मन का अभेद्य अंधकार

कहते हैं उजाले के सामने

अँधेरा टिकता ही नही

परन्तु मन का अँधेरा अलग है

मन का अँधेरा जहाँ से भी गुजरे

बिना देखे ही उजाले को निगल जाता है -

अँधेरे में ही राह बनाते जाना

मन का धर्म है

इसीलिए सत्य का चिर-प्रकाश

वह कभी भी देख नही पाता

जो भी चिर-प्रकाशित हो गये

वे मन-विलोपन के बाद ही हुए

क्योंकि मन से चिर-प्रकाश देखा ही

नही जा सकता

.................................... अरुण


Comments

Asha Joglekar said…
मन का अँधेरा जहाँ से भी गुजरे

बिना देखे ही उजाले को निगल जाता है -
इसी लिये मन को आलोकित रखना होगा ।
कलुष के अंधेरे को चीरना होगा ।
अच्छी प्रस्तुति पर इतनी निराशा क्यूं । मन के रहते भी सत्य देख लें ।

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