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Showing posts from 2017

सितंबर २०१७ कीरचनाएँ

मन ठहरा.. मन बहता ***************** बहती धारा में नदी का पानी... हर क्षण है नया किनारे खड़े पेड़ों की छाया ने कुछ हिस्सा नदी का ढक दिया ढका हिस्सा रुका...थमासा लगता है छाया के बाहर.....पानी बहतासा दिखता है इसीतरह वर्तमान पर छाया भूत की पड़ते ही चेतना बंटी दो हिस्सों में एक हिस्सा...मन ठहरा हुआ.. तो दूसरा....मन बहता हुआ – अरुण कहा न जाए.. बिन कहे रहा न जाए ******************************** जो कहा ही नही जा सकता....उस सत्य को लोग कहे बिना न रह सके... न ही जानने का कुतुहल थमा.... न ही कहने की विवशता सत्यकथन का सिलसिला बना रहा युगों युगों से...युगों युगों तक चूंकि, ब्रह्मांड देखे सारे ब्रह्मांड में जिस दृष्य को.. जिस सत्य को.. आदमी के पिंड उसे कैसे देख पाएँ.. कैसे कह पाएँ....दूसरे पिंडों से...? स्वयं कृष्ण बुद्ध जैसों ने... प्रबुद्ध ब्रहमांडो ने कहने की पुरज़ोर कोशिश की.... पर समझ पाए शायद कुछ ही क्योंकि जागा होगा शायद... उन कुछ के ही ध्यान में स्वयं ब्रह्मांड -अरुण देखना.. समझना ************** देखने का.. समझने का अलग अलग है अंदाज घाट पर बैठकर जलप्र...

अगस्त २०१७ की रचनाएँ

दिमाग है सामाजिक कृति ********************* हर एक की शक्ल अलग है... और उसका नाम धाम परिवार भी अलग होने से वह सोचता है कि उसका एक अलग..स्वतंत्र वजूद है पर उसका यह देखना जानना और समझना बोधप्रद होगा कि ‘उसका दिमाग’... उसका दिमाग नही है वह तो है समाज की निर्मिति समाज द्वारा संस्कारित कृति जिसे इस जीवन-तथ्य का हरपल जीवंत एहसास है वह... सामाजिक बंधनों, परंपरा-रिवाजों और मान्यताओं के दबाव से निर्बोझ होकर एक खुली जिंदगी जी रहा होता है बिना उन दबाओं से लड़े...बिना उन्हे स्वीकारे -अरुण कोई दूसरा उपाय नही ******************* जहाँ संबंध हैं.. संबंधों में आपसी लेनदेन है... वहाँ संघर्षों का होना किसी न किसी रूप में, अवश्यंभावी है संघर्ष... मनचित की पूरी क्षमता को उभरने नही देते सो आदमी अस्वस्थ और अशांत है पर संघर्षों से बचने के लिए कोई सन्यास नही लेता और चाहकर भी कोई संबंधविरहित नही हो पाता बस, संघर्षों का अंतरबाह्य त्रयस्थ अवलोकन..स्पष्ट समझ ही अपनेआप में संघर्षों का थमना है.... कोई दूसरा उपाय नही -अरुण मन तो है तन का केवल प्रतिरूप ********************...

जुलाई २०१७ की रचनाएँ

मुक्तक ******* कहीं कोई मूल भूल हो गई है शायद अबतो जो भी हो रहा..गलत ही गलत अबतो ग़लतियाँ ही सही लगने लगी हैं ग़लतफ़हमी ही हमारी जिंदगी है शायद -अरुण मुक्तक ****** सारा आकाश सारी धरा ही सामने धरी है अपने आँगन के परे जा न सकी आँखें मेरी इशारे सृष्टि के हर आदमी की ओर करते ‘वे’ मगर अपने ही मतलबमें अटकती सोचें मेरी -अरुण मुक्तक ****** न साकार न निराकार से परिचय है अस्तित्व का अस्मिता को तो साकार ही साकार नज़र आता है अस्मिता ने जो पहन रखा है अहं का ठोस आकार अब दो शब्दों का अंतराल भी शब्द बन जाता है -अरुण मुक्तक ******* छत और चार दिवारी को भले ही  कोई एक पकड लेवे बीच की जगह ख़ाली.......... किसी एक की नही.. सबकी होवे चेतना-आकाश में उड़ते पंछियों को पकड़नेवाले कभी भी आकाश को नही पकड पाते क्योंकि वह सबका होवे -अरुण यादों का इकट्ठापन ***************** अपनी यादों का इकट्ठापन ही तो है.... हर एक का अपना मन इन्ही इकट्ठा यादों से खेलता रहता है.. हर एक का अपना मन इसतरह हर कोई अपने बीते का ही रूप है जिसपर वर्तमान की धूप होते हुए भी वह विगत के तमस विचरकर ...

