हर वैज्ञानिक शोध-चिंतन सापेक्ष ही होता है । यह जब सहजता से, निरपेक्षता की कक्षा में प्रवेश करता है, तत्व- चिंतन में रूपांतरित हो जाता है । विज्ञान ही तत्वबोधी हो सकता है ।
तुझे इस दिल में बसाने की हवस जागी तो मेरे सोये हुए ख्वाबों के दिये जल ही गये याद हर राह – ओ- हर मोड पे जब जागी तो जज्बे उल्फत के नरम जहन में अब पल ही गये तेरे ख्यालों के सितारों को चमक आयी तो मेरे हर वक्त का अब चैन सब्र ढल ही गया आँखों आँखों में जहां नर्म से जज्बे जागे सब्र की डोर से बांधा हुआ दिल हिल ही गया तेरी आँखों से बुलाहट की सदा आई तो दिल को एहसास हुआ प्यार तेरा झुक ही गया छुपी राहों से दर – ए – दिल पे चले आने पर मै तो तनहा ही रहा प्यार मेरा बिक ही गया -अरुण
जब आतंरिक या बाहरी बाध्यता जोर पकड़ गई, जो कहा नही जा सकता, उसे भी कह देने की कोशिशे हुईं शांति को शब्दों से सजाया गया शांति सज तो गई परन्तु न कही और न ही सुनी गई जो कही और सुनी गई वह शांति न थी. वह थे गीता, कुरान, उपनिषद, और ऐसी ही कई पुस्तकों में दबे मजबूर शब्द -अरुण
यूँ ही बाँहों में सम्हालो के सहर होने तक, धड़कने दिल की उलझ जाएँ गुफ्तगू कर लें जुबां से कुछ न कहें, रूह्भरी आँखों में डूबकर वक्त को खामोश बेअसर कर लें जुनूने इश्क में बेहोश और गरम सांसे फजा की छाँव में अपनी जवां महक भर लें बेखुदी रात की तनहाइयों से यूँ लिपटे बेखतर दिल हो, सुबह हो तो बेखबर कर ले -अरुण
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