निजता का भावभ्रम ही सारी मनोवैज्ञानिक परेशानियों का मूल

जीव के जन्म का जीवशास्त्रीय अर्थ है, माँ की कोख से अलग हुए एक स्वतंत्र जीव का अवतरण व उसके जीवन की शुरुवात। यह शुरुवाती जीवनस्वरूप ही जीव का मूल जीवन स्वरूप है।
बात यदि मनुष्य के संदर्भ में की जाए तो.....मनुष्य-जन्म से कुछ अवधि या समय तक, मनुष्य में, मनुष्य और पूरी मानवता के बीच... भिन्नता का, कोई भाव रहता ही नही । बाद में, सामाजिकता का स्पर्श ही मनुष्य में भिन्नता जगाते हुए निजता का भावभ्रम सजीव कर देता है।   यहीं से, निजता या द्वैतभाव या individuality की परंपरा या अादत हर व्यक्ति की मानसिकता को जकड़ लेती है । यह निजता सामाजिक जीवनयापन के लिए एक सुविधा भी है और कष्ट या suffering भी, सुरक्षा की माँग भी है और असुरक्षा का भय भी । जीवन के सारे मानसिक संघर्षों और परेशानियों का जन्म इसी निजता या भिन्नता के भाव से होता है ।

'जागे हुओं' ने कहा है ...... गहन आत्मावलोकन में निजता के ओझल होते ही निजताजन्य वेदनाओं की स्मृति भी ग़ायब हो जाती है, और पुनः अवतरित होता/होती है... मूल जीवन-स्वरूप या वह मूल सकल प्रेम-अवस्था।
अरुण
बात को इससे अधिक सरल नहीं बना पा रहा, समझ आ जाए तो ठीक, न आए तो क्षमा कर दें।
- अरुण

Comments

Ankur Jain said…
उत्तम प्रस्तुति।

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