संस्कारों से हो रही घुटन की आवाज़

क्यों न की मेरी अंतिम यात्रा की... शुरुवात उसी दिन
जिस दिन मैं इस धरती पर आया
उसी दिन से तो शुरू कर दिया आपने
गला घोटना मेरी कुदरती आजादी का

उसी दिन तो शुरू किया आपने
मेरे निरंग श्वांसों में अपनी जूठी साँस भरकर
उसमें अपना जहर उतारना

उसी दिन से तो सही माने में मेरी क़ैद शुरू हुई,
आपके विचारों, विश्वासों और आस्थाओं ने
मेरी सोच को रंगते हुए मुझे बड़ा किया...मुझे पाला पोसा बढ़ाया....
आप जैसे 'अच्छे-भलों' के बीच में लाया

आपने ज अच्छा समझा वैसा ही जीना सिखाया
पर कभी न समझा कि
आप फूल को उसकी अपनी ज़िंदगी नही
समाज को जो भाए ,ऐसी मौत दे रहे हो,

मै तो बस सामाजिक प्रतिष्ठा और
उपयोग का सामान बनकर रह गया,

अब पहुँचने जा रहा हूँ अंतिम छोर पर...
उस राह के जिसका आरम्भ ही कभी न हो पाया
अरुण

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