आठ रुबाईयां

आठ रुबाईयां
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रुबाई १
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प्यार में गिरना कहो ....या मोह में गिरना कहो
इस अदा को बेमुर्रवत .....नींद में चलना कहो
नींद आड़ी राह ..जिसपर पाँव रखना है सरल
जागना चलना ना कह, उसे शून्य में रहना कहो
- अरुण
रुबाई २
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जिंदगी द्वार खटखटाती, हाज़िर नही है
टहलता घर से दूऽऽऽर, ..हाज़िर नही है
ख़याली शहर गलियों में भटकता चित्त यह
जहांपर पाँव रखा है वहाँ  हाज़िर नही है
- अरुण
रुबाई ३
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कुदरत ने जिलाया मन. ..जीने के लिए
होता  इस्तेमाल मगर......सोने के लिए
जगा है नींद-ओ- ख़्वाबों का शहर सबमें
मानो जिंदगी बेताब हुई....मरने के लिए
- अरुण
रुबाई ४
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खरा इंसान तो इस देह के.. अंदर ही रहता है
वहीं से भाव का संगीत मन का तार बजता है
जगत केवल हुई मैफिल जहाँ संगीत मायावी
सतत स्वरनाद होता है महज़ संवाद चलता है
- अरुण
रुबाई ५
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बाहर से मिल रही है ..पंडित को जानकारी
अंदर उठे अचानक.......होऽती  सयानदारी
इक हो रही इकट्ठा........दुज प्रस्फुटित हुई
यह कोशिशों से हासिल, वह बोध ने सवारी
- अरुण
रुबाई ६
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'जो चलता है चलाता है उसे कोई'
ज़रूरी है?... ये पूछे स्वयं से कोई
चलाता जो... कहाँ से आगया चलकर?
नही उसके चलन की...वजह कोई?
- अरुण
रुबाई ७
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लिए निजता नींद में ....बस रहा हर आदमी
खाट वही सपन अलग चख रहा हर आदमी
जब सोना,  सोता है, अलग अलग सपनों में
एक ही धरातल... जब, जग रहा हर आदमी
- अरुण
रुबाई ८
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दिन को दिन न कहो, कहो के रात कम है
हर हँसी के दूसरे छोर.......हंस रहा ग़म है
जगत में कुछ भी किसी से नही अलग होता
घाव की गहराई में ही....उसका मरहम है
- अरुण

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