यह 'प्यास' तो निजी ही है

यह 'प्यास' तो निजी ही है
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यह भीड़ उन लोगों की ही
जो अपनी निजी 'प्यास' का समाधान ढूंढ़ नही पाए पर
यह जान कर कि इर्दगिर्द भी लोगों में ऐसी ही 'प्यास' है,
वे इकठ्ठा हुए,'प्यास' का उपाय ढूँढने में जुट गए,
कई सार्वजानिक तरकीबें इजाद की,
मंदिर मस्जिद बने, पोथियाँ लिखी- पढ़ी गईं , पूजा पाठ,नमाज़
प्रवचन,भजन पूजन ऐसा ही सबकुछ......
और अब भी यही सब.....
मानो 'प्यास' बुझाने के तरीकें मिल गएँ हों
पर सच तो यह है कि
निजी 'प्यास' अभी भी बनी ही हुई है
और फिर भी संगठित धर्मों को ही प्यास बुझाने का उपाय
माना जा रहा है,
इसी सार्वजनिक भूल की वजह
'निजी समाधान' खोजने की दिशा में
आदमी आमतौर पर  प्रवृत्त नही हो पा रहा
- अरुण

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