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एक गजल
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क्योंकर सज़ा रहे हो परछाईयों के घर?
जागोगे जान जाओगे सपने के तू असर

कुछ साँस ले रहे हैं .,ज़माने के वास्ते
कुछ मेहरबाँ बने हैं ज़माने से सीखकर

जो ख़ुद को देखता है..दूजों की आँख से
दूजों को जान देता है अपनी निकालकर

उसको ही लोग कहते खरा साधु खरा संत
जिस 'संत' का है मोल किसी राजद्वार पर

जिसके लिए बदन हो किराये का इक मकान
उसको न चाहिए.......कोई दीपक मज़ार पर
अरुण


Please meditate on this –
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Mind cannot be total awareness only because it is a byproduct of unawareness. Yes, mind can be aware of itself (within) and others (without).

Awareness is not being ‘aware of’. Awareness is a state which is off (or beyond) the mind.

‘Being aware of’ is a focusing by a subject on an object, whereas, awareness is beyond subject-object duality
Arun

मेरी बातें....
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मेरी बातें सुनके शायद तुम बदल जाओ
मै बदल पाऊँ न पाऊँ कह नही सकता

रास्ते होते नही मंजिल अजब ऐसी
ऐसी मंजिल को बयां मै कर नही सकता

भीड़ बाहर भीड़ भीतर पर अकेलापन
ऐसा ख़ालीपन कि जिसको भर नही सकता

जीना मरना अलहिदा जाने जो ये बंदा
साँस लेते चरते फिरते मर नही सकता

कायनातें जी रही हैं चलती साँसों में
साँस थमते कुछ भी बाकी रह नही सकता

चाहतों से दिल लगा तो ग़म का ना कर ग़म
रिश्ता ग़म और चाहतों का टल नही सकता
- अरुण




इसपर ग़ौर करें
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हम... रूप रंग ढंग देखे जानते सिर्फ... ......शख़्सियत
बुद्ध.. स्वयं पर एक्सरे-दृष्टि डाल.. बूझ लेते आदमीयत
अरुण
एक शेर
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अल्फ़ाज़ों को रट लेने से बात नही बनती
अल्फ़ाज़ जो दिखलाते हैं वही देखना होगा
अरुण





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एक शेर
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साथ चलता  है साया मगर साथ नही देता
अंधेरे की आहट सुनते ..भाग निकलता है
अरुण

एक शेर
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दूसरों की बनाई लकीरों पर चलकर क्या जाना?
मै.. मै नही हूँ , है कोई और ही........यही जाना
अरुण

एक शेर
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अंधेरे को रौशनी... और मौत को जिंदगी कह दो
फिर न बचती जूस्तजू... ..फिर न कोई भी तलाश
अरुण


समय को विश्राम दो.........
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समय को विश्राम दो इस बाह में तन डालकर
आस में जो थक गया उस रूप का श्रृंगारकर

नयन में बन ढल गये जलकण तुम्हारे धीर के
ओंठ पर अब सो रहे हैं ......गीत लंबे पीर के
तपन में जो जल रहा सौंदर्य उसका ख्यालकर
समय को विश्राम दो इस बाह में तन डालकर

धडकनों में भय समाया है गमक न प्रीत की
वेदना की गूँज है.. अब गूँज ना मधु-गीत की
शुभ स्वरों को जन्म दो इस रुदन का संहारकर
समय को विश्राम दो इस बाह में तन डालकर

असहायता का बिम्ब अब मुखपर चमकता जा रहा
नैराश्य का ही भाव अब दिल में सुलगता जा रहा
लो आसमय दुनिया इन्ही हांथो का लो आधारधर
समय को विश्राम दो ......इस बाह में तन डालकर
अरुण
एक शेर
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ओढ़ लेते तंग दिल भी शराफ़त का चोला
अच्छा वही लिबाज जो न हो तंग, न ढीला
अरुण
एक शेर
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सलीक़ा आ गया जिसमें पका वो ही बुढ़ा वो ही
बुढ़ापा वैसे तो, नादान को भी है हुआ हासिल
अरुण












एक शेर
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चाहत के मुताबिक करने की आज़ादी है .....पर बंधन में
संस्कारों में जकड़ी बैठी चाहत खुद ही है..........बंधन में
अरुण
एक शेर
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ज़ाहिर है के ये ज़मीं सबकी आसमां सबका,
फिर लफ़्ज़ मेरा या तेरा कहाँ से आ टपका ?
अरुण

तीन शेर
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ख़्यालों में, नामों में, ज़हन में.. अलग हैं सब
ख़्याल थमे, नाम छुपे... सब के सब एक हैं
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तमन्ना से बच निकलने का ख़याल
क्या किसी तमन्ना से कम है?
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मुझसे पहले जो भी आये अप्नी कहानी छोड गये
उसी कहानी की धरती पर मेरी कहानी खड़ी हुई
अरुण
एक शेर
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उठा सकता अगर लहर समंदर से तो
सतहे समंदर हो जाती टुकड़ा टुकड़ा
अरुण
एक शेर
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कहने को मैंने किया, किया जिस्ने वो मैं नहीं
किया कोई या हो गया.. उत्तर इसका ना कुई
अरुण











