कोई भूल हुई हो शायद ...

उत्क्रांति के पथ पर
आदमी के
मस्तिष्क-रचना में कोई भूल हुई हो शायद
यही कारण है कि
उसकी सभी मानसिक परेशानियाँ अवास्तविक हैं
उनके कारण समझे बिना ही वह
झूठे इलाजों की तरफ दौड़ पड़ता है
सपनों में ही डूबकर इच्छाएं जगाता है
सपने में ही अपने ध्येय चुनता है
स्वास्थ्य, शिक्षा और आर्थिक तथा तकनीकी उन्नति के लिये
चलने वाले उसके प्रयास तो समझ आते हैं
इस दिशा में तरक्की की क्षमता भी अजब की है उसके पास...
इन सब के बावजूद उसके भीतर
भय, चिंता एवं असुरक्षा है
मानवीय समस्याएँ हल करने में वह विफल रहा है
किन्ही लोगों से दूर जाता हुआ अपनो को पास लाता दिखता है
ऐसे भय आधारित संगठन हेतु प्रेम एवं सहयोग की भाषा बोलता है
जाने अनजाने किसी की बर्बादी पर ही खुद को आबाद करता है
अन्दर झांके बिना ही बाहर पसरना चाहता है
अशांति की चिनगारी भीतर दबाये
शांति की तलाश में है
अपनी अलग पहचान बनाने की होड़ में
अपनी असली पहचान खो बैठा है यह आदमी ........
उसकी उत्क्रांति प्रक्रिया में कोई भूल हुई हो शायद
........................................................ अरुण

Comments

Udan Tashtari said…
बहुत उम्दा सोच!!

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