मन की तरंग

सर्वव्यापी
हर जगह व्याप्त है भगवान,
मंदिर में, मस्जिद में,
घर में, बाजार में,
मुझमें, तुझमें, सबमें
इतना ही नही वह स्वयं के भीतर भी है
और बाहर भी
.................
मन का स्वाद
जगत तो निस्वाद है, स्वाद है कहीं
तो वह है हमारे मन में,
जगत तो आनंद है परन्तु
सुख दुख है निर्मिती
हमारे मन की
......................
समझ
अपनी ना समझी को ध्यानपूर्वक देख लेना ही
समझ है - इसी को ज्ञान कहें
............................................................... अरुण

Comments

Udan Tashtari said…
उम्दा रचना!!

हिन्दी में विशिष्ट लेखन का आपका योगदान सराहनीय है. आपको साधुवाद!!

लेखन के साथ साथ प्रतिभा प्रोत्साहन हेतु टिप्पणी करना आपका कर्तव्य है एवं भाषा के प्रचार प्रसार हेतु अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें. यह एक निवेदन मात्र है.

अनेक शुभकामनाएँ.

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