मानवता चहुँओर
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गंध का काम है फैलना चहुँओर, .............'अपने पराये' का कोई नही ठोर
जिसको सुगंध लगे पास हो आवेगा, .......जिसको सतायेगी दूर भग जावेगा
गंध तो गंध है... होती निर्दोष,  ...................चुनने में दोष है, चुनना बेहोश
मानव में मानवता हरपल महकती है, करुणा को भाये वो स्वारथ को डसती है
अरुण

एक शेर
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कहने को मैंने किया, किया जिस्ने वो मैं नहीं
किया कोई या हो गया.. उत्तर इसका ना कुई
अरुण

एक शेर
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कहने को मैंने किया, किया जिस्ने वो मैं नहीं
किया कोई या हो गया.. उत्तर इसका ना कुई
अरुण

एक शेर
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कहने को मैंने किया, किया जिस्ने वो मैं नहीं
किया कोई या हो गया.. उत्तर इसका ना कुई
अरुण

एक शेर
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गिनते गिनते मौजों को कट गई जिंदगी पूरी
एक बार भी इन आँखों ने देखा न समंदर पूरा
अरुण

एक ऐसी बात ......
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एक ऐसी बात है जो ध्यान में उतर आये तो बहुत कुछ कह जाती है
बात यूँ है-
आदमी अंधेरा भी देखता है और प्रकाश भी और इसीवजह अंधेरे में प्रकाश की और प्रकाश में अंधेरे की कल्पना करता  हुआ...अंधेरा या प्रकाश देखता रहता है। परंतु प्रकाश का मूल स्रोत - सूर्य,..न तो अंधेरा देखता है ओर न ही प्रकाश क्योंकि वह स्वयं प्रकाश ही है।

वास्तविकता में जीनेवाले हमसब अज्ञानयुक्त ज्ञान से काम चला रहे हैं।मगर सत्यप्रकाशी न तो अज्ञानी है और न ही ज्ञानी...क्योंकि वह स्वयं ज्ञान ही है
अरुण
एक शेर
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असलियत देखे बिना ही....कुचलते हो चाहतें
डोर को ही साँप समझे.. जड़ रहे हो लाठियाँ
अरुण

एक शेर
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धरती से हटकर... आसमां दिखता नही है
देह से ही झांक सकते रूह का फैला गगन
अरुण

कुछ शेर
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जो नही है सामने, होता बयाँ
नजर को ना चाहिए कोई जुबाँ

इन्सान के जेहन ने जो भी रची है दुनिया
भगवान दब चुका है उसके वजन के नीचे

घडे में भर गया पानी जगह कोई नही खाली
कहाँ से साँस लेगा अब घडे का अपना खालीपन

- अरुण

दो दोहे
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आदमी द्वारा होनेवाला चुनाव उसके संस्कारों से बँधा हुआ है

पहले मिर्ची खाय दे सो फिर जले जुबान
मीठा तीता सामने .........चुन मेरे मेहमान

मन को साधन बना कर जो जी पाए, वे आनंदित हैं.
जो मन द्वारा चलाए जा रहे हैं, वे त्रस्त हैं

चढ़ चक्के पर होत है दुनिया भर की सैर
जो चक्के में खो गया उसकी ना कुई खैर
अरुण
एक शेर
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है वही दिखता, वही देखनेवाला भी है
एक ही वक़्त आदमी के हैं दो दो चेहरे
अरुण

एक शेर
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वक्त तो होता नही अस्तित्व में, पर
मन चले तो... वक्त को गिनता चले
अरुण

वास्तव पर माया का परदा
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परदा आँखों पर पसरा हो या
वास्तव को ढकता हो, दोनों ही स्थितियों में वह हमें
माया में
(यानि सत्य का आभास पैदा करने वाला असत्य)
उलझाये रखता है.
इस परदे का वास्तव दिख जाते ही
आँखें और वास्तव
दोनों ही स्पष्ट हो जाते हैं
-अरुण

ज़िन्दगी रूहानी
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देखना... सबकुछ बराबर की नज़र से
ज़िन्दगी होगी तभी .....असली रूहानी
कुछ पे ज़्यादा ध्यान देना कुछ बिसरना
व्यर्थ में ही मोल लेते ...........परेशानी
अरुण


खोज रुहानी
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है जाना या नहीं गूढ़, शंका जिसको भी
खोज बनाए रखता है ....होते विनीत वह
जिसको हो अभिमान कि उसने जान लिया है
जिज्ञासा और खोज त्याज रहता भ्रमीत वह
अरुण

एक शेर
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शिकायत है के दुनिया मतलबी है
शिकायत भी तो मतलब से बनी है
अरुण
एक शेर
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दो साँस का ही फ़ासला है ज़िन्दगी
साल सालों लग गए....यह बूझने को
अरुण

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