राजनीति का अखाड़ा
राजनीति का अखाड़ा
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बिछी हुई मिट्टी को रौंदते हुए, उसमें अपने पैर जमाते, उसकी मुलायमियत का फ़ायदा उठाते... अपनेको चोट से बचाते हुए, कोई भी पहलवान अखाड़े में कुश्ती के दाँवपेंच खेलता रहता हैं। सामनेवाले को चित करते हुए, उसे धूल चटाना, उसके खेल का पहला मक्सद होता है ।
इस लोकतांत्रिक देश के अखाड़े में राजनैतिक उम्मीदवार और पार्टियाँ यही खेल चुनाव आयोग की देखरेख में बड़ी ही कुशलता से खेल रही हैं ।
पहलवान, कुश्ती, दाँवपेंच, अखाड़ा, चित करना, पटकनी देना, धूल चटाना..... इन शब्दों या उपमाओं का तो औचित्य, राजनीति के संदर्भ में, आसानी से समझ आ जाता है । पर सवाल उठेगा.... मिट्टी की उपमा किसके लिए ?
मिट्टी ... यानि यह भोलीभाली, मुलायम, सभी को बर्दाश्त करनेवाली, दुष्टों को भी पांव जमाने का मौका देनेवाली.... भारत की सहिष्णु जनता ।
चुनाव के दौरान यह जनता पार्टिंयों के हर प्रचारी सचझूठ को सुन लेती हैं, उनके बहकावी आश्वासनों के स्वागत के लिए तैयार रहती है... भावुकता की जादुई हवा अगर चल पड़े तो बहक भी जाती है । पार्टीयों के आपसी गालीगलोच से अपना मन बहला लेती हैं। यह आपसी 'गालीगलोचवाला प्रचार' अगर उसपर (यानी जनता पर), काम कर गया तो वह किसी एक पार्टी के पक्ष में वोट भी कर देती है और बाद में जब ये गालीगलोच करनेवाली प्रतिस्पर्धी पार्टीयाँ सत्ता के लिए हांथ मिलाती हैं तो उनके इस हस्तांदोलन वाले राजनीतिक तमाशे को, बिना कोई सवाल उठाये बड़ी विवशता से देख लेती है ।
पार्टीयाँ भी जान चुकी हैं... जनता की इस लोकतांत्रिक कमज़ोरी को । ....पाँच साल में बस एक बार बटन जनता के हांथ.... फिर पूरे पाँच साल तक जनता की दशा-दुर्दशा के बटन ये 'पहलवान' ही दबाते रहते हैं । कहीं की मिट्टी कहीं भी उछालो, इन पहलवानों को पूरी छूट है ।
अपनी भारीभक्कम शब्दावली और हर मौक़े में फ़िट बैठ जाएँ ऐसे बयानों से, सरकारी 'पहलवान' मिट्टी की कठोरता कम करते रहते हैं । असंतोष यानि कठोरता को यदि सरकारी पहलवान के ख़िलाफ़ प्रयोग में लाना हो तो विपक्षी 'पहलवान', रैली, आंदोलन, वाकआऊट, धरने इत्यादि की गर्मी पैदा कर, मिट्टी की असंतोषी कठोरता का इस्तेमाल करते हुए मिट्टी में भूचाल ले आते हैं। फिर यही मिट्टी तबाही मचाती है.... बसें जलाती है, गोलियाँ चलाती है, हिंसा.. खूनखराबा और ऐसा ही सबकुछ....
और फिर पाँच साल बाद, जनता द्वारा बटन दबाने का पंचवार्षिक महोत्सव ... और फिर वही सब चलता रहेगा तबतक जबतक, इस मिट्टी के पास पहलवानों को नियंत्रण में रखने का कोई और दूसरा बटन भी नही आ जाता ।
- अरुण
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बिछी हुई मिट्टी को रौंदते हुए, उसमें अपने पैर जमाते, उसकी मुलायमियत का फ़ायदा उठाते... अपनेको चोट से बचाते हुए, कोई भी पहलवान अखाड़े में कुश्ती के दाँवपेंच खेलता रहता हैं। सामनेवाले को चित करते हुए, उसे धूल चटाना, उसके खेल का पहला मक्सद होता है ।
इस लोकतांत्रिक देश के अखाड़े में राजनैतिक उम्मीदवार और पार्टियाँ यही खेल चुनाव आयोग की देखरेख में बड़ी ही कुशलता से खेल रही हैं ।
पहलवान, कुश्ती, दाँवपेंच, अखाड़ा, चित करना, पटकनी देना, धूल चटाना..... इन शब्दों या उपमाओं का तो औचित्य, राजनीति के संदर्भ में, आसानी से समझ आ जाता है । पर सवाल उठेगा.... मिट्टी की उपमा किसके लिए ?
मिट्टी ... यानि यह भोलीभाली, मुलायम, सभी को बर्दाश्त करनेवाली, दुष्टों को भी पांव जमाने का मौका देनेवाली.... भारत की सहिष्णु जनता ।
चुनाव के दौरान यह जनता पार्टिंयों के हर प्रचारी सचझूठ को सुन लेती हैं, उनके बहकावी आश्वासनों के स्वागत के लिए तैयार रहती है... भावुकता की जादुई हवा अगर चल पड़े तो बहक भी जाती है । पार्टीयों के आपसी गालीगलोच से अपना मन बहला लेती हैं। यह आपसी 'गालीगलोचवाला प्रचार' अगर उसपर (यानी जनता पर), काम कर गया तो वह किसी एक पार्टी के पक्ष में वोट भी कर देती है और बाद में जब ये गालीगलोच करनेवाली प्रतिस्पर्धी पार्टीयाँ सत्ता के लिए हांथ मिलाती हैं तो उनके इस हस्तांदोलन वाले राजनीतिक तमाशे को, बिना कोई सवाल उठाये बड़ी विवशता से देख लेती है ।
पार्टीयाँ भी जान चुकी हैं... जनता की इस लोकतांत्रिक कमज़ोरी को । ....पाँच साल में बस एक बार बटन जनता के हांथ.... फिर पूरे पाँच साल तक जनता की दशा-दुर्दशा के बटन ये 'पहलवान' ही दबाते रहते हैं । कहीं की मिट्टी कहीं भी उछालो, इन पहलवानों को पूरी छूट है ।
अपनी भारीभक्कम शब्दावली और हर मौक़े में फ़िट बैठ जाएँ ऐसे बयानों से, सरकारी 'पहलवान' मिट्टी की कठोरता कम करते रहते हैं । असंतोष यानि कठोरता को यदि सरकारी पहलवान के ख़िलाफ़ प्रयोग में लाना हो तो विपक्षी 'पहलवान', रैली, आंदोलन, वाकआऊट, धरने इत्यादि की गर्मी पैदा कर, मिट्टी की असंतोषी कठोरता का इस्तेमाल करते हुए मिट्टी में भूचाल ले आते हैं। फिर यही मिट्टी तबाही मचाती है.... बसें जलाती है, गोलियाँ चलाती है, हिंसा.. खूनखराबा और ऐसा ही सबकुछ....
और फिर पाँच साल बाद, जनता द्वारा बटन दबाने का पंचवार्षिक महोत्सव ... और फिर वही सब चलता रहेगा तबतक जबतक, इस मिट्टी के पास पहलवानों को नियंत्रण में रखने का कोई और दूसरा बटन भी नही आ जाता ।
- अरुण
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