मन की तरंग

भीतर शब्दों क़ी बस्ती
शब्दों का काम है भीतर आना
और अर्थ सुझाकर लौट जाना
परन्तु वे अर्थ देकर लौटते नही
दिमाग में अर्थ को समेटकर बैठ जाते हैं
अर्थ को विचरने के लिये जगह ही नही छोड़ते
धीरे धीरे इतनी घनी बन जाती है शब्दों की बस्ती कि
समझ को साँस लेने भर क़ी जगह नही छूटती -
समझ या तो पैदा ही नही होती या पैदा भी हो तो
शब्दों के अतिक्रमण के कारण घुंटकर मर जाती है
...................................................................... अरुण

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