तीन पंक्तियों में संवाद

खिलाकर मिर्च पूरी, मुंह जलातें हैं
बचा चयन न कोई, अब सिवा पानी के

परंपरा के बंधन हों तो विकल्प नही होते
...............
दुख को जगाता सुख, दुख को दबाता सुख
दो किस्म के सुखों में ये जिंदगी कटी

पर पाया नही ऐसा जिसे दुख न नापता
..................
निकले थे यात्रा पर, चक्के के ऊपर हम
पता नही कब कैसे चक्के में आ अटके

मन में अटके को जिंदगी- परेशानी
................................................. अरुण

Comments

मिर्च खाने के बाद तो मीठा या पानी नितांत आवश्यक हो जाता है...बढ़िया ग़ज़ल..धन्यवाद
Udan Tashtari said…
बढ़िया संवाद!

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