तथाकथित धार्मिकता सत्य से पलायन



धार्मिकता के नाम पर जो भी कहा सुना और मान लिया गया है, उसी को आधार बनाकर धर्म निभाने वाले तो कई हैं, क्योंकि यही सबसे सरल, सुविधाजनक और निर्बोझ उपाय है. क्योंकि इसमें धर्म सधे न सधे, किसी जिम्मेदारी का बोझ नहीं होता. स्वयं को विनियोजित किए बगैर ही धर्म की पूँजी हात लग गई ऐसा ‘महसूस होने का’ समाधान मिल जाता है.
ऐसा ही एक ‘धार्मिक’ किसी सत्य-शोधक के  वचन सुनने पहुँच गया. उस शोधक का प्रत्येक वचन उसे भयभीत करने लगा. भय यह था कि ......उसकी बात स्वीकार्य तो लगती थी पर यदि वह उसे स्वीकारता है तो वह आधार जिसपर वह (‘धार्मिक’) खड़ा है, वह आधार ही ऊसके नीचे से खिसक जाएगा. शोधक के वचनों को झुठलाने की भी उसमे हिम्मत नहीं थी क्योंकि सत्य वचन भीतर उतरते दिख रहे थे. इस संकट से बचने का एक उपाय उसे मिल गया है.
अब वह स्वयं को उस सत्यशोधक के वचनों का प्रचारक समझने लगा है. सत्यशोधक को किसी प्रचार या प्रचारक की जरूरत नही. अपने ही अज्ञान से डरे हुए, संभ्रमित लोग अनावधान में प्रचारक बन जाते हैं. वचनों को पूजना, उसके गुणगान करना, सत्य से पलायन का एक प्रतिष्ठित तरीका है.
-अरुण   

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