जुलाई २०१७ की रचनाएँ

मुक्तक
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कहीं कोई मूल भूल हो गई है शायद
अबतो जो भी हो रहा..गलत ही गलत
अबतो ग़लतियाँ ही सही लगने लगी हैं
ग़लतफ़हमी ही हमारी जिंदगी है शायद
-अरुण
मुक्तक
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सारा आकाश सारी धरा ही सामने धरी है
अपने आँगन के परे जा न सकी आँखें मेरी
इशारे सृष्टि के हर आदमी की ओर करते ‘वे’
मगर अपने ही मतलबमें अटकती सोचें मेरी
-अरुण
मुक्तक
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न साकार न निराकार से परिचय है अस्तित्व का
अस्मिता को तो साकार ही साकार नज़र आता है
अस्मिता ने जो पहन रखा है अहं का ठोस आकार
अब दो शब्दों का अंतराल भी शब्द बन जाता है
-अरुण
मुक्तक
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छत और चार दिवारी को
भले ही  कोई एक पकड लेवे
बीच की जगह ख़ाली..........
किसी एक की नही.. सबकी होवे

चेतना-आकाश में
उड़ते पंछियों को पकड़नेवाले
कभी भी
आकाश को नही पकड पाते
क्योंकि वह सबका होवे
-अरुण
यादों का इकट्ठापन
*****************
अपनी यादों का इकट्ठापन ही तो है....
हर एक का अपना मन
इन्ही इकट्ठा यादों से खेलता रहता है..
हर एक का अपना मन

इसतरह हर कोई अपने बीते का ही रूप है
जिसपर
वर्तमान की धूप होते हुए भी वह
विगत के तमस विचरकर
किसी अनजाने प्रकाश की तलाश में
अपनी पूरी जिंदगी बिता देता है
-अरुण

मुक्तक
******
बेहद को जानने का ख़्याल-ओ-कोशिश
है बेहद से भाग जाना
ख़ुद की हदों का समझ में उतरना फिर से
है बेहद हो जाना
-अरुण


हर पल नया
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वैसे तो हर पल नया है
और
हर इस पल की
ख़ुशबू भी नई

पर यह नया पल
गुज़रे हुए..बीते हुए पलों को
परिचितसा लगता है...
और यही है वह वजह कि
पलों का नयापन दिखता ही नही
किसीको भी... कहींपर भी
-अरुण
प्रतिबिंबन
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बीती हुई जिंदगी के सारे
छोटे बड़े अनुभव और उन
अनुभवों के अनुभव
मन के दर्पण में,
हर उपस्थित पल प्रतिपल
प्रतिबिंबित होते रहते हैं

यही प्रतिबिंबन है
हमारा चेतस्वरूप जो एक
जीवंत इकाई के रूप में
जिंदगी जी रहा होता है

हम कुछ भी नही हैं...
हैं बस यही प्रतिबिंबन
-अरुण

कल..आज और बीता कल
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स्मृतिमय स्वप्नमय मन की
उपज है समय
जहाँ से
जागृति के अभाव में
आभासित हो रहा है...आदमी को
उसका कल..आज और बीता कल
-अरुण
ध्यान
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सूरज को घर घर जाने की जरूरत नही
अपनी जगह बैठे ही पहुँच जाता है
ध्यान का नही होता केंन्द्र कोई
ध्यान की पलक खुली ही नही कि
जगत सारा उसमें उतर आता है

बढ़ते चलतें हैं विचार जिससे आशय बनता है..
जुड़ते चलतें  है अनुभव हर पल के और अहंकार ढलता है

अहंकार ही समय का जनक है
अहंकार ही है
अनुभव-उत्पन्न ज्ञान का
संचयक
माया का संचालक

ध्यान न बढ़ता है न चलता है
एक ही पल एक ही स्थल
जगत के मूल स्वरूप को
समझ की निराकार काया में धर लेता है
-अरुण
एक का एक
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जो जानना है
है उसीका अभिन्न अंश
उसे जाननेवाला
मानो बैठा है बिना तराशे पत्थर में ही
मूरत को देखनेवाला

दिखा-देखा का काल्पनिक भेद तो
अहं की सहुलियत है
क्योंकि हर काम के पीछे
छुपी-खुली होती
अहं की कोई नीयत है

जहाँ न मक्सद न नीयत है
वहाँ सब एक का एक
न किसी भेद की जरूरत है
-अरुण


मुक्तक
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फूल पत्थर हवा पानी धरती आकाश
किसी के भी नही होते
फिर... तजुरबों का कोई तजुरबेकार
कैसे हो सकता है?

जैसे किसी छत से होकर गुज़रती हवा पर
उस छत की कोई मिल्कियत नही होती
वैसे ही किसी तन-मन को छूते एहसास भी
किसी तन-मन विशेष के नही हो सकते

फिर...आदमी का तजुरबा
उस आदमी को अपना क्यों लगता है?

