Posts

Showing posts from December, 2009

दो शेर

इतना न प्यार दो कि आदत जकड़े घर के बाहर है बड़ी जिद्दोजहद ख़ुशी जाहिर करो मगर बेइन्तिहाँ न करो दिल टूटेंगे उनके जो ग़मगीन बैठे हैं ........................................... अरुण

निजी खोज जरूरी है

ये भीड़ उन लोगों की ही जो अपनी निजी 'प्यास' का समाधान ढूंढ़ नही पाए पर ये जान कर कि इर्दगिर्द भी लोगों में ऐसी ही 'प्यास' है इकठ्ठा हुए, 'प्यास' का उपाय ढूँढने में जुट गए, कई सार्वजानिक तरकीबें इजाद की, मंदिर बने, पोथियाँ लिखी- पढ़ी गईं , पूजा पाठ प्रवचन,भजन पूजन ऐसा ही सबकुछ और अब यही सब..... मानो 'प्यास' बुझाने के तरीकें मिल गएँ हों पर सच तो यह है कि निजी 'प्यास' अभी भी बनी हुई है क्योंकि निजी खोज शुरू ही नही होती ...................................... अरुण

दुनिया बदल रहा हूँ .....

दुनिया बदल रहा हूँ खुद को बदल न पाया होगा तभी बदल जब खोए जगत की छाया जेहन है छाया जगत की जिस्म के भीतर .................. माटी न बांधती है किसी को यहाँ मगर हम ही बंधे उसे, वो तो अजाद है मेरी- तेरी कह के, हमने बाँट दी सारी जमीं ................ कागज पे लिख रही है कलम लफ्ज ए जेहन कागज को सिर्फ स्याही का आता सवाद है कागज न जाने. न जाने दिमाग - लिखा क्या है उसपे? ................................................. अरुण

खोज अन्तस्थ की

खोज की तरफ आँखों को ले आता है गुरु गुरु को छोड़े बिना खोज होती नही शुरू खोज के लिए गुरु साधक, पर खोज में गुरु अड़चन ..................... जितना बढे सहवास ढलता है सुवास जितना बढे सानिध्य प्रकटे सार सार सहवास संसार से, सानिध्य अन्तस्थ से ............. श्रद्धा से यात्रा शुरू हो पाती है विवेक से निखर निखर आती है अन्तस्थ की यात्रा में श्रद्धा एवं विवेक दोनों जरुरी ............................................................. अरुण

तीन पंक्तियों में संवाद

नफरत निभाई जाती है संग दोस्त के जिससे हो वास्ता उसी से हो सके घृणा भावना का विश्व है बड़ा पेचीदा ..................... मन न कभी मन को मिटा पाया कलम न कभी लिखे को मिटा पाई मन ही मन रचे समाधानों से काम चल जाता है ........................ अभी ईश्वर को जानने की जल्दी नही है 'हाँ, मै उसे मानता हूँ' - ये ख्याल ही ईश्वर सा है इसीलिए खोजी कम और आस्तिक बहुत हैं ......................................................... अरुण

तीन पंक्तियों में संवाद

पेड़ का फल -फूल की सुरभि बुद्धि का फल, प्रेम की सुरभि हम पकड़ते हैं फल, सुरभि पकड़ती है हमें ........... हम तो सोये हुए- जागते भी, सोते भी सोये हैं विचारों में, सोये हैं सपनों में जागना अभी बाकी है असली सच्चाई में ............. ये आसमाँ और ये धरती देह से अलग कहाँ? भेद है दृष्टि में, अस्तित्व में कहाँ ? ................................................ अरुण

तीन पंक्तियों में संवाद

विरासत में पाई हुई दुकान चलाने वाले तुने दुकान भरी पाई है, पहले दिन से नयी नजर तो 'नया'- नया, विरासती तो 'पुराना'- नया ................. दुनिया के बदस्तूर बर्ताव किए जाते हैं सुकून न सही, इज्जत तो मिलेगी दुनिया के सभी दस्तूर भाते नही ....................... शब्द में अर्थ लपेटूं तो लपेटूं कैसे शब्द तो लेबल है चादर नही ऐसे लेबलों से सच बयां नही होता ................................................... अरुण

