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Showing posts from August, 2014

झूठे सच

झूठे सच ----------------- जो तथ्यरूप में 'है' उसका कोई उपयोग करे तो इसमें क्या ग़लत? परंतु जो किसी भी रूप में 'है ही नही' उसके 'होने को' मानते हुए, ... कोई भी कारवाई करना कहाँ तक सही (सत्य) होगा? मगर मनुष्य का सांसारिक जीवन एक ऐसा प्रसंग या situation है जहाँ 'है ही नही' के 'होने को' स्वीकारते हुए उसको भी उपयोग में लाया जाता है।  सवाल उठेगा कौन से हैं वे झूठे सच (अतथ्य तथ्य) जिन्हें सांसारिकता उपयोगी मानती है?  वे 'झूठे सच' कई कई कई हैं मगर केवल एक झलक के तौर पर, कुछ हैं जैसे...... व्यक्तित्व,महत्व,भिन्नत्व, उद्देश्य, यश-अपयश,समाज,देश-परदेस,अहंकार,अस्मिता इत्यादि इत्यादि - अरुण

दर्शन ......जागा या सोया हुआ

काग़ज़ को बहुत बहुत दूर से देखने पर .......  कुछ भी न दिखा दूरी कम होते ही .......काग़ज़ पर काली खिंची रेखाएँ दिखीं दूरी और कम होते दिखा............ वे रेखाएँ नही, कोई लिखावट है नज़र काग़ज़ की लिखावट पर ठहरते ही.... 'पढना' जागा  और 'देखना' सो गया ****************** ऊपर लिखा अनुभव बाहरी एवं भीतरी... दोनों तरह के observations को ध्यान रखकर लिखा गया है। - अरुण

शांति यानि मन-पकड़ से मुक्ति

मन की शांति के बारे में बहुत कुछ कहा सुना जाता हैै । विडम्बना तो ये हैै कि... मन ही अशांति का ज़रिया है । तो क्या मन की पकड़ से (मन से नही) मुक्त हुआ जा सकता है?... हाँ, हुआ जा सकता है । इस तरह की साधना जिनका अभीतक विषय नहीं बना, परंतु जिन्हें मन-शांति चाहिए ऐसे हम जैसे लोग, .....मन को दबानेवाली, नकारनेवाली मन रचित तरकीबों का सहारा पकड़ लेते हैं ....जपजाप, concentration, मन को divert करने जैसी सुप्रतिष्ठित नादानियों को पसंद करते हैं । - अरुण

'जानना' और 'मानना'

ज़िंदगी में 'जानना' और 'मानना' दोनों एक दूसरे के परिपूरक होते हैं । जानने के लिए शुरूआत कुछ मानकर ही करनी पड़ती है और जब मानना जानकारी से मेल खाता हो तभी वह विवेक के दायरे में रह पाता है । सत्य की खोज में श्रद्धाधारित विवेक और विवेक आधारित श्रद्धा, दोनों मिलकर सहायक बनते हैं । यह संतुलन जो खो बैठते हैं वही अतितार्किक या अंधविश्वासी समझे जाते हैं । - अरुण

दृश्य और दर्शक

दृश्य और दर्शक केवल गहरा एवं व्यापक आत्म-अवलोकन  ही समझा पाता है कि...... दृश्य का स्पष्ट दर्शन पाने वाला दर्शक स्वयं के प्रति सोया होता है, या स्वयं पर ध्यान ज़माने वाला, दृश्य के प्रति सो जाता है. दृश्य और दर्शक दोनों पर एक साथ हुई जागृति ( Awareness)  ही.... दृश्य, दर्शन और दर्शक – तीनो के बीच के भेद को पूरी तरह खोते हुए... सृष्टि के एकत्व को देख लेती है । -अरुण  

