समाजीकरण – एक बंधन
शुद्ध- तरल -प्रवाही चेतना लिए बालक
सृष्टि से उभरकर
मानव समुदाय में अवतरित हुआ
उसके कानों में मानवी परिधि
यानी माँ –बाप परिजनों ने
अपना मंत्र फूँकना शुरू किया
उसकी आँखों में
अपनी प्रतिमाएं और रिश्ते जड़ना,
मुंह में अपनी संस्कृति के कौर डालना
सामजिक मूल्यों की गंध से उसे भर देना
और अपने स्पर्श से उसकी स्वर्णिम आभा को
लोहे की जड मूर्ति के रूप में ढालना शुरू कर दिया
कुदरत का वैश्विक आनद
सुखदुख की सीमाओं में सिमट गया
हवा की तरह बहती आत्मा
अहंकार के खूँटे से बंध गयी
नाम- धाम- संपत्ति- प्रतिष्ठा के लिए
लाचार बन गयी
........................................... अरुण
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