यह तो अजूबा ही होगा कि
हर तजुरबा......
सिर्फ तजुरबा ही बनकर रहे..
बिना किसी नाम या
सर्वनाम की तख़्ती पहने
-अरुण
मुक्तक
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कहते हैं
उपनिषद के सूत्र हैं केवल अंतर-यात्रा के सूत्र

बाहरी यात्रा यानि
प्रापंचिक...राजनैतिक लडाईंयों के सूत्र
तो हैं बिलकुल भिन्न

बाहरी यात्रा में जो जीतता है
उसको सिकंदर यानि सत्य
कहते हैं
अंतर यात्रा में तो केवल सिंकदर यानि
सत्य ही जीतता है
-अरुण
मुक्तक
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आसमां में चमकते हैं तारे जैसे
ज़मीं पर उगी हैं अनगिनत जीव सृष्टियाँ
"अपना होना इन सब से अलग है"
इसी मूलभूत भूल से ही फली हैं
समझ मे आदमी के
सारी ग़लतियाँ
सारी ग़लतफ़हमियाँ
सभी समस्याएँ और संघर्ष

जीवन का आध्यात्म
आदमी को इसी मूलभूत भूल पर
जगाने के काम में जुटा है
सदियों सदियों से
-अरुण

अनुभव की परिपक्वता
*******************
पेड पर अच्छी तरह और पूरी तरह से
उगे हुए-पके हुए फल...
पेड को बडी ही सहजता से छोड देते हैं

सांसारिकता के अनुभव भी अगर परिपक्व हों
तो ऐसे अनुभव
ऊबकर सांसारिकता से सहज ही मुक्त हो जाते हैं

अधपके... कच्चे अनुभवों वाले ही
संसार-वृक्ष को छोड़ने से
या तो डरते हैं
या वृक्ष के मोह में रहते हुए
उसे त्यजने का ढोंग रचते रहते हैं
-अरुण
क्योंकर ढूंढे तू भगवान?
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क्योंकर ढूंढे तू भगवान?
खुदको ढूंढो कहाँ खो गया
तेरा तन मन प्राण....

इसमें घाटा वहां कमाई, दौड़ धूप में दिवस गंवाई
हर पल सोचत रहता मन में कहाँ नफा नुकसान
क्योंकर ढूंढे तू भगवान?

हुई रात तो पलक झुक गई, दिन होते ही आँख खुल गई
बंटा रहा पर स्मृति सपनों में तेरा असली ध्यान....
क्योंकर ढूंढे तू भगवान?
C
यह धरती यह नीला अम्बर, तुझसे अलn
ग नहीं यह क्षणभर
फिर भी तुझको भ्रान्ति हुई है तेरा अलग विधान....

क्योंकर.  ढूंढे तू भगवान?
खुदको ढूंढो कहाँ खो गया
तेरा तन मन प्राण
-अरुण

आईना
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आईने के भीतर
आईने का प्रतिमा-विरहित
शुद्धतमरूप देखने के लिए
जब भी झाँकता हूँ
वहाँ अपनी ही प्रतिमा नज़र आती है

ये तो आईना है जिसका
सरोकार किसी खास से नही
जो भी सामने आए
प्रतिबिंबित तो हो जाता है

फिरभी किसी भी प्रतिबिम्बन को
आइना पकड़कर नही रखता

जीवन का शुद्धतम स्वरूप
ऐसा ही प्रतिमा विरहित
प्रतिबिम्बन मात्र है
-अरुण

तन मन संयोग
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बीज में जो सुप्त बैठा वृक्ष
बीज बोते प्रकट हो जाए
वृक्ष-छाया का पड़े जब बीज
मनु मनस मन-वृक्ष बन जाए

सामाजिक परिवेश में
ढले-पले
इस आदमी का जीवन
तन और मन के वृक्षों का ही
सांयोगिक जीवन है
-अरुण

मुक्तक
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याद ही यादों को याद ‘करती’ है
याद ही यादों को याद ‘आती’ है
करती आती हुई यादें ही हैं विचारों की गति
छोड़ती नही कहींभी अपने क़दमों के निशान
-अरुण