आत्यंतिक आंतरिक क्रांति है निजी मसला

सदियाँ गुज़र चुकी हैं, मगर आदमी वही है.....वही लोभ, क्रोध, अहंकार,संघर्ष और सुखदुख.. सबकुछ वही । केवल बदलता रहा है उसका बाहरी नक़्शा .. उसका रहन सहन, सुख सुविधा, तौर तरीक़े, सामाजिक परिवेश और जीवन मूल्य । कुछ ही लोगों में     आत्यंतिक आंतरिक क्रांति घट पायी है जो पूरी तरह निजी रही । आदमी की भीड़ ऐसी ही निजी क्रांतियों से प्रभावित होते हुए नये नये धर्म इजाद करती है और फिर नये नये बखेड़े खड़े कर देती है । - अरुण

तटस्थ, समाधिस्थ एव्हरेस्ट

अटूट संकल्प,अडिग आत्मविश्वास और प्रयत्नों की पराकाष्ठा करते हुए एव्हरेस्ट की चोटी तक पहुँचनेवाले, विजय-भाव से ओतप्रोत हुए होंगे । वहाँ विजय पताका फहराते उनकी छाती गर्व से फूल गयी होगी । यह देखकर एव्हरेस्ट क्या महसूस करता होगा ? तटस्थ, समाधिस्थ खड़ा एव्हरेस्ट आदमी की नादानियों पर बड़े ही निष्कटभाव से हंस लेता होगा,... पूछता होगा.... विजय?.. किसकी?...किसपर? - अरुण

होश का नाम है..ज़िंदगी

आदमी अपनी अनसुलझी या भ्रमउलझी सोच-समझ की वजह से, जन्म और मृत्यु के बीच के फ़ासले को ही अपनी ज़िंदगी समझ बैठा है । ऐसा वह समझता है.....केवल इसलिए... क्योंकि  उसके प्राण ज़िंदा है, देह.. देख-सुन और चलफिर पाती है, दिमाग.. बीते हुए का सहारा पकड़ कर वर्तमान में कुछ हद तक जी लेता है ।....वह होश में होते हुए भी ....उसे यह होश नही है कि वह ख़ुद गुज़रे दिनों के (या मरे दिनों के) अनुभवों का ही निचोड़ है । एक तरह से.. वह मरा मरा ही जी रहा है। ज़िंदगी उस होश का नाम है जो अपनी बेहोशियों को भी साफ़ साफ़ देख ले । - अरुण

यहाँ मै अजनबी हूँ.........

अस्तित्व के तल पर जा देखने पर जो सच्चाई सामने आती है, उसे स्वीकारना सहज नही है । इस मायावी जगत में व्यक्ति हैं, समाज हैं,  आपसी संबंध हैं, आपसी परिचय या अजनबीपन ...... ये सबकुछ है । परंतु यदि अस्तित्व बोल पड़ा तो कहेगा ..... व्यक्ति क्या होता है?.. नही जानता, समाज तो कभी देखा ही नही, कोई या कुछ भी जब किसी से जुदा नही तो फिर संबंधों का सवाल ही कैसा? मै हूँ और केवल मैं ही हँू ़़़़... अविभाजनीय (individual), अगणनीय, अभेद्य। न मेरे भीतर कुछ है और न कुछ भी है मुझसे बाहर.... सो..  न मैं किसी को जानू, न कोई हो अलग कि मुझे जान सके। मेरी इस अजनबी अवस्था में मै हँू तो... मगर अजनबी हँू। - अरुण

जस भाव तस प्रभाव

शरीर की जगह ही विचार है, विचार के पीछे ही भाव है, भाव में ही सारा जीवन प्रभाव है, इसीलिए जैसा भाव है वैसा ही जीवन फलित हुआ दिखता है। जैसा ह्रदय होगा वैसा ही होगा विचार और वैसी ही होगी शरीर से अभिव्यक्त कृति या आचरण। ह्रदय अगर शुद्ध, भक्तिपूर्ण हो तो कृति भी निस्वार्थ प्रेममय होगी। ह्रदय अगर 'मै' और 'तू' में विभक्त हो तो आचरण भी स्वार्थ एवं कपटमय होगा। - अरुण  

