अप्रैल २०१७ की रचनाएँ


अप्रैल २०१७ की रचनाएँ
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‘पागलपन’ 
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हाँ, यह ऐसा पागलपन है
जो हमेशा सवार है सरपर,
पर, इस ‘पागलपन’ को 
उभारती रहती जो बत्तियाँ...  
वो तो जलबुझ रही हैं 
सर के भीतर

उन बत्तियों के जलतेबुझतेपन पर 
ध्यान आ टिके तो ‘पागलपन’ हटे...
ध्यान के अभाव में ही
यह पागलपन घटे

ऐसा यह ‘पागलपन’ 
इस दुनिया में 
जीने के लिए ज़रूरी है
और इस ‘पागलपन’ को ही,
सयानपन समझ लेना
आदमी की मजबूरी है
-अरुण
मुक्तक
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आँखों में भरी हो पहले से जो सोच
वह सोचै देख रही दुनिया
सीधे उतरे जो आँखों में तस्वीर
वह तस्वीर न देखी जाए है 
-अरुण 
बच निकलने के लिए
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आसमां में है चमकता सूरज 
है धूप ही धूप चहुँओर 

फिर भी 
आदमी को तो मिल ही जाती हैं परछाईंयां 
बच निकलने के लिए 

बोध के सागर में ही डूबी हुई है
सकल की अंतर-आत्मा  
फिर भी मिल गया है आदमी को
मनबुद्धि का सहारा.... बोध से 
बच निकलने के लिए
-अरुण
कोई नही है देखनेवाला
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बस, देखना ही देखना तो है यहाँ 
कोई नही है देखनेवाला
सोचना... मस्तिष्क का व्यापार केवल
कोई नही है सोचनेवाला

बस, क्रिया या प्रक्रिया ही जिंदगी है
कर्म कर्ता.. नासमझ की समझदारी
नासमझ की खोज हैं सारे विशेषण
नाम और आकार मन की देनदारी

येही दुनिया की हकीकत की हकीकत
फिर भी दुनिया मान्यता से चल रही है
फिर भी नासमझी के क़िस्से सबके हिस्से
मोह मायाही असल.. लगती खरी है
-अरुण
चेतना का सागर
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सागर की हर लहर
सागर से ही निकलती 
और खो जाती है सागर में ही
पर सागर में गिर जाने तक
वह अपने को सागर नही 
एक भिन्न अस्तित्व 
समझती है

बात सागर की नही, मन की हो रही है
चेतना के सागर में 
मन उठता और खो जाता हो भले ही 
पर जब उठता है
अपने को ही समझता है
सबकुछ 
-अरुण
ज्ञान बनाम अवधान
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शब्दकोश में
शब्दों का अर्थ समझानेवाले शब्द 
उसी शब्दकोश के हिस्से होते हैं

मानव मस्तिष्क भी जो जान लिया गया है
उसको जोडतोड कर ही 
कुछ नया सोच पाता है

मनुष्य का समग्र अवधान ही 
सकल अस्तित्व को
अपने बोध से छू सकता है

मनुष्य का ज्ञान तो
बहुत बहुत बहुत सीमित और कामचलाऊ है
-अरुण
जी रहे हम जिंदगी जो
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हम वह जिंदगी जी रहे हैं
जिसमें हैं सवाल ही सवाल 
और जवाब ही जवाब

उस जिंदगी पर तो 
हम अभी जागे ही नही
जहाँ केवल हैं
जवाब ही जवाब
बिना किसी सवाल के
-अरुण

क्या गिनते और कौन गिनता?
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अनुभवों को गिनने बैठ जाओ
तो समय के टुकड़े हाँथ लगते हैं
समय की गिनती करो 
तो अनुभव याद आते हैं

अनुभव न होते 
तो समय का क्या होता?
और अगर इनके टुकडे ही न होते
तो क्या गिनते और कौन गिनता?
-अरुण

सोच अजीब तो बोध अजब
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राह पर चलना पकडना जो भी चाहा...
मानो..
राह भी गर साथ चलती
उस गति से जिस गति से
चाहनेवाला चले फिर?   
फिर कुछ न होता..
न चाहना, न चलना, न पकड़ना...
न राह और न ही राही कोई
-अरुण
अजीबसा एहसास
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चल के आता हूँ जिस राह से
उसीको रखकर सामने 
फिर से
चलता रहता हूँ..

लम्बे समय चलने के बाद ही
जान पाया कि
अपने ही रचे रास्तेपर 
ज़िन्दगीभर चलता रहा.....
नया कुछभी न देख पाया
-अरुण

आदमी हर पल सरल साधा
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सरल और साधा हुआ हर आदमी हर हाल में
कठिनता ऐसी कि समझे वह स्वयं को कुछ विशेष
बैठा हुआ है धूप में और निकट हरदम सूर्य है
पर लगे उसको कि सूरज..... बंद दरवाज़ों में है
-अरुण
आग विभक्ति की
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बुझानी आग हो तो क्यों धुएँ से जाके कहते हो
कहो पानी से......पानी ही बुझाए आग की लपटें
उडे है मन धुआँ बन, जब लगे है आग अलगावी
बुझा सकता है जल भक्तिका ज्वाला-ए-विभक्ती को
-अरुण

मन से मुक्ति
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लहरों का शोर तब...
शोर ना लगे
कोलाहल ह्रदय को दे रहा
हल्कासा स्पर्श
मन का बवंडर पड़ गया हो शिथिल जब
ना दु:खदायी होवे कछु
ना देत हर्ष
-अरुण
कुछ मुक्तक
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हटे जब मोह बाहर का, खुले इक द्वार भीतर में  
पुकारे खोज को कहकर- यहाँ से बढ़, यहाँ से बढ़

