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एक किस्सा

एक बाप को दो बेटे थे – शब्द्पंडित और बोधस्पर्शी वे जिस कमरे में बैठे थे..उसका दरवाजा बंद था और भीतर घुटन जैसी हो रही थी. बाप ने कहा - दरवाजा खोलो ! शब्द्पंडित ने ‘दरवाजा’ खोला..और भीतर से ‘द्वार’, ‘पट’, ‘पर्दा’ और ऐसे ही कई समानार्थी शब्दों की शृंखला बाहर निकल आई. बोधस्पर्शी ने दरवाजा खोला और भीतर ठन्डी बयार बहने लगी..और घुटन थम गई -अरुण

इसपर गौर करें

हमारी सारी शिक्षा पद्धति हममें ज्ञान ठूस ठूस कर भरने, दिमाग को वजनी, और अधिक जिताऊ -बिकाऊ बनाने की जिम्मेदारी संभालती है इस पद्धति ने दिमाग को फलने फूलने उसे सहज, सरल, स्पष्ट और निर्बोझ बनाने का जिम्मा राम भरोसे छोड़ दिया है. ठीक ही है, अभिभावक जो मांगते हैं वही तो पद्धति देगी. -अरुण

इसपर गौर करें

घनघोर अंधेरों को रौशनी की तलाश है खुद ही रौशन हो गया, वो अँधेरा खास है -अरुण       

इसपर गौर करें

सूर्य, धरती और एक तना पेड़.... तब परछाई पेड़ की.. तो होगी ही... इस परछाई पर न मल्कियत सूर्यकी न धरती की और न ही उनके बीच कोई भावनात्मक लगाव... ठीक ऐसे ही, अपने परिवेश के प्रकाश में खड़ा मानव शरीर ...जिसके भीतर उभरती परछाई यानि मानव मन.. मगर ढंग अलग ... इसकी मल्कियत शरीर पर और परिवेश पर भी ....................... अरुण    

इसपर ग़ौर करें

इसपर ग़ौर करें ***************** बंधन तोडने की प्रक्रिया का नाम आजादी नहीं है। बंधन को जन्म देनेवाली प्रकिया के प्रति  सजग रहना ही आजादी है मतलब - सजगता ही आज़ादी है   आज़ादी के लिए किसी अलग से की गई कृति की जरूरत नहीं ............................... अरुण