फ़रवरी २०१७ में लिखी रचनाएँ

१ फ़रवरी से २८ फ़रवरी २०१७ तक
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क्रांतिमय सही स्वर
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आदमी ने ही आदमी को बिगाड़ा है
जिसे जैसा लगा वैसा उसे मोड़ा है
उसे सीधा कर सकने के दावेदार कई
एक भी नही जिस्ने सीधा कर छोड़ा है

सीधा करनेवालों की कोशिशें बाहर बाहर
पर मुडावट तो घटी है अंतस्थ के भीतर
स्वयं के अंतस्थ में जो झाँक सका अपने से
उसके ही भीतर बज पाया क्रांतिमय सही स्वर
-अरुण

दिल सुकून.. मन ख़ुराफ़ात
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खिडकी से बाहर
केवल झांकना ही झांकना हो
तो दिल में है सुकून ही सुकून
पर अगर झांकती आँखों में
भापने, जांचने, नापने, बूझने जैसी
शैतानियत का अंजन लगा हो...
तो कई खुराफातें सताने लगती हैं मन को

दरअसल,
दिल का मतलब ही है सुकून और
मन का सिरफ ख़ुराफ़ात
-अरुण

वैज्ञानिक एवं ज्ञानिक
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अवास्तविकता से सत्य तक का सफ़र
वास्तव से होकर गुज़रता है...

वैज्ञानिक किसी वैज्ञानिक निचोड़ के साथ
वास्तव पर ही ठहर जाता है

ज्ञानिक को वास्तव में भी
छुपी-अवास्तविकता के दर्शन होते रहते हैं
और इसकारण उसका खोज-सफर
तबतक ठहरता नही जबतक वह स्वयं की
अवास्तविकता को भी देख नही लेता
-अरुण
कैसे संभव है?
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परछाई हाँथों की अपने
पकड़ी न गई हाँथों से
ख़ुद को ख़ुद से पकड़ूँ ?
कैसे संभव है?
आंखों में ही घने बादल
भले सामने हो सूरज
आँखों को दिख जाए?
कैसे संभव है?
-अरुण
समय और आसमां
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यादें कहती है
वक्त पीछे निकल गया है
इरादों को लगता है
समय तो आगे खड़ा है
समय तो वही और वहींपर है
कल आज और कलभी
और आसमां भी है वही का वही
ऊपर नीचे बाहर भीतर कहींभी
-अरुण

रंगीनीयत और पानीपन
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पानी में घुल गये हैं रंग कई
रंगीनीयत को पानी नज़र नही आता
पानीपन मगर बरक़रार रहे जल का
पानीपन को कोई भी रंग हटा नही पाता
-अरुण

गड़बड़ी है नज़र में
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गड़बड़ी है देखनेवाले की नज़र में
जिंदगी हर हाल में दुरुस्त है
नोचते हुए दिखते हों लहरों को तूफ़ान... मगर
समंदर तो हर हाल में मस्त है
-अरुण

भागे जा रहा है....
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भागे जा रहा है हर कोई, नही है कहींभी पहुँचना उसे
बस जहाँ है वहाँ से तुरत निकल पड़ना उसे

पूछता ही रहता है कई ठिकानों का पता
बग़ैर जाने कि अभी कहाँ है वह...किस ठिकाने

सवालों पर सवाल पूछे जाता है इसलिए नही कि उसे कुछ जानना है
बल्कि इसलिए कि उसने क्या जाना अबतक..... वह उसे जतलाना है
-अरुण

लगना और होना
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जैसा लगता है वैसा होता नही है
जैसा होता है वैसा लगता नही है
ध्यान से देखो तो सच्चाई समझ आती है
ध्यान अगर देखकर हो.. तो सच्चाई खो जाती है
-अरुण


