सितंबर २०१७ कीरचनाएँ

मन ठहरा.. मन बहता
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बहती धारा में
नदी का पानी... हर क्षण है नया
किनारे खड़े पेड़ों की छाया ने
कुछ हिस्सा नदी का ढक दिया
ढका हिस्सा रुका...थमासा लगता है
छाया के बाहर.....पानी बहतासा दिखता है

इसीतरह वर्तमान पर
छाया भूत की पड़ते ही
चेतना बंटी दो हिस्सों में
एक हिस्सा...मन ठहरा हुआ..
तो दूसरा....मन बहता हुआ
– अरुण
कहा न जाए.. बिन कहे रहा न जाए
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जो कहा ही नही जा सकता....उस सत्य को
लोग कहे बिना न रह सके...
न ही जानने का कुतुहल थमा....
न ही कहने की विवशता
सत्यकथन का सिलसिला बना रहा
युगों युगों से...युगों युगों तक

चूंकि, ब्रह्मांड देखे सारे ब्रह्मांड में
जिस दृष्य को.. जिस सत्य को..
आदमी के पिंड उसे कैसे देख पाएँ..
कैसे कह पाएँ....दूसरे पिंडों से...?

स्वयं कृष्ण बुद्ध जैसों ने... प्रबुद्ध ब्रहमांडो ने
कहने की पुरज़ोर कोशिश की.... पर समझ पाए
शायद कुछ ही
क्योंकि जागा होगा शायद... उन कुछ के ही ध्यान में
स्वयं ब्रह्मांड
-अरुण

देखना.. समझना
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देखने का.. समझने का
अलग अलग है अंदाज

घाट पर बैठकर जलप्रवाह देखना दूर से
और जल में घुलकर..ख़ुद प्रवाह बनजाना..
नदी का..

जिंदगी को अक्सर लोग देखते ही हैं
देखकर सोचते ही हैं
सोचते सोचते कहे जाते हैं जो कहना है

समझनेवाले तो हैं बिरले जो
जिंदगी पर सोचते नही
न ही कुछ कहते हैं
जिंदगी में घुलकर
ख़ुद प्रवाह बन जाते हैं..
जिंदगी का
-अरुण

मन की शांति मन से संभव नही
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केवल कभीकदा ही
यह चित्त उलझन में भी शांत लगता है
वैसे तो हमेशा कुछ न कुछ चाहता..खोजता
परेशान है...
कई बातें उलझाती हैं उसे और फिर..
वह भागा फिरता है
किसी गुरू..राह..ग्रंथ.. मान्यताओं या टोटकों की तलाश में
जो उसे मुक्त कर दे सारी झंझटों से

समझनेवाली बात यह है कि
झंझटों से मुक्ति की खोज में युक्त मन भी
खींचातानी में व्यग्र होकर नयी परेशानियाँ मोल लेता है
मन अपने सीमित ज्ञान-सामग्री के भरोसे
मानसिक जटिलता से निपटने में असमर्थ है

ध्यान का प्रकाश ही मन की गाँठों को खोलकर
चित्त को सुलझन और शांत-अवस्था के
दर्शन कराने कराने हेतु सक्षम है
-अरुण
सुकून का ज़रिया
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जिसका न कहीं भी कोई भी छोर
ऐसा जगत क्यों भागे
किसी भी ओर से किसी भी ओर?

ऐसे जगत में
जहाँका हर कण.. हर क्षण
अपनी ही जगह बिना कोई चाहत धरे
बिना किसी मंजिल, बिना भाग दौड़
शांत तृप्त ठहरा हुआ है....
वहाँ
हरतरफ...हरतरह का शोर भी है....
शोर शब्दों का, शोर स्मृतियों का,
शोर भावनाओं की भिड़ंत का
शोर नाना तरह की अस्मिताओं का
शोर स्वार्थों की छीनाझपटी का...
शोर नादानी का, शोर पंडिताई का
शोर धार्मिक प्रतिस्पर्धा और कर्मकांडों का,
शोर राजनीतिक उठापटक, सत्ता-उन्माद
और निराश असफलताओं का