जून २०१७ की रचनाएँ

मुक्तक ******** मँझधार में बहता जो... जीता है वही जो किनारे ढूँढता .. भयभीत है तृप्ति पाकर ठहर जाने की ललक कायरी मुर्दादिली की... रीत है -अरुण मुक्तक ****** जबतक उबाल न आया...पानी भाप न बन पाया बर्फ़ीला, शीतलतम कुनकुनापन..........सब बेकार आदमी कितना भी झुके या..........उठ जाए ऊपर भगवत्ता न जाग पाए अगर... उसका होना बेकार -अरुण न भला न बुरा ************ न कुछ बुरा है और न ही है कुछ भला क्योंकि एक ही वक्त एक ही साँस एक ही सर में एक ही रूपरंग लिए सबकुछ ढला.... साथ साथ परंतु बाहर... सामाजिकता की चौखटपर खडे पहरेदारों ने उसे अपने मापदंडों से बाँट दिया कुछ को ‘भला’ कहकर पुकारा तो कुछ पर ‘बुरे’ का लेबल चिपका दिया -अरुण कर्ता-धर्ता ******** घर की छत से होकर बह रही तेज हवा... सामने मैदान में खड़े पेड़ों को हिलाडुला रही है घर को लगे कि पेडों का हिलनाडुलना है उसीका कर्तब देह की छत... यानि सर.. जहाँसे होकर गुज़र रहा है विचारों का तूफ़ान और जिसके बलपर हो रहे सारे काम.... देह को लगे कि वही है इन कामों का कर्ता-धर्ता -अरुण तीनों अलग अलग ***************** त...

मई २०१७ की रचनाएँ

मई २०१७ की रचनाएँ ----------------------------- रुबाई ***** यह जीवन सूरज की उर्जा है...गलत नही यह जीवन धरती का है सार.. गलत नही चलती साँस, बहती हवा और सारा आकाश यही तो है जीवन, यही है संसार….गलत नही -अरुण जिंदगी ही जीती है उसमें ..... ************************* बंदा किये जाता है.. अपने को ‘करनेवाला’ समझ दरअसल खुद ही किया जाता है वह.....न पता उसको लगे उसे कि वह जीता जिंदगी को अपने ढंग से दरअसल, जिंदगी ही जीती है उसमें... न पता उसको -अरुण सामान ज़रूरी —————— जीने के लिए होता है............. सामान ज़रूरी सामान की हिफाजत का......... सामान ज़रूरी बदले है जरूरत.............यूँ अपना सिलसिला जीने से अब ज़्यादा............. सामान ज़रूरी -अरुण मान्यताएँ ————— जहाँ से शुरू करो वह शुरुवात नही होती जहांपर ख़त्म करो वह अंत नही होता आरंभ और अंत तो केवल हैं मान्यताएँ जो मान लिया जाए वह सच नही होता -अरुण शब्दों में स्थिरा दिया गया ********************* कालप्रवाह को ‘समय’ नामक खाँचे में जमा दिया गया बहते जलकणों को... ‘नदी’ नामक वस्तु बना दिया गया वैसे तो हर पदार्थ, वस्...

अप्रैल २०१७ की रचनाएँ

अप्रैल २०१७ की रचनाएँ ----------------------------- ‘पागलपन’  ********* हाँ, यह ऐसा पागलपन है जो हमेशा सवार है सरपर, पर, इस ‘पागलपन’ को  उभारती रहती जो बत्तियाँ...   वो तो जलबुझ रही हैं  सर के भीतर उन बत्तियों के जलतेबुझतेपन पर  ध्यान आ टिके तो ‘पागलपन’ हटे... ध्यान के अभाव में ही यह पागलपन घटे ऐसा यह ‘पागलपन’  इस दुनिया में  जीने के लिए ज़रूरी है और इस ‘पागलपन’ को ही, सयानपन समझ लेना आदमी की मजबूरी है -अरुण मुक्तक ****** आँखों में भरी हो पहले से जो सोच वह सोचै देख रही दुनिया सीधे उतरे जो आँखों में तस्वीर वह तस्वीर न देखी जाए है  -अरुण  बच निकलने के लिए ******************* आसमां में है चमकता सूरज  है धूप ही धूप चहुँओर  फिर भी  आदमी को तो मिल ही जाती हैं परछाईंयां  बच निकलने के लिए  बोध के सागर में ही डूबी हुई है सकल की अंतर-आत्मा   फिर भी मिल गया है आदमी को मनबुद्धि का सहारा.... बोध से  बच निकलने के लिए -अरुण कोई नह...

