अस्तित्व से अबाधित सीधा संपर्क ही धर्म है. देह-चक्षु और अन्य चार इन्द्रियां (कान, नाक, स्वादेंद्री एवं स्पर्श) बाह्य अस्तित्व के साथ सीधे सीधे संपर्क बनाने के लिए ही हैं. फिर भी मनुष्य प्राणी इनका प्रयोग पूरी तरह सीधे संपर्क के लिए नही कर पाता. उसके द्वारा यह काम अधूरे तौर पर ही घटता है. इस सीधी संपर्क अनुभूति को समझने, इससे मतलब निकालने, इससे information तैयार करने, इससे मानसिक प्रतिमाएं ढालने और इसतरह इसका भविष्य के लिए उपयोग करने जैसी मनुष्य की बौद्धिक प्रवृत्ति (मन,विचार,अहंकार और बुद्धि के जोड़ द्वारा होनेवाली इच्छा या वासना) सीधी-अनुभूति के पूर्णत्व को भंग कर देती है. यही वजह है कि मनुष्य अधुरा रह जाता है. जीवन को न तो पूरी तरह जी पाता है, न समझ पाता है और न ही अपनी आवश्यकताओं/समस्याओं का पूर्ण समाधान ढूंढ पाता है. -अरुण