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Showing posts from March, 2013

मुक्ती जगे तभी जभी मन-भांडा फूटा

चारों ओर दिवार है,     घर हो अथवा जेल इक मन से मिलजुल रहे, दुजा न खाये मेल दुजा न खाये मेल, ‘मेल मनसे’ -   भी झूठा   मुक्ती जगे तभी,       जभी मन-भांडा फूटा -अरुण

गुरु किसे कहें ?

अंखियां अन्दर जोड़ दे, वह तेरा गुरु होय गर अंखियां गुरु से जुडीं, अन्दर का सत खोय -अरुण ----- जो कोई भी, व्यक्ति,वस्तु,घटना या अनुभव,   दृष्टि को बोध की दिशा में मोड़ देता है उसी को गुरु कहें, परन्तु यदि दृष्टि ’गुरु’ में ही अटक जाती है तो बोध की संभावना समाप्त. फिर गुरु बोध का साधन न रहकर मोह की वस्तु बन जाता है जिन्हें बोध हुआ वे गुरु से मुक्त हुए पर जिन्हें मोह हुआ वे गुरु-पूजा या गुरु के गुणगान में आसक्त हुए   -अरुण    

तबतक परमात्मा कोठडी में कैद ही रहेगा

पसरा विस्तीर्ण आकाश, ऊँची ऊँची चोटियाँ अतल गहरे सागर जैसा परमात्मा   आदमी की क्षुद्र दुनिया से गुजरते मानो किसी कोठडी में कैद हो गया हो .. अब जब तक आदमी का अवधान   विस्तीर्ण, ऊँचा और अतल गहरा नहीं होता, स्वभावतः हमेशा मुक्त ही है ऐसा परमात्मा, कोठडी में कैद ही रहेगा -अरुण

मरने के बाद भी .....

मरने के बाद उसकी   शव पेटिका को फूलों से सजाया गया था , उसके शव के पीछे बड़ी बड़ी कारोंका काफिला चल रहा था ....... मृत्य के बाद भी आदमी की अहमियत सर उठाती है, अपने खोखलेपन और ढोंगका सिलसिला चलाती है ...... शवयात्रा अपनी शोभा के साथ गुजर रही थी वहीँ पास के मैदान में बच्चे खेल रहे थे अपने खेल में पूरीतरह मग्न थे, इर्द-गिर्द के माहोल से थे बेखबर .... -अरुण    

नीर-क्षीर भेद

भले ही देह और मन एक ही सिस्टम के दो अभिन्न हिस्से हैं परंतु ध्यान के तल पर निर्मन-देह और विदेही-मन, दोनो की प्रतीती संभव लगती है, जिस तरह नीर और क्षीर को हंस अलग अलग कर सकता है, ध्यान को भी यह कला अवगत है -अरुण