पंछी और पिंजड़ा

पंछी चाहे पिंजड़े की पकड से छूटना, यह बात सही सहज स्वाभाविक है, परंतु जिस क्षण पंछी का अपने भीतर फड़फड़ाना पिंजड़े के लिए कष्टदायी बने, आदमी उसी क्षण की तलाश में बेचैन है क्योंकि आदमी अपने को कभी पंछी समझता है तो कभी पिंजड़ा.. यह देख ही नही पाता कि वह स्वयं पंछी भी है और पिंजड़ा भी.... -अरुण

मुक्तक

मुक्तक ****** आकार देख पाया नही .........निराकार को नाम दे सको न कभी तुम.........अनाम को धुरी नही हो ऐसा कोई...... चक्र भी कहाँ इच्छा करे ना.. ऐसा कोई मन नही कहीं -अरुण

मुक्तक

मुक्तक ******* डूबजाना समंदर में... है लहर की फ़ितरत 'आगे क्या?'- यह सवाल भी साथ में डूबे मोक्ष मुक्ती की करो ना बात अभ्भी बंध बंधन का...समझ लो...बस बहोत है न ही उम्मीद कुई और न ही मै हारा हूँ पल पल की जिंदगी ही.. अब जिंदगी है -अरुण

March 2017

मुक्तक ******* हाँ..ना.. में दिया जा सके.... जिंदगी ऐसा जवाब नही कोई रखे हिसाब इसका.... जिंदगी ऐसा हिसाब नही अनगिनत हैं अक्षर यहाँ  ............. अनगिनत तजुर्बे हैं जिंदगी कुछ जाने पहचाने अक्षरों की..... किताब नही -अरुण मुक्तक ******** जीने की तमन्ना ने बाँटी सारी दुनिया दो हिस्सों में जो इधर हुआ अपना हिस्सा जो उधर बचा सारा जहान -अरुण अभी यहाँ कल ही कल ********************** अभी यहाँ जो भी है.... आँखों के सामने देखता उसको तो.. जो कल है बीत चुका अभी यहाँ सपने भी..... आनेवाले.. कल के कल तो बस कल ही है.. आये या ना आये -अरुण एक शेर ******** इधर इसका जले इतिहास....... तो जलता उधर उसका धुआँ और आग तो सबकी..... नही इसकी नही उसकी -अरुण चेतना का काम है चे.त.ना ..जब चेतती है हर एक के बीते हुए अनुभवों को,  याद के रूप में चेताती है।अनुभवों में व्यक्तिगत भिन्नता होने के कारण, लगता यूँ है कि हरेक के भीतर जलती चेताग्नि .. दूसरों के चेताग्नि से भिन्न है..।  सच तो यह है कि सबकी चेतना की आग और यादों का धुआँ तो common ही है। जबतक अंतरदृष्टि न चौंधे **********...

बोधिवृक्ष

बोधिवृक्ष ******* “आँगन में यहाँ जो वृक्ष खड़ा है कहना गलत नही कि वह इस सूबे.. पृथ्वी.. सारे ब्रह्म में खडा है” यह तथ्य एक सत्यबोध बनकर जिनके ह्रदय में उतरा होगा उनके लिए वह वृक्ष... केवल वृक्ष नही एक बोधिवृक्ष बन गया होगा -अरुण

March 2017

मुक्तक ******* हाँ..ना.. में दिया जा सके.... जिंदगी ऐसा जवाब नही कोई रखे हिसाब इसका.... जिंदगी ऐसा हिसाब नही अनगिनत हैं अक्षर यहाँ  ............. अनगिनत तजुर्बे हैं जिंदगी कुछ जाने पहचाने अक्षरों की..... किताब नही -अरुण मुक्तक ******** जीने की तमन्ना ने बाँटी सारी दुनिया दो हिस्सों में जो इधर हुआ अपना हिस्सा जो उधर बचा सारा जहान -अरुण अभी यहाँ कल ही कल ********************** अभी यहाँ जो भी है.... आँखों के सामने देखता उसको तो.. जो कल है बीत चुका अभी यहाँ सपने भी..... आनेवाले.. कल के कल तो बस कल ही है.. आये या ना आये -अरुण एक शेर ******** इधर इसका जले इतिहास....... तो जलता उधर उसका धुआँ और आग तो सबकी..... नही इसकी नही उसकी -अरुण चेतना का काम है चे.त.ना ..जब चेतती है हर एक के बीते हुए अनुभवों को,  याद के रूप में चेताती है।अनुभवों में व्यक्तिगत भिन्नता होने के कारण, लगता यूँ है कि हरेक के भीतर जलती चेताग्नि .. दूसरों के चेताग्नि से भिन्न है..।  सच तो यह है कि सबकी चेतना की आग और यादों का धुआँ तो common ही है। जबतक अंतरदृष्टि न चौंधे **********...