प्रेम यानी अनन्यभाव
जिनमें अनन्यभाव जागा
प्रेम और करुणा फल उठी
साधारणतया हम जिसे प्रेम कहते हैं
वह अपनत्व, लगाव, आत्म- तादात्म , सहानुभूति
समानुभूति, समवेदना से अधिक कुछ भी नही
इन सारे भावों में 'मै' का अस्तित्व बना रहता है
आत्मसत्ता काम करती रहती है
अनन्य भाव का अभाव रहता है
...................................................... अरुण
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