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सितंबर २०१७ कीरचनाएँ

मन ठहरा.. मन बहता ***************** बहती धारा में नदी का पानी... हर क्षण है नया किनारे खड़े पेड़ों की छाया ने कुछ हिस्सा नदी का ढक दिया ढका हिस्सा रुका...थमासा लगता है छाया के बाहर.....पानी बहतासा दिखता है इसीतरह वर्तमान पर छाया भूत की पड़ते ही चेतना बंटी दो हिस्सों में एक हिस्सा...मन ठहरा हुआ.. तो दूसरा....मन बहता हुआ – अरुण कहा न जाए.. बिन कहे रहा न जाए ******************************** जो कहा ही नही जा सकता....उस सत्य को लोग कहे बिना न रह सके... न ही जानने का कुतुहल थमा.... न ही कहने की विवशता सत्यकथन का सिलसिला बना रहा युगों युगों से...युगों युगों तक चूंकि, ब्रह्मांड देखे सारे ब्रह्मांड में जिस दृष्य को.. जिस सत्य को.. आदमी के पिंड उसे कैसे देख पाएँ.. कैसे कह पाएँ....दूसरे पिंडों से...? स्वयं कृष्ण बुद्ध जैसों ने... प्रबुद्ध ब्रहमांडो ने कहने की पुरज़ोर कोशिश की.... पर समझ पाए शायद कुछ ही क्योंकि जागा होगा शायद... उन कुछ के ही ध्यान में स्वयं ब्रह्मांड -अरुण देखना.. समझना ************** देखने का.. समझने का अलग अलग है अंदाज घाट पर बैठकर जलप्र...