मस्तिष्क के पास याद जगाने की क्षमता है, परन्तु मस्तिष्क याद नहीं करता, न ही मस्तिष्क के भीतर कोई याद-संचय है। याद तो केवल याद को ही आती है। याद ही याद को बुलाती है, याद ही याद की कल्पना करते हुए स्वप्न, चिंता, सुख, दुःख …ऐसी कई भाव स्थितियों का एहसास उभारती है।
-जिस तरह नर्तक से नृत्य जुदा नहीं है, ठीक वैसे ही, याद से याद-कर्ता अलग नहीं क्योंकि याद ही याद करती है. याद और याद-कर्ता के भिन्न होने का भ्रम ही तो अहंकार का भाव पैदा कर देता है।
-यादचक्र या याद-विश्व में खोया अहंकार (जो स्वयं एक भ्रम ही है) असावधान होने से ही, ‘याद-कर्ता के अस्तित्व’ का गलत एहसास जगाता है।
-मतलब, पूर्ण सावधानता ही इस गुत्थी को तत्क्षण सुलझा सकती है।

मित्रों ! ये बातें शायद उन्हें ही दिखाई दे सकती है, जो अपने भीतर... बड़े ही त्रयस्थभाव से और बड़ी ही सावधानी से झाँकने के लिए प्रवृत्त हैं, बाकी लोगों के लिए यह एक जटिल information मात्र है। इसीलिए कई लोग इसे महज बकवास भी समझ सकते हैं
-अरुण


कल्पना-विश्व
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कल्पना-विश्व...
अस्तित्व में रहता हुआ लगता है
पर होता नही

जीवन की सच्चाई को देखने निकले बहुतेरे
इस बात को ही खोजने में रुचि रखते हैं कि
आदमी कैसी कैसी कल्पनाओं में खो जाता है?

दरअसल, खोज इस बात की हो कि
आदमी के चित्त में पनपती कल्पना...
पनपती है... तो कैसे और क्यों?

सच तो यह है कि
कल्पना...जो अस्तित्व में होती ही नही..
जन्मती है केवल कल्पनाएँ..
जो जी लेती हैं
केवल अपने ही रचे
कल्पना-विश्व में
-अरुण
मुक्तक
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बुद्धों का सार आशय हर शख़्स में बसा है
फिर भी हैं रट रहे सब बुद्धोंके सत वचन
सागर की हर लहर में कुतुहल ये जाग उट्ठा
सागर का दिल कहाँ है?.. कैसा है मन बदन?
-अरुण

फ़ैसला कर लो
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बुद्धि की तो सीढ़ियाँ
सब को मिली हैं
फ़ैसला कर लो कि
रुक जाना किसी पादान पर
और मान लेना चढ़ चुके हम
या के चढ़ते जाना....
चढ़ते जाना
चढते जाना तबतलक...जबतलक
यह बात पक्की हो न जाए कि...
बुद्धि की भी हुआ करती
कोई सीमा
और कोई हुआ करता
बुद्धि के भी पार
-अरुण




आदमी में जागरण होता कहाँ?
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कभी कभी गहरी नींद
कभीकदा बेहोशी
वैसे तो हरदम आदमी है
अधजगा या अधसोया ही....

उसकी सोच होती ख़याली सपने
और सपने होते निद्रस्थ विचार

सोच हो के सपना
एहसास तो जीवित है उसमें
अपना ही अपना
अपने हर तजुरबे का वह है
तजुरबेकार
अपने हर कृत्य का वह है
कर्ता

कहने का मतलब इतना ही....
आदमी कभी जागा होता ही नही
मोटे और आम तौर पर,
दिन में विचारों में सोया होता है
तो रात मे सपनों में खोया होता हैं
-अरुण
अस्तित्व –खयाल-ए-इन्सा की अमानत नहीं
***********************************
जगत या अस्तित्व मनुष्य की व्याख्याओं,
उसकी गढ़ी परिभाषाओं से नहीं चलता
और न ही (जैसा की आदमी सोचता है)
अस्तित्व कहीं से आता है और
न ही कहीं जाता है, वह न बढ़ता है और
न घटता है।
मनुष्य की अपनी समझ ने
अस्तित्व को बढ़ते –घटते, आते जाते,
बदलते हुए देखा है
पर अस्तित्व हमेशा ही इन सब बातों से परे
अपने में ही स्थित है, अपने में है चालित है,
अपने में ही बढ़घट या बदल रहा है
न उसे किसी अवकाश का पता है
और किसी काल का
-अरुण
शेर
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सामने रखी तस्वीर की....सभी किया करते बातें
देखनेवाले के बदलते रुख़पे है.......अपनी नज़र
-अरुण


मुक्तक
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जिंदगी सीखकर.......... जीयी नही जाती
जिंदगी जीकर....... ........सीखी जाती है
जिंदगी किताब नही के पढ़ी और जान ली
जबतक हो जान.....तबतक पढ़ी जाती है

सो जिंदगी पे लिखनेवाले रोज लिखा करते हैं
हर रोज़ जो पढ़ा हो उसे रोज लिखा करते हैं
अपनी ही जिंदगी है..उसे ख़ुदही पढ़ें, ख़ुद सीखें
लोग ऐसे हैं के............ दूजों की पढ़ा करते हैं
-अरुण

