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Showing posts from July, 2014

परिचय का चश्मा पहन घूमत परिचित पार...

परिचय का चश्मा पहन घूमत परिचित पार खुली आँख ले जो चला पहुंच गया ‘उस पार’ -अरुण ‘उस पार’ का आशय है उस अनुभव से जो पूरी तरह अपरिचित हो. अपरिचित यानि अज्ञेय, जिसे जाना ही नही जा सकता. ‘जानना’ काम है परिचय का..... अपरिचित की अनुभूति परिचय या परिचित को कभी भी संभव नही है. -अरुण       

“मै जिंदगी का साथ निभाता चला गया”

जिंदगी है बिलकुल सीधी सरल, मगर परेशान तो है वो..... जो जिंदगी को अपनी समझने लगा है उसकी यही परेशानी...खुद से ही फलती कई दूसरी परेशानियों को हटाने में जुट गयी है. ऐसे में क्या हासिल होगा?..कुछ भी नही. ..... जिंदगी को अपनी मत समझो समझो कि जिंदगी अपने से ही चल रही है और तुम केवल उसका साथ निभाते जा रहे हो -अरुण    

धर्म क्या है ?

अस्तित्व से अबाधित सीधा संपर्क ही धर्म है. देह-चक्षु और अन्य चार इन्द्रियां (कान, नाक, स्वादेंद्री एवं स्पर्श) बाह्य अस्तित्व के साथ सीधे सीधे संपर्क बनाने के लिए ही हैं. फिर भी मनुष्य प्राणी इनका प्रयोग पूरी तरह सीधे संपर्क के लिए नही कर पाता. उसके द्वारा यह काम अधूरे तौर पर ही घटता है. इस सीधी संपर्क अनुभूति को समझने, इससे मतलब निकालने, इससे information तैयार करने, इससे मानसिक प्रतिमाएं ढालने और इसतरह इसका भविष्य के लिए उपयोग करने जैसी मनुष्य की बौद्धिक प्रवृत्ति (मन,विचार,अहंकार और बुद्धि के जोड़ द्वारा होनेवाली इच्छा या वासना) सीधी-अनुभूति के पूर्णत्व को भंग कर देती है. यही वजह है कि मनुष्य अधुरा रह जाता है. जीवन को न तो पूरी तरह जी पाता है, न समझ पाता है और न ही अपनी आवश्यकताओं/समस्याओं   का पूर्ण समाधान ढूंढ पाता है. -अरुण   

झगडा पहलुओं का

सिक्के को हाँथ में पकड़ना चाहो तो उसके दोनों पहलुओं को एक साथ पकड़ना होगा, ये सोचना या चाहना कि केवल एक ही पहलू से वास्ता हो... मूलभूत नासमझी होगी. संसारी असयानापन इसी नासमझी के कारण कभीभी न ख़त्म होनेवाली नादानी (मूढ़त्व) के संकट में मनुष्य को धकेले हुए है. मन हमेशा एक ही पहलु के प्रति जागा होने के कारण इस नादानी से मुक्त नही हो पाता और इसीलिए सकारात्मक-नकारात्मक के भेद से पीड़ित रहता हुआ किसी चयन (एक ही चाहिए ..दूसरा नही) की उलझन में व्याकुल है. ....जगत को जो ह्रदय से देखे, मन से नहीं, उससे द्वारा यह नादानी हो नही पाती. ऐसा ह्रदय हर स्थिति में राजी हुआ जीता है -अरुण

साहिर लुधियानवी साहब की अध्यात्मिक सोच

साहिर लुधियानवी साहब के फिल्मी गीतों में भी आध्यत्मिक आशय बसते हैं   बानगी के लिए उनके एक गीत का यह मुखड़ा देखिये ‘जियो तो ऐसे जियो जैसे सब तुम्हारा हो’ (मतलब कोई आभाव न हो – वासनाएँ पूरी तरह तृप्त हों) ‘मरो तो ऐसे मरो जैसे तुम्हारा कुछ भी नही’ (फिर लौट आने की जरूरत क्या? जब पीछे कोई अतृप्ति छूटी ही न हो) -अरुण