ऐसे में अब
दो शोरों के बीच छूटी ज़मीन ही
बनी हु    ई है
आदमी के सुकून का ज़रिया
-अरुण
द्वैत को दिखती दुनिया.. अद्वैत को ईश्वर
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दुनिया देखा करती हमको
हम दुनिया को देखें
मध्य दुनों में अंतर जबतक
‘अनुभव’ से हम चूंकें

अंतर होवे जब ‘अंतर’ में
केवल देखादेखी
एक दुजे में मिलन न होवे
तबतक सीखासीखी

देखसीख के रिश्ते जबतक
दुनियादारी जीए
घुलमिल जाते इकदूजे में  
ईश्वर-दर्शन होवे

अंतर ॰ न   म जबतक दुनिया से हो
हम, दुनिया... दो टुकड़े
अंतर लोपत दो टुकड़ों का
‘अंतर’......... प्रेम स्वरूपे
-अरुण

वक्त
****
किसी भी क्षण को नही पता कि
उससे पहले भी कोई क्षण आ चुका था..
पेड के नीचे पड़ा पत्ता
क्योंकर रखे हिसाब कि
कितने क़दम गुज़र गये
उसपर से होकर?

केवल हमारी बदनसीबी है
कि सर उठाने से पहले ही
हमारा वर्तमान
बीते अनुभवों के नीचे दबकर
मर जाता है
फिर भी हमें लगता है कि
हम रख सकते हैं हर वक्त का हिसाब
बिना जाने यह हकीकत कि
वक्त गिना नही जाता...
गिनी जाती है केवल
वक्त के ‘‘भूतों” की तादाद
-अरुण

ज्ञान और ध्यान का फ़र्क़
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टॉर्च जलाकर खोजना
इकइक कर हरचीज़
जले बल्ब, तो रूम की
साफ दिखे तस्वीर
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बुद्धि या मन जानता तो है परंतु, एक के बाद एक, अलग अलग..... इकट्ठा एक ही साथ एवं एक ही वक्त में नही।
इसतरह, मन द्वारा बारी बारी से जाने गए को, जोडतोडकर ज्ञान निर्मित होता है।
प्रबुद्धता... सारा का सारा साफ देख लेती है, ध्यान के एक ही प्रकाशपुंज में।
-अरुण

चार पंक्तियाँ
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शिकायत पे शिकायत किए जाते हो तुम
कुछ न कुछ तो माँगते ही रहते हो तुम
कुछ वक़्त ख़ामोश रहो और फिर देखो
ख़ुद से ही तो मुख़ातिब नही हो तुम?
-अरुण

वो कहीं दूर नही
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नाकाबिल नही हो के उसे पा न सको  
ना ही उसकी जगह है पहुँच के बाहर
बात बस इतनी सी है के बेहोशी में तुम
तलाश रहे हो उसे कहीं दिल के बाहर
-अरुण
भूल
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जिस ज़मीन को परछाई ढक देती है
उस ज़मीन को वह अपनी समझ लेती है
यही तो भूल किये जा रहा है यह बंदा
सज़ा इसीकी भुग्ते जा रहा है यह बंदा
-अरुण
अंतर-संवाद
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समझनेवाले तो सिर्फ़.....दिल से ही समझ पाते
समझ जगाने के...................रंग ढंग कई होते    
दिल में जलते हैं........शब्दों और इशारों के दिये
तभी जब.............,.,,,,,,,,दिल से दिल जुडे होते
-अरुण
ठहराव ही है ईश्वर
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ईश्वर की खोज में
इधर उधर भटकने से है बेहतर
ठहर जाना विश्रांत अपनी ही जगह
ताकि ईश्वर मिल सके ख़ुद आकर    
-अरुण
आत्म-समर्पण करता क्या है ?
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मानो बदन से सारा वज़न निकाल लेता है
मन से  मन की मनमन निकाल लेता है
फिर जब एहसासे कुदरत का होता एहसास
पूरी कायनात को साँसों में पकड़ लेता है
-अरुण
एक मुश्किल काम
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जिंदगीभर बेहोशीही काम आती रही
मन की हर चाह को राह देती रही
अब होश को चाहूँ भी..तो चाहूँ कैसे?
मनचाही बेहोशीसे.. पीछा छुडाऊँ कैसे?
-अरुण
जन्म-मृत्यु
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जन्म में ही रहती मृत्यु
मृत्यु में ही जन्म का आग़ाज़
आदमी के ज़हन में...
कोसो दूर दूर रहते.. दोनों
-अरुण

