जिसके हांथो पाप घटना संभव नही वह साधु है. जो समझ और होश के साथ पाप न करे वह सत्चरित्र है. जो पाप करने से डरे वह (पापभीरु) पापी है. जिसके हांथो अनजाने में पाप घटता हो वह निष्पाप है जो अपने को सत्चरित्र कहलाने में रूचि रखता हो वह ढोंगी है और जो समझबूझकर पाप कर रहा हो वह है पाप का सौदागर -अरुण
भाव से भावना और भावना से प्रतिक्रिया का जन्म होता है. मनुष्य में, उत्क्रांति की देन के रूप में, सृष्टि से विभक्ति का भाव जागते ही अहंकरात्मक प्रतिकियायें शुरू हो गयीं. और इसतरह से सृष्टि से अपनी एकांगता को भूलने के कारण मनुष्य अन्यभाववश सृष्टि के प्रति अपने दृष्टिकोण और आचरण रचने लगा विभक्ति-भाव का जन्म होना, इस मूल भूल के कारण ही सदियों से मनुष्य अशांत है -अरुण
देख-सुनकर चित्त में बने अस्तित्व के स्मृतिरूप टुकड़े अस्तित्व को चित्त में विभाजित कर देते हैं अस्तित्व का सत्यरूप न विभाजित होता है और न हो सकता है ...... यह सच्चाई जिनके प्राण और ध्यान में पल पल जीवंत है वे अस्तित्व में पूर्णतःसमाधिस्थ हैं -अरुण
अस्तित्व में विचारशीलता का अवतरण होते ही अस्तित्व में आदमी के लिये, नामों, संज्ञाओं, संकल्पनाओं, विश्लेषणों और निष्कर्षों का एक नया आयाम खुल गया. ‘ जो न था, न है और न होगा ’ - उसका अस्तित्व पैदा हो गया आदमी इसी नये अस्तित्व में रहकर मूल -अस्तित्व को समझने की चेष्टा कर रहा है -अरुण
अस्तित्वरुपी सत्य-जल में पूरी तरह डूबा हुआ आदमी अपने मन-जल में डुबकियां लगाता विचर रहा है और मन-जल में ही सत्य के बारे में चिंतन कर रहा है.ऐसा चिन्तक दार्शनिक तो है पर सत्य-स्पर्शी नही -अरुण
अस्तित्व न बनता है और न कुछ बनाता है फिर भी इस अस्तित्व में माया-बाधित आदमी दुनियादार बनकर मन में अपनी दुनिया रचता है जबतक मन है, दुनिया कायम है मन के ओझल होते ही दुनिया ओझल और अस्तिव पूर्ववत कायम -अरुण
तुम्हारे आनेकी उम्मीद ही मेरी जिंदगी थी तुम्हारा आना, सो बन गया, मेरी मौत का सबब - अरुण रौशनी में खलल तो बने रात-ओ-सहर टुकड़ों में बट गया है जिंदगानी सफर -अरुण
जो पूरा का पूरा हो न बटा हो कहीं से भी, जिसके न बाहर हो कुछ भी न भीतर, उसे न कोई आकार है और न वह है कोई भी प्रकार क्योंकि वह है पूरा का पूरा अपने इस पूरेपन में लौट आना ही है जीवन का मक्सद - अरुण
न जाना है कहीं और न पाना है कुछ भी न इंतजार में बैठे रहना है जो है अभी इसी पल उस को ही देख लेना है कोशिशे बेकार हैं, न कोई राह है अलग बस ये होश आ जाए कि कैसे पड़ा हूँ सच से अलग थलग -अरुण