1 November
प्रेममय है ज़िंदगी फिर...
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जो है ही नहीं... अस्तित्व में..आँख उसकी
देखती रहती...जो भी घट रहा है इस देह के सम्पर्क में..
इस देह के भीतर ओ बाहर..
सुझाई दे रहा जो भी फिर...
है इक तजुरबा ही महज़.. इक हक़ीक़त ही महज़..पर
है नहीं यह सत्य..
ऐसा बोध सकना हो सका गर......
आनंदविभोर आनंदभिंगी
प्रेममय है
ज़िंदगी फिर....
अरुण
आदमी और पल
*************
आदमी को
पल पल,
पल बनकर
जीना है..पर
आदमी का
हर पल,
आदमी बनकर
जी रहा है
-अरुण
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जो है ही नहीं... अस्तित्व में..आँख उसकी
देखती रहती...जो भी घट रहा है इस देह के सम्पर्क में..
इस देह के भीतर ओ बाहर..
सुझाई दे रहा जो भी फिर...
है इक तजुरबा ही महज़.. इक हक़ीक़त ही महज़..पर
है नहीं यह सत्य..
ऐसा बोध सकना हो सका गर......
आनंदविभोर आनंदभिंगी
प्रेममय है
ज़िंदगी फिर....
अरुण
आदमी और पल
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आदमी को
पल पल,
पल बनकर
जीना है..पर
आदमी का
हर पल,
आदमी बनकर
जी रहा है
-अरुण
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