तीन पंक्तियों में संवाद

विरासत में पाई हुई दुकान चलाने वाले तुने दुकान भरी पाई है, पहले दिन से नयी नजर तो 'नया'- नया, विरासती तो 'पुराना'- नया ................. दुनिया के बदस्तूर बर्ताव किए जाते हैं सुकून न सही, इज्जत तो मिलेगी दुनिया के सभी दस्तूर भाते नही ....................... शब्द में अर्थ लपेटूं तो लपेटूं कैसे शब्द तो लेबल है चादर नही ऐसे लेबलों से सच बयां नही होता ................................................... अरुण

तीन पंक्तियों में संवाद

खिलाकर मिर्च पूरी, मुंह जलातें हैं बचा चयन न कोई, अब सिवा पानी के परंपरा के बंधन हों तो विकल्प नही होते ............... दुख को जगाता सुख, दुख को दबाता सुख दो किस्म के सुखों में ये जिंदगी कटी पर पाया नही ऐसा जिसे दुख न नापता .................. निकले थे यात्रा पर, चक्के के ऊपर हम पता नही कब कैसे चक्के में आ अटके मन में अटके को जिंदगी- परेशानी ................................................. अरुण

तीन पंक्तियों में संवाद

हंसते रोते सब तजुर्बे काम आये सब में 'मै' ने ढूंढ़ ली अपनी महत्ता राख में भी उठ खड़ा होता है 'मै' .................... 'छोड़ अपने मोह'- ये सीख पूरी भा गई कैसे छोड़े मोह इसकी फिक्र जारी हो गई अब नया सवाल- 'इस फिक्र से कैसे बचूं ?' ...................... जाना नही सगे को बरसों से साथ रहते वह अपनी सोचता था, मै अपने में ही खोया 'कौन रोता है किसी और के खातिर ऐ दोस्त...' ............................................................... अरुण

तीन पंक्तियों में संवाद

हाल पूछते हो, बतला न सकूँगा हाल हर पल में है अलेहदा जबाब आने तक बात बदल जाती है ........... तर्क के तीर काम आ सकते हैं मगर तीरअन्दाज की नजर हो चौकन्नी तर्क का यन्त्र चले समझ की हाथों से .............. ये, कुदरत में खुद को घोलकर, कुदरत को बूझता वो, हिस्सों में बाँट बाँट के कुदरत को जाँचता दोनों ही खोज, विद्या अलग अलग ......................................................... अरुण

तीन पंक्तियों में संवाद

अच्छों- बुरों से सोहबत तो कर के देख ली बदनाम ही बचे थे जिनको न मिल सका शायद उन्ही में होगा कोई रहनुमा मेरा ........... किसीको पाना हो कोशिशों पे चढ़ जाना किसी का हो लेना आसमाँ से गिर जाना खुद का बोझा छोड़ते राजी हो हर बात .............. शब्द सारे खोखले हैं उनसे पूछो तो दिखाते अंगुली केवल शब्दों के कई घाट, अर्थों का केवल एक प्रवाह -जीवन प्रवाह ..................................................... अरुण

आजादी के साठ साल बाद भी .....

साठ बरस से पिंजड़े का बस द्वार खुला है बिन पंखों का पंछी उसमे पड़ा हुआ है यहाँ गरीबी गाना गाये आजादी के हर दिन हर पल डगर चले जो बर्बादी के बेकारी से हाँथ युवा का सडा हुआ है साठ बरस से .... 1 हर मजहब से ऊंचा उठकर संविधान है दो मजहब के बीच द्वेष का ही विधान है धर्म यहाँ सर पर सवार बन खड़ा हुआ है साठ बरस से .... 2 भेदभाव के बैरी बस सदभाव भेदते 'अंतर' को अलगावभरे स्वर आज छेदते हर दिवार पर नारा कोई जड़ा हुआ है साठ बरस से .... 3 रोज किसी का स्मरण किसी का जनम मनाते आदर्शों पर चलने की बस टेप बजाते कार्यक्रमों से इन्ही देश यह जुड़ा हुआ है साठ बरस से .... 4 रटे रटाये भाषण से हम ऊब चुके हैं ऊँची ऊँची बातों में हम डूब चुके हैं कड़े परिश्रम का नारा बस कड़ा हुआ है साठ बरस से ... 5 साठ बरस से पिंजड़े का बस द्वार खुला है बिन पंखों का पंछी उसमे पड़ा हुआ है (यह कविता आजादी के ४० साल पूरे होने पर लिखी गई थी. मुखड़े में 'चार दशक से ... ' की जगह 'साठ साल से.... ' इतनाही परिवर्तन किया गया है.) ............................................................... अरुण

