माया को काया कहे

माया को काया कहे
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“जो जैसा है वैसा ही” दिख जाए तो वह है वास्तव
अगर वैसा न दिखकर कुछ गलत या मिथ्या दिखे
तो वह है माया
अगर वह सबों को ही गलत दिखे तो उस देखी गई सार्वजनिक माया को
“सार्वजनिक वास्तव” कहने का चलन है
सकल दुनियादारी भौतिक तथ्यों का संज्ञान लेते हुए भी
इस “सार्वजनिक वास्तव” या अतथ्य को आधाररूप बनाती है
अपने निजी और सार्वजनिक कार्यकलापों को निभाते वक्त
एक उदाहरण-
सबकी अस्मिता या अहंकार को जो एक माया है
“सार्वजनिक वास्तव” के रूप में सहज स्वीकार कर लिया गया है।
-अरुण

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