The Joy of Living Together - अध्याय २ - दुःख और आपदा (भाग २)
धर्म-शब्द धर्म मनुष्य-निर्मित नही है । अपनी सोयी हुई यानी मन के भीतर दबी हुई अवस्था में रहकर मनुष्य धर्म के बारे में जो भी कोशिशे करता है और इस तरह जो भी रचता है, उसे मनुष्य का सुप्त-मन धर्म मान रहा है । बीता हुआ वास्तव ( Reality) जिसे यदि हम Actuality (तथ्य) कहें, तो कहना होगा कि वर्तमान जो एक जीवंत ( spirit) है, न तो बीते ( Actuality ) और न ही किसी भी वास्तव के प्रभाव में है क्योंकि यह हमेशा स्मृति-मुक्त है । मनुष्य सोयी अवस्था में रहने के कारण स्मृति कलापों से बंधा रहता है, बीते और वर्तमान को जाने बिना (उसे जागृत अवस्था में देखे बिना) ही उसे किसी प्रतिमा या प्रतीकों में बदल कर संग्रहित करता जाता है । सारी धर्म-पुस्तकें या लिखे-कहे-सुने सन्देश धर्म नही हैं । अलिखित जीवंत ही धर्म है । धर्म को जैसे ही कहा-लिखा-सुना गया वह केवल स्मृति संग्रह बन कर रह गया । धर्म केवल प्रत्यक्ष देखा जाने वाला जीवंत है, कोई लिखा-कहा-सुना धर्म शब्द नही । ......... क्रमशः आगे अध्याय २ (भाग ३)