अंतर-सुसंगती
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सितार से
संगीत अवतरित होता है
यह केवल सितार के तारों की कमाल नही,
केवल उन उँगलियों की भी देन नही जो तारों को छूती हुई
गतिशील होती हैं
न ही सारा श्रेय बजानेवाले के अंतरंग में
गूँजनेवाली स्वररचना को दिया जा सकता है

तीनों की आपसी अंतर-सुसंगती से ही सितार
बोल उठती है
-अरुण

मै वास्तविक हूँ
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“मै न आस्तिक हूँ, न नास्तिक हूँ,मै वास्तविक हूँ”
यह बात देश के एक महान रामकथा वाचक
के मुख से जब सुनी तो मन प्रसन्न हो गया।
ओशो के बारे में, मुरारी बापूजी महाराज
अपनी सोच को अभिव्यक्त कर रहे थे,
यह बात उन्होंने उसी समय कही
-अरुण

तन या मन
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तन, मन को चलाय
या मन, तन को...समझ न आय
न रह जाए दोनों में अंतर तो..
सवाल सुलझ जाय
-अरुण
वही बेसुर लगे
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झूठ सबके जिंदगी का प्राण है
सच की नज़दीकी से मन को डर लगे
मौत की आहट निकट से जब सुनी
जो रमाती धुन... वही बेसुर लगे
-अरुण
आमने-सामने और एकांत
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सामने से ही फले है आमने
आमने के सामने अरि-मीत है
भीड़ में हर आदमी एकांत होवे
जगत तो एकांत का ही गीत है
-अरुण
तात्पर्य
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‘तू’ की कल्पना में ही ‘मै’ की कल्पना जन्मती है। ‘मै’ के सामने कोई न कोई होता ही है-शत्रु या मित्र। ये आमने-सामने वाले संबंध अस्तित्व में होते ही नही। अस्तित्व में हर कोई एकांत में है (अकेला नही)। अस्तित्व तो एकांतमयी है।
-अरुण

क्या यह सच नही कि-
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छोटे छोटे बच्चों के साथ बैठकर गुड्डीगुड़िया जैसे बच्चों के खेल खेलनेवाले अभिभावक,
खेल में रमते हुए भी खेल से बाहर रहते हैं। परंतु अपनी निजी जिंदगी में अपने सांसारिकता के खेल से बाहर निकल नही पाते.....खेल में रमते हुए उसी में डूब जाते हैं।
-अरुण

मन संरक्षक या भक्षक
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हज़ारों वर्षों से गुजरकर शायद
उत्क्रांति ने
आत्मरक्षा के लिए आदमी के भीतर
मन को जन्माया है
मगर संरक्षण के नाम पर
मन के भीतर से
सृष्टि-संहार का ही दौर चल आया है

मन ने जंगल उजाड़े, प्राणियों और पक्षियों को
नष्ट किया और अब
सारी मानवता को ही बर्बाद करने का
इरादा रखते हुए
कई न्यूक्लिअर हथियार
इजाद कर रखे हैं
-अरुण


मन ले जाता है असलियत से दूर
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यादें ही याद करती हैं
यादें ही याद आती हैं
याद करना भी
और याद आना भी
दोनों ही साथ साथ
एक ही वक्त एक ही जगह
यादों के द्वारा ही

फिर भी आदमी समझता है
कि वही है जो याद करता है यादों को

समझ की उसकी इस
मूलभूत नादानी ने ही
उसके जीवन को
कई अन्य नादानियाँ से भर दिया है
कई परेशानियों में उलझा दिया है

ऐसे में,
अंतर-जागरण ही असलियत को
उजागर करता है
-अरुण

जानकार तो आदमी ही
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पीपल का पेड नही जानता
कि उसका नाम पीपल है
न ही बरगद अपनी विशेषता
को जानता है