असली चेहरा
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दोस्त से बर्ताव अलग
बैरी से अलग
जब्बर से अलग
तो अब्बर से अलग.....
एक ही आदमी में छुपे हैं कई चेहरे

ये तो रिश्तों के दर्पण हैं
जो दिखा देते हैं असली चेहरा
-अरुण
बुनियादी विडम्बना
****************
मानव में छुपी रहे... अंतर की शुद्ध लय
मानव खुद तड़प रहा सुनने को शुद्ध लय
नही कोई इस्से बडी.... जगत में विडम्बना
खोजे कोलाहल ही.....भीतर की शुद्ध लय
-अरुण
प्रेममय सद्भाव
**************
दिल दुखी पर दु:ख की कोई नही वजह
बस यही के ह्रदय रहता, प्रेम का अभाव
जब दिवारें स्वार्थ की हों....दिल दिलों के बीच
फिर कहाँ से ह्रदय उतरे......प्रेममय सद्भाव ?
-अरुण

अनजान बने रहना...
******************
रोज ही सूर्य अपने अंत:स्फुरणसे अंत:गतिसे....
उगता है चमकता है और धूप देते
निकल जाता है.....बिना किसी प्रेरणा...
बिना किसी मजबूरी
बिना पूछे या जाने....किसी की भी प्रतिक्रिया..
अपने इस कृत्य या कृति के बारे में

मै भी लगभग रोज लिखता हूँ
अपनी अंत:दृष्टि-गति से ही लिखता हूँ
फिर भी एक मूलभूत फ़र्क़ है...वह यह कि
अपने लिखे पर मिली
लाइक्स और कमेंट्स को देखने-पढ़ने से
मै अपने को रोक नही पाता

सूर्य को तो हमसब जानते हैं
पर सूर्य हम में से किसी को भी नही जानता...
मै तो लिप्त हूँ जानने और जनाने के
हर खेल में..
अनजान बने रहना क्या होता है?..
नही जानता और शायद जानना भी नहीं चाहता
इसीलिए अपनी रचनाओंपर
अनायास ही अपना नाम दर्ज कर देता हूँ
-अरुण

मुक्त प्रवाह में बहते रहना
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जिंदगी के मुक्त प्रवाह में
अपने को तनमन से झोंककर
उसमें बहते रहना
या यूँ कहें कि
आत्मभाव के प्रभाव से
पूरीतरह से मुक्त होकर
बडी ही ह्रदयमग्नतासे
जीते रहना.....संभव नही हो पाता
क्योंकि
मतलबों को साध्य करती अपनी मनधार के
आधीन हो जाना ही
आदमी को सुखकर लगता है
-अरुण

जीवन बन जाना
****************
जिसजगह सफलताएँ पूजी जाती हैं
उपलब्धियों का गुणगान होता है
उसजगह शांति समाधान की बातें करना
बेईमानी है
ऐसा करना....नदी के किनारे बैठे बैठे
तैरने की अनुभूति की कल्पना करने जैसा है

कुछ भी बात, फिर वह सन्यास ही क्यों न हो,
पाने पकड़ने हासिल करने की ललक का मतलब है
किनारे ही खोजते रहना जीवनभर


किनारे छोड़कर जीवनप्रवाह में उतरने के लिए
वही प्रवृत्त हुए होंगे.... शायद
जिन्होंने सुरक्षा-असुरक्षा की चिंता से परे,
जीवन में डूबकर जीवन बन जाना चाहा....
जिन्होंने शांति समाधान की खोज न की,
बल्कि स्वयं समाधान ने ही
उन्हे अपना बना लिया और
वे जीवन बन गए
-अरुण


गाँठें
*****
अस्तित्व
न तो कोई संगठन है
और न ही बिखराव
न यहाँ कोई किसी से जुड़ा है
न ही है कोई अलगाव
न है ख़ालीपन कहीं
न है कहीं कोई भराव

फिर भी लोग यहाँ एकजुट होना चाहते हैं
किसके भय से?
लोग अकेलापन महसूस करते हैं?
किसकी संगत खोने के बाद?
किससे अलग हो जाना उन्हें चुबता है
के चाह जागती है उनमें फिरसे
किसी से जुड़ने या अटैच हो जाने की?
कैसा ख़ालीपन है उनमें
जो उन्हें चीजों, विचारों, संस्कारों और
संबंधों को अपने भीतर भर लेने के लिए
मजबूर करता है?

चित्त की जागृत अस्तित्वमयता ही
खोल सकती है
चित्त में पडी इन मूलभूत
कल्पनाओं संकल्पनाओं
विचारों और भावनाओं की
अदृश्य गाँठें
-अरुण










 

















 

























 








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