सबमें दिखती अपनी ही छाया
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अपने ही हाँथों से बनाई तस्वीर लिए अपनी
निकल पड़ोगे अगर चित में, इंसा तलाशने
मिलेंगी जो भी लहरें भीतर इंसानी..सबमें
देखेगी वो तस्वीर सिर्फ़ अपनी ही पहचान
-अरुण

टुकड़ों की ज़िंदगी
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चेतना तो है
एक की एक अटूट... अभंग
भले ही कभी उजली हो कभी धुँधली
तो कभी काली...

आदमी अपनी अधजगी अवस्था के कारण
उजली को ही पूरी चेतना समझकर
उसपर सवार होकर जीवन जी रहा होता है
और इस वजह से
उसकी ज़िंदगी है बंटी हुई..
टुकड़ों टुकडों में चेती हुई
जिंदगी
-अरुण
समग्रता
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जीने के वास्ते ही तो मन मिला...
इस मन से क्यों हो कोई शिकवा..गिला?

मगर छोड़कर जिंदगी को
जीए जाना केवल मन को और मन को ही...
शुद्ध पागलपन नही तो और क्या है?

दर्शन के लिए मिली हुई आँखों को मूँदे रखना कसकर और
बातें किए जाना दर्शनशास्त्र की...
शुद्ध पागलपन नही तो और क्या है?

समग्रता में जीना छोड़कर
केवल देह या केवल मन या केवल आत्मा की
चर्चा करते रहना....
शुद्ध पागलपन नही तो और क्या है?
-अरुण

निर्धन है निश्चिंत
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पास कुछ भी है नही जिसके वही मस्ती भरा निर्धन
मस्त रहता और चिंता दूर है उससे
वही है फूल जंगल का वही पंछी निरा उन्मुक्त
चिंता वो करे जिसके धरा हो पास कुछ भी धन
-अरुण

कोडा घोड़ा गाड़ी और उम्र भी
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कोड़ा फटकारा जाए
घोड़ागाडी दौड़ी जाए
कोड़ा समझे कि
घोडेपर है उसका ही इख़्तियार
घोड़े को लगे कि अगर गाड़ी दौड़ रही है
तो सिर्फ़ उसके ही बदौलत

ज़िंदगी की गाड़ी कुछ ऐसे ही दौड़ रही है
उम्र की राहपर
आदमी को होश है तो केवल
ज़िंदगी को हाँकते कोड़े का
ज़िंदगी को खींचते घोड़े का
गाडीवान का तो होश ही नही
जिसके इख़्तियार में है..
कोड़ा घोड़ा गाड़ी और उम्र भी
-अरुण
देखना
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देखने के तीन तरीके हैं।
पहला..ऊपरी दो आँखों से देखना...
दूसरा..मन में कल्पना के माध्यम से देखना
और तीसरा तरीक़ा है
समझ में जागकर देखना।
समझ का जागरण तभी घटता है जब
केवल देखना ही देखना होता हो...
दृष्टा और दृष्य का भेद मिटकर
शुद्ध दर्शन ही हो रहा हो।
-अरुण

नाम में ही छुपी क़ुदरत
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पहले से पहले
उससे भी पहले.. पहले और
उससे भी पहले...
आँखों में ही रहता था सूरज
उसको न कोई नाम था और न पता

