब उपाय, दुःख से ही पलायन की तरकीबें हैं. जो दुःख के समक्ष ध्यानस्थ हो खड़ा हो गया, वही आत्म-साक्षात्कारी हो सका. -अरुण   

आज है गणतंत्र दिवस

हम सब भारतीयों को ऐसा गणतंत्र मिले जो गुटतंत्र , लूटतंत्र , झूठतंत्र , वोटतंत्र , भयतंत्र तथा लोकलुभावन तंत्र से मुक्त हो, लोगों और शासकों के बीच की दूरी हट जाये मीडिया स्वतंत्र तो हो ही , ईमानदार भी हो ...... यही शुभकामनाएँ - अरुण

सही जागरण सही नींद

यह मस्तिष्क दिनभर की अच्छी बुरी झंझटों से थका हारा अपनी थकान हटाने सो जाता है , अगली सुबह बीती सिलवटों से मुक्त होकर , तरोताजा बन जाग उठता है कुछ ही ऐसे है...जिनका मस्तिष्क दिन के ही हर क्षण तरोताजा होता रहता है क्योंकि उनका मस्तिष्क चेतना के कण कण को, क्षण क्षण को त्रयस्थता से देखता रहता है बस देखना ही देखना है, देखने में ही कृति (action) है     -अरुण     

चिंता..चिंतन

चिंता से फ़ुर्सत मिले तभी तो चिंतन करूँ? मन के द्वारपर ध्यान का पहरेदार न हो तो चिंता घुस आती है अपने कई रिश्तेदारों को साथ लिये यानि.... भय, वासना, सद् भावना या दुर्भावना ...... सभी के पैर बंधे हुए हैं भूत से और उनके आंखो पे दबाव है सपनों का चिंता और उसके रिश्तेदार...दोनों ही पहनकर आते है कोई विचार जिसके आगे पीछे जुड़ा होता है विचारक चिंता और रिश्तेदार द्रुतगति से .... लगभग प्रकाशगति से संचारते हैं भूत भविष्य के बीच सावधानी में लगता है यह है एक हवा का झोंका असावधानी में  एक विकराल बवंडर - अरुण

नासमझ खोज ये...

आग का ढेर है, फडफडा रही कई लपटें उनमें से एक पे, पहचान मेरी जा अटके पूछती रहती के क्या है आग का वजूद नासमझ खोज ये डगर डगर भटके -अरुण    

केजरीवालजी !!!

केजरीवालजी !!! इस बार तो आपका दांव चूक गया. दो दिन में ही धरना पिट गया. आपके सभी आम और खास विरोधियों को, आपको ‘पीटने’ का अच्छा मौका मिल गया. खैर दुखी न होइए, सभी innnovative आइडियाज के लिए वे सब आप का ही मुंह ताकते रहते हैं. अब तक उन्होंने आप की काफी चीजे चुरा   ली हैं. .....टोपी, मिल-बैठकर निर्णय लेना, बिजली-पानी के दामों में कटौती, लोकायुक्त-लोकपाल जैसे मामलों में दिखाई जानेवाली तत्परता, Manifesto के लिए community (महिलाओं से) consultation, मिडिया के खुरापाती सवालों पर सवाल उठाने की हिम्मत, जमीन से जुड़े रहने की प्रेरणा ..... ये सब बातें तो.. वे आप से ही सीख रहे हैं. केजरीवाल जी !- ध्यान रहे देश का आम आदमी हर बार आपके पीछे दौड़कर नहीं आ सकता, उसकी भी अपनी कुछ मजबूरियां हैं. दूरियों की (नेता और जनता के बीच की) उसे आदत सी पड गयी है. उसे मंत्री महोदय कुर्सी में ही बैठे अच्छे लगते हैं... और आप है कि .... सड़क पर पलथी मार कर बैठ जाते हैं. आपके इस ब्यवहार के लिए उन्होंने एक अच्छा नाम दे रखा है – नौटंकी. आप के ही टंकियों से पानी चुराने वाले ये लोग आपको नौटंकी से कुछ अधिक नहीं समझते ह