दुख का काँटा ना चुबे

दुख का काँटा ना चुबे....... *************************** जिन्होंने काँटे कंकड़ों को अपना दुश्मन मान लिया, उन्होंने सारी ज़िंदगी उन्हे रास्ते से हटाने,उनसे झगड़ने में गँवा दी। जो इस रहस्य को देख सके कि समस्या काँटे कंकड़ में नही, उनसे होनेवाली चुबन से है, उन्होंने खोज कर  चुबन-ग्राहकता से मुक्त होने का  राज जान लिया। - अरुण

विज्ञान और धर्म

विज्ञान और धर्म ********************* विज्ञान सुख समाधान के साधनों को केवल उपलब्ध कराता है परंतु धर्म उनमें जगाता है....स्वयं सुख समाधान । सुख....साधनों से आता है, परंतु साधनों में होता नही। - अरुण

भेद का भाव ही संघर्ष की जड़

अस्तित्व में दुकडे या भेद है ही नहीं, फिर भी मन भेद की कल्पना करते हुए अस्तित्व को टुकड़ों में बंटा पाता है, यही बाँट मनुष्य के सभी अंतर संघर्षों की जड़ है -अरुण       

धर्म है रचना तो धार्मिकता है एक तत्व

‘धार्मिकता’ एक गुण है. इस गुणविशेष को समाज ने धर्म में ढांचे में ढाल दिया है, यह न समझते हुए कि गुण एक निराकार तत्व होने के कारण इसे किसी ढांचे में बाँधा नही जा सकता. इसी ढांचे के अनुकरण के लिए संस्कार रचे गये, संस्कारों से बंधे लोग धार्मिक कहलाए जाते हुए भी धार्मिकता के प्रमाण नही हो सकते -अरुण    

भारत में राजनिति की एक सच्चाई

राजनीति में भी व्यावहारिक दांवपेंच बहुत काम आतें हैं. संविधान, नीति और नियमों के दायरे में अपनी नीयत को बिठा दो, बस ... इतना ही काफी है. फिर आपकी नीयत असंवैधानिक ही क्यों न हो, आप या आपका दल और आपकी औपचारिक सोच, संवैधानिक मान ली जाती है. यह खुला रहस्य है कि भारत में स्वभावतः या मानसिक तौर पर जो लोग या समूह साम्प्रदायिक हैं, उन्हें भी राजनैतिक दल की मान्यता प्राप्त है. इसीतरह जो पार्टियाँ अपने को धर्मनिरपेक्ष कहलाती है, वे भी सांप्रदायिक पक्षपात करने के बावजूद भी स्वयं को धर्मनिरिपेक्ष कहलाकर लोगों का समर्थन जुटातीं हैं. --- नीयत की सच्चाई नियमों से साबित नहीं होती -अरुण                

देह-मन-बुद्धि और बुद्धत्व

आत्म-चिन्तन दर्शाता है कि अस्तित्व और देह के बीच भेद का भाव उभरने के साथ ही, देह से मन उभरता है और   फिर मन से बुद्धि फलकर कार्यरत हो जाती है. इसी क्रम में बुद्धिसे बुद्धत्व फले तभी विकास का वृत्त पूरा हो. परन्तु अक्सर मन-बुद्धि की प्रक्रिया में, ध्यान खो जाने के कारण, बुद्धत्व की शक्यता समाप्त हो जाती है. -अरुण             

जानना, मानना और जागना

जान जानने के काम आती है, मन मानने के और ध्यान काम आता है जागने के. ----------------- जो जागा हुआ है, वह है जागा.... दोनों पर- एक ही साथ और एक ही वक्त. ‘ जानने’ और ‘मानने’ दोनों पर उसका ध्यान होने के कारण वह कभी भी confused (संभ्रमित) नही रहता. ------- Unconfused या स्पष्ट चित्त ही ध्यानस्थ भी है और प्रेमस्थ भी -अरुण