मालूम नही सूरज को कब नाम मिला और वह
उस नाम में जाकर छुप गया
और
उस वक़्त से
सूरज अपने नाम से ही जाना जाता है
आँखें भी अब सूरज को जानना हो
तो आसमान में नही
दिमाग़ी किताब में घुसकर
उसे तलाशती हैं
-अरुण

ध्यान के बाहर
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एक वक़्त में
ज़िंदगी एक ही क़दम चलती है
अगला पाँव  पड़ता है इरादों की ज़मीन पर
पिछला पाँव अतीत की ज़मीन से उठता है ऊपर
ऐसे में,
अगले और पिछले के बीच की ख़ाली जगह
रह जाती है ध्यान के बाहर
हमेशा हमेशा के लिए
-अरुण
सत-रज-तम
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दोनों में भाग्यवाद ....... निठ्ठला या कर्माग्रही
सात्विक है संतुलित........श्रम और विश्राम बीच
जड़ता को तमस धरे ......त्वरा धरे......रजोगुणी
विश्रांतसरल सात्विक है.....कर्म के चलते चलते
-अरुण

‘धार्मिक’ अहंकारिता
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बुनियाद तो है
मजहबे इंसानियत ही
सभी धर्मों की
भुलाकर बुनियाद को इस,
बनावट को ही धरम की..
समझ लेना यह कि
यही है धर्म अपना..
भारी भूल है
यही तो भूल.. यह पब्लिक  
दोहराए जा रही है
नतीजा ये के आदमी को आदमी से
जोड़ने के वास्ते बने जो धर्म हैं
उन्हें ‘धार्मिक’ अहंकारिता
खाये जा रही है
-अरुण

तात्कालिक बनाम प्रतिपलिक
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गर्जन तर्जन…. बिजली का कौंधना..
जल बनकर धरापर बरसना…
सूरज को ढक कर..पसर देना अंधेरा
दिन में भी
चहुँओर …
यह है ऐसी तात्कालिक भावलीला
बादलों की…
आसमान की नही

आसमान तो है हमेशा
मौनभरे आनंद का धनी
क्योंकि वह है असीम ..
सभी दिशाओं में है...
है अपनी बाँहें फैलाए हुए
हर जड़ अजड को भीतर से
बिना किसी स्वामीभाव के पकडे हुए..
बाहर से उसपर..
बिना किसी प्रयोजन के आच्छादित..
है हर तन में..हर तने में है
मन में..मन के क्षणकण में है
है प्रतिपलिक
आज भी है.. कल भी था.. और कल भी होगा

बादल तो हैं बस मौसमी…
आते हैं.. चले जाते हैं….
कोई भरोसा नही उनका
-अरुण


शास्त्रों को कैसे पढें.. कैसे समझें?
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शब्द के बाहर ठहरकर
शास्त्र पढ़ना...
अर्थ इसका...
जानकर सुधि में सम्हलकर
शब्द-वस्त्रों से समझ को मुक्त रखकर
शास्त्र पढ़ना

शब्द केवल हैं इशारे
अर्थ संकेतित नही उनसे बँधा... यह तथ्य
धारे ही जगत के शास्त्र पढ़ना

सतगुणी
********
किए जाता है कर्तव्य
जिए जाता है जीवन
क्योंकि करते रहने में..
जीते रहने में
है आनंद
न भी कर सके या
करने से रोक दिया जाए
तो रुक जाता है
बिना कोई शिकायत किए

करना किसी ख़्याल से..
या कुछ पाने को नही
या किसी भी भय से नही
किसी मक्सद या मजबूरी से नही
बस जीवन की मुक्त गति में
पुलकित होने के लिए…..

जीता है…..यहीं और अभी
किसी भविष्य के लिए नही
न ही किसी अनुभूति की
प्रतिक्रिया बनकर
न सुख की लालसा है उसे
न दु:ख की विवंचना...
ऐसे सतगुणी
कभीकदा ही मिलते हैं
जीवन के किसी मोड़ पर
अचानक
-अरुण






























       

















     

 
     





























































Comments

नए शब्दों से परिचय हुआ .......मिलकर अच्छा
लगा !
सुंदर रचना रची है आपने...

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