एक गजल
कुछ साँस ले रहे हैं ज़माने के वास्ते
कुछ मेहरबां बने हैं ज़माने से सीखकर
जो खुद को देख लेता है गैरों की शक्ल में
गैरों को जान देता है अपनी निकालकर
जिसके लिए बदन हो किराये का इक मकान
उसको न चाहिए कोई चादर मजार पर
उस साधू को कौन सराहेगा मेरे यार
जिस साधू का मोल न हो राजद्वार पर
...................................................... अरुण
कुछ मेहरबां बने हैं ज़माने से सीखकर
जो खुद को देख लेता है गैरों की शक्ल में
गैरों को जान देता है अपनी निकालकर
जिसके लिए बदन हो किराये का इक मकान
उसको न चाहिए कोई चादर मजार पर
उस साधू को कौन सराहेगा मेरे यार
जिस साधू का मोल न हो राजद्वार पर
...................................................... अरुण
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