स्व ही दुनिया, दुनिया ही स्व *************************** यह ५ फ़ुट का देह, इसके भीतर चेतनेवाली आग, क्या इतनी ही है मेरी दुनिया? क्या इतना क्षुद्र अस्तित्व ही मेरा अपना है? क्या मेरा वास्ता या सरोकार इसी 'अति-संकुचित' आत्म से है? फिर वह जो बाहर मुझे दिखाई पड़ती है, मुझे रिझाती है, मुझे डराती है, मुझे संभालती और मुझसे टकराती भी है, जिसे मै दुनिया कहता हूँ, वह क्या है? क्या वह मेरा आत्म नही है? क्या वह मुझसे जुदा है? जब अचानक मेरी गहनतम, ऊँची और व्यापक दृष्टि उद्घाटित होती है... तब मैं देखता हँू .....मुझमें और दुनिया के भीतर संचारता हुआ मनोरसायन तो एक ही है, केवल एक ही नही....वह सारा का सारा एक दूसरे से गुजरता एक संलग्न समग्र प्रवाह बना बह रहा है । मेरे भीतर बसा भय, क्रोध, ईर्षा, द्वेष, लालसा, महत्व की आकांक्षा और संघर्ष...सबकुछ वही...दुनिया के मैदान में ... मारकाट, युद्ध, अत्याचार, बलात्कार, भ्रष्टाचार, स्वार्थवाद (सभी वाद) और ऐसी ही अनेक दुर्व्यवस्थाओं का रूप लिए उजागर हो रहा है । मैं ही दुनिया और दुनिया ही मै है, दुनिया के इन्हीं दुर्व्यवस्थाओं का मै प्रतिफल ह...