मन मन खुद को मत भटकाना

मन मन खुद को

मत भटकाना

दीप जाग्रति की आभा में

मन को रिता

बना आ आ ना

उस आभा के तार तार से

बनते मन के गलियारे

मन मानस में शब्द बुन रहा

जिसमें अंतर सुध हारे

तार तार को छोड़ सकल

ज्योति में खुद

खो जाना

................................. अरुण

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एक और सुन्दर कविता आपकी कलम से !

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