तीन पंक्तियों में संवाद

एक गाँधी ने दिलाई एक आजादी अब उसे मिल बाँटते हैं कई गाँधी 'अनशन.. परिस्थिति विकराल.. तेलंगना स्वीकार' ........... सच नहीं कोशिश कुई, साहस है पूरा एक सच ने उसको थामना जो झूठ से लेता छलांग कोशिश असत्य से टूटने की हो, सत्य से तो जुड़े ही हैं ............ भोर,सुबह, दोपहर और शाम क्या? रात क्या?- बढ़ते घटते सूर्य के परिणाम ये बातें परस्पर विरोधी नहीं - डिग्री का फर्क है .............................................. अरुण

तीन पंक्तियों में संवाद

जीवन में दो और दो चार नहीं होते जो समझ से जीते हैं बेजार नहीं होते दीवारें चार- जेल की, तो घर की भी ------------ बात सर से सर लगा के करो, टकराएगी दिल से दिल लगा के करो, पहुँच जाएगी लफ्जों की कश्तियों से बातें पहुँच ना पाती ------------- कुई छोटा बड़ा कोई, हकीकत है भुलाएँ क्यों दिलों से दिल मिले हों तो बराबर के सभी रिश्ते 'मायनीओरीटी' जुबां पे आते हम चूक गए ....................................................... अरुण

तीन पंक्तियों में संवाद

चंद सामान से गुजारा करने वाले अच्छी हालत में बसेरा करने वाले आंसुओं की नमी में कोई फर्क नहीं --------------- सुबह को आना हो तो कहाँ आएगी रात ठहरी है हरेक के घर में जलता तो होगा कहीं चिरागे उम्मीद ................................................ अरुण

एक चिंतन

खुली सड़क पर दौड़ती कार में बैठकर कार की गति को महसूस किया जाता है . हवा का दबाव, उसकी मार, पीछे दौड़ते मालूम पड़ते पेड़ों की गति .... सब मिलकर कार की गति का अनुभव करा देतें हैं. इसके लिये स्पीडो मीटर देखना जरूरी नहीं. मान लीजिए यदि किसी कारण/गलती से स्पीडो मीटर यह संकेत दे की कार 'चल नहीं रही' तो क्या हम इसे स्वीकार कर लेंगे? स्पीडो मीटर गति का सही सही आंकड़ा जानने के लिये है. वह गति का एकमेव प्रमाण नहीं है. सारे तर्क, विश्लेषण, मापन, गणन, बुद्धि के मित्र है. बुद्धि के समाधान के लिये होतें है. उनका भी अपना विशेष महत्व है. ज्ञान में छुपे व्यक्तिनिष्ठता के प्रभाव को हटा कर वस्तुनिष्ठ निष्कर्षों तक पहुँचाने में वे सहायक होते है. परन्तु रहस्य-दृष्टा पूर्णनिष्ठतासे जगत को देखता है. उसके देखने में देखने वाला एवं दिखने वाला, दोनों का एकसाथ एवं एकही क्षण अंतर्भाव है. इसीलिये जिस सुख दुःख को लेकर दुनिया में इतना उहा पोह होता दिखता है, मनस वैज्ञानिक भी इतना विश्लेषण करते दिखते हैं , रहस्य-ज्ञाता की दृष्टी में (अनुमान, तर्क या मत में नहीं ) सुख दुःख का कोई अस्तित्व ही नहीं है. वह तो म...

एक चिंतन

लोगों को सुखी कैसे रख्खा जाये? -इसपर सभी समाज एवं अर्थ विचारकों ने सोचा है लोगों के मन में सुख दुःख सम्बन्धी भावनाएं कब और क्यों उभरती है? - इसका उत्तर मनोवैज्ञानिक देता है लोगों के सुख दुःख को लेकर किसने क्या कहा? -इसे दार्शनिक खोजता एवं बताता है सुख दुःख का परमअस्तित्व में क्या स्थान है ? - इसे रहस्य-दृष्टा अपने में एवं अपने समाजी संबधो के भीतर झांक कर प्रति क्षण देखता रहता है ................................................................................. अरुण