अपनी अलग पहचान या जानकारी
तो आदमी की मजबूरी है
किसी और की नही

औरों को जीवन चलाने के लिए
कुदरत से बना हुआ उनका एकत्व ही
काफ़ी है
इसी एकत्व से दूर हो चुके आदमी को ही
जानकारी की जरूरत है
-अरुण
नया ही नये के काम आता है
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पुरखों ने दी है हमें
हमारी अपनी दुनिया
इस दुनिया की समस्याएँ भी हमारी अपनी हैं
और इसालिए समाधान भी होने चाहिए हमारे अपने....
इतना ही नही....आगे आनेवाली संतानों को भी
मिलने चाहिए जीवन जीने के ऐसे मौके,
जो हों उनकी अपनी परिस्थिति और समझ के अनुसार
नया ही नये के काम आता है
पुराना उसे आगे बढ़ने से रोक देता है
-अरुण
क्या है मेरा?
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“क्या है मेरा
और क्या मेरा नही है?”

इस बात पर सोचने से पहले
मुझे यह सोचना पड़ रहा है कि
मै क्या हूँ और मै क्या नही हूँ?
हूँ भी या नही?
गर हूँ तो कहाँ से कहाँ तक हूँ?

इन सवालों पर ही सोचते सोचते
जिंदगी कट जाए शायद!!!
-अरुण
देखना या घुलमिल जाना
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देखने के लिए जो देखना हो उससे कुछ दूर रहकर ही देखा जाता है
अगर उसमें घुलमिल जाओ तो फिर कौन किसको देखे?

जिंदगी को देखकर जीना है.....एक तजुर्बा... जो बयां हो सके
जिंदगी में घुलमिल जाना है.... एक एहसास.... जो बयां न हो सके
-अरुण



सफ़र एक ही मगर सोच अलग
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जिंदगी का सफ़र तो
एक ही है हमसब का.....
एक ही रास्ते से हम सब गुज़र रहे हैं
परंतु ‘चलना’ उस रास्ते पर हर किसी का
है अलग अलग
हरेक का ज़हन उसकी अपनी
‘चलने की अनुभूति’
का ही संचय होने के कारण
वह सोचता है कि वह और उसका सफ़र
दूसरों से अलग है
-अरुण

मन तो है एक भीड़
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दो या दो से अधिक लोगों में संवाद चले...
यह कोई नई बात नही
परंतु मन के बाबत ...
बात कुछ अजीबसी है

हरेक का मन उसका अपना एक निजी मामला होते हुए भी
वह मन...कभी भी एक या अकेला नहीं होता
एक ही समय..
मन कई भूमिकाओं में
बँटा हुआ रहता है
बोलनेवाला भी वही....सुनने वाला भी वही
दोनों को आपस में बोलते-सुनते हुए
देखनेवाला भी वही....
वही बहकता भी है और वही उसे बहकने से
रोकता भी है...
ग़ुस्सा भी करे वही और ग़ुस्से को
शांत भी करे वही...

बहुभूमिकाओं में उलझा हुआ यह
मनुष्य का निजी मन
कभी भी चुप नही रह पाता
वह अशांत है... वह अकेला नहीं
हमेशा एक भीड़ का रूप लिए हुए है
-अरुण


दुनिया होते रहने.. चलते रहने का नाम
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आकाश में, धरतीपर और ज़मीन की गहराई में
हरपल हरक्षण कुछ न कुछ होता ही रहता है

आदमी के संदर्भ में भी बात अलग नही, वही है।
उसके बाहर भीतर और सतह पर
किसी न किसी बदलाव का दौर
चलता ही रहता है
ऐसे ही होते रहने... चलते रहने
से ही दुनिया चल रही है

जब आदमी अपने होते रहने या चलते रहने से
ध्यान हटाकर बाहर देखता है तो उसे लगता है कि
दुनिया एक ठहरे हुई वस्तु या आकार के रूप में है

जब अपने में होते बदलावों को भुलाकर
ख़ुद को देखता है उसे लगता है
वह किसी अहंकार के रूप में है
-अरुण









































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