भरी ज्वानी में जिसको जानना हो मौत का बरहक*
उसी को सत्य जीवन का समझना हो सके आसाँ 

जिसम पूरी तरह से जाननेपर रूह खिलती है
‘कंवल खिलता है कीचड में’ – कहावत का यही मतलब

ख़यालों भरी आँखों से मै दुनिया देखूं 
दुनिया दिखे ख़यालों जैसी 

अँधेरे से नहीं है बैर.......... रौशनी का कुई 
दोनों मिलते हैं तो रौनक सी पसर जाती है

बरहक = सत्य, * सिद्धार्थ (भगवान बुद्ध) के बारे में
-अरुण
मुक्तक
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नजर में उतरी दुनिया
या के मैंने उसे उतारा
दिखना कहो या देखना
खेल तो एक ही है सारा
-अरुण

रोज़ाना की जिंदगी
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दो सांसो को चलाए रखने....
देह को पोसना पड़ता है 
अपनी अस्मिता बनाये रखने...
संबंधो को सँवारना पड़ता है 
देह को पोसना यानी..श्रम करने की जरूरत 
और संबंधो को सवारने के लिए..
जरूरत है
किसी न किसी व्यवस्था की 

श्रम यानि सारे अर्थ-कलाप 
व्यवस्था यानि सत्ता, संघर्ष, प्रतिरक्षा,
नीति-नियम, कायदे, रिवाज

आदमी की रोज़ाना जिंदगी
इन दो सांसो और अस्मिता के 
रखरखाव के सिवा 
और कुछ भी नही
-अरुण  


एक झूठ से ही निकले दूसरा झूठ
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जगत में पिंजड़ा और पक्षी दोनों हैं 
अलग अलग 
परंतु मन-पटल पर पक्षी अपने चहुंओर 
पिजड़ा लेकर ही अवतरित होता है 
और फिर बाहर निकलने के लिए फडफडाता रहता है 

मन में विचार का पक्षी उड़े...बिना किसी आकाश के...
आदमी ऐसा सोच ही नही पाता
जहाँ विचार का संचार होगा
वहाँ आकाश का बंधन तो होगा ही
विचार होगा तो विचारक भी होगा ही
एक झूठ के पेट से ही निकलता है
उससे जुड़ा.... दूसरा झूठ
-अरुण
समस्या या उलझन
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समस्या या उलझन
जब अपने से सीधे सीधे बोलती है..हम उसे ठीक से देख लेते हैं
परन्तु जब उसे देखते वक्त हम अपने से ही
बोलने लगते हैं..... समस्या को पूरी तरह देख नही पाते 

समस्या को बिना किसी बडबडाहट या हडबडाहट के 
पूरी तरह देख लेना ही 
समस्या का हल है...
उसे अधूरे या अस्पष्ट देखना 
उसे न देखने जैसा ही है 
-अरुण  
आध्यात्म बोध है... शब्दों का शोध नही
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एक बाप के दो बेटे थे – 
शब्द्पंडित और बोधस्पर्शी

जिस कमरे में वे तीनों बैठे थे..
उसका दरवाजा बंद था और भीतर घुटन जैसी हो रही थी

बाप ने कहा – दरवाजा खोलो ! 

शब्द्पंडित ने ‘दरवाजा’ खोला..और भीतर ‘द्वार’, ‘पट’, ‘पर्दा’ और ऐसे ही 
कई समानार्थी शब्दों की शृंखला घुस आई पर घुटन तो होती ही रही

परंतु जब बोधस्पर्शी ने दरवाजा खोला तो कमरे में ठन्डी बयार बहने लगी..
घुटन थम गई 

आध्यात्म बोध है... शब्दों का शोध नही
-अरुण
बोधिवृक्ष
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“आँगन में यहाँ जो वृक्ष खड़ा है
कहना गलत नही कि 
वह इस सूबे.. पृथ्वी..
सारे ब्रह्म में खडा है”

यह तथ्य 
एक सत्यबोध बनकर
जिनके ह्रदय में उतरा होगा 
उनके लिए वह वृक्ष... केवल वृक्ष नही
एक बोधिवृक्ष बन गया होगा
-अरुण
मुक्तक
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डूबजाना समंदर में... है लहर की फ़ितरत 
'आगे क्या?'- यह सवाल भी साथ में डूबे  

मोक्ष मुक्ती की करो ना बात अभ्भी
बंध बंधन का...समझ लो...बस बहोत है

न ही उम्मीद कुई और न ही मै हारा हूँ
पल पल की जिंदगी ही.. अब जिंदगी है
-अरुण
मुक्तक
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इस तट की लम्बाई ......उस तट से दिखती है
उस तट की.. इस तट से

चाहो गर, जीवन पूर इक पल में देख सको......
अगर देख सको उसको
अपने ख़ुद से हट के
-अरुण
मुक्तक
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आकार देख पाया नही .........निराकार को
नाम दे सको न कभी तुम.........अनाम को
धुरी नही हो ऐसा कोई...... चक्र भी कहाँ 
इच्छा करे ना.. ऐसा कोई मन नही कहीं 
-अरुण

पंछी और पिंजड़ा
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पंछी चाहे 
पिंजड़े की पकड से छूटना,
यह बात सही सहज स्वाभाविक है, परंतु
जिस क्षण पंछी का अपने भीतर फड़फड़ाना
पिंजड़े के लिए कष्टदायी बने, आदमी 
उसी क्षण की तलाश में बेचैन है 
क्योंकि 
आदमी अपने को 
कभी पंछी समझता है तो 
कभी पिंजड़ा..
यह देख ही नही पाता कि
वह स्वयं पंछी भी है
और पिंजड़ा भी....
-अरुण

 













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