कुछ शेर

नग्मा- ए- इश्क में भी तल्लीनता अजीब दिल से पढ़ने पे दिख जाती है रूह अपनी सांसे तो सब की ही तरोताजा हैं भीड़ में आते रिवायात महक उठती है अगले पल को बतलाना नामुमकिन, पर किया करते कई इसका ही कारोबार ............................. अरुण

कुछ सांकेतिक शेर

जिंदगी से मै बहोत नाशाद हूँ जितना चाहूँ उतना वह देती नहीं (सांसारिकता में उलझे मन का निराश होना लाजमी है. इच्छाएं बढ़ती ही जाती हैं जिससे मन सदा अतृप्त है ) अँधेरे से नहीं बातें करना ऐ उजाले तेरी हर बात अँधेरे में बदल जाएगी (सिद्ध के संवाद सांसारिक मन को समझ नहीं आते. सिद्ध की सारी बातों को मन अपना आशय जोड़कर समझना चाहता है ) .................................................................................... अरुण

कुछ सांकेतिक शेर

भुला दिया हो मगर मिट न सकेगा हमसे जो मिटाना है उसे भूल नहीं पाते हम (अस्तिव जिसके हम अभिन्न हिस्से हैं उसे भले ही हम भूले हुए हों पर उसे हम कभी मिटा नहीं सकते. परन्तु जिसको दिमाग ने रचा है, वह हमारा व्यक्तित्व, हमें मिटाना तो है पर उसको हम किसी भी तरह भूल नहीं पाते.) जहन ने देखा नहीं फिर भी बयां कर देता दिल ने देखा है, जुबां पास नहीं कहने को (अन्तस्थ को मन देख नहीं पाता पर बुद्धि के सहारे शब्दों में अभिव्यक्त करता है जब कि भीतरी अनुभूति अन्तस्थ को पूरी तरह छूती है फिर भी अभिव्यक्ति का कोई भी साधन उसके पास नहीं है.) नहीं आँखों ने सुना और दिखा कानों से दिल से छूना हो जिसे धरना नहीं हाथों से (अन्तस्थ को अंतःकरण से ही जाना जा सकता है मन से नहीं देखा जा सकता. ठीक उसी तरह जैसे आँखों से सुना नहीं जा सकता एवं कानो से देखा नहीं जाता. जिसे अंतःकरण ही देख सकता है उसे मन से पकड़ने का प्रयास व्यर्थ है .) ....................................................अरुण

कोई भूल हुई हो शायद ...

उत्क्रांति के पथ पर आदमी के मस्तिष्क-रचना में कोई भूल हुई हो शायद यही कारण है कि उसकी सभी मानसिक परेशानियाँ अवास्तविक हैं उनके कारण समझे बिना ही वह झूठे इलाजों की तरफ दौड़ पड़ता है सपनों में ही डूबकर इच्छाएं जगाता है सपने में ही अपने ध्येय चुनता है स्वास्थ्य, शिक्षा और आर्थिक तथा तकनीकी उन्नति के लिये चलने वाले उसके प्रयास तो समझ आते हैं इस दिशा में तरक्की की क्षमता भी अजब की है उसके पास... इन सब के बावजूद उसके भीतर भय, चिंता एवं असुरक्षा है मानवीय समस्याएँ हल करने में वह विफल रहा है किन्ही लोगों से दूर जाता हुआ अपनो को पास लाता दिखता है ऐसे भय आधारित संगठन हेतु प्रेम एवं सहयोग की भाषा बोलता है जाने अनजाने किसी की बर्बादी पर ही खुद को आबाद करता है अन्दर झांके बिना ही बाहर पसरना चाहता है अशांति की चिनगारी भीतर दबाये शांति की तलाश में है अपनी अलग पहचान बनाने की होड़ में अपनी असली पहचान खो बैठा है यह आदमी ........ उसकी उत्क्रांति प्रक्रिया में कोई भूल हुई हो शायद ........................................................ अरुण

एक सोच

चाँद ही की तरह दूसरे ग्रहों पर भी देशों के झंडे गड़ेंगे और फिर यहाँ जैसे ही वहाँ पर भी युद्ध एवं अशांति के बीज पड़ेंगे ...................... अरुण

रुबाई

पांव के नीचे जमीं को मैंने देखा ही नहीं दर्द के भीतर उतरकर मैंने देखा ही नहीं मै तो दौड़े जा रहा था वक्त का रहगीर बन हर कदम आलम मुसल्लम मैंने देखा ही